शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

कह री दिल्ली.....

यहाँ हर ओर चेहरों की चमक जब भी है मिलती मुस्कुराती है,
यहाँ पाकर इशारा ज़िन्दगी लंबी सड़क पर दौड़ जाती है,
सुबह का सूर्य थकता है तो खंभों पर चमक उठती हैं शामें,
यहाँ हर शाम प्यालों में लचकती है, नहाती है...
दुःख ठिकाना ढूँढता है, सुख बहुत रफ़्तार में है..
माँ मगर वो सुख नही है जो तुम्हारे प्यार में है..............

यहाँ कोई धूप का टुकडा नही खेला किया करता है आंगन में,
सुबह होती है यूं ही, थपकियों के बिन,कमरे की घुटन में,
नित नए सपने बुने जाते यहां हैं खुली आंखों से,
और सपने मर भी जाएँ, तो नही उठती है कोई टीस मन में
घर की मिट्टी, चांद, सोना, सब यहाँ बाज़ार में है...
माँ मगर वो....................

मेरे प्रियतम! हमारे मौन अनुभव हैं लजाते,
हम भला इस शोर की नगरी में कैसे आस्था अपनी बचाते,
प्रेम के अनगिन चितेरे यहा सड़कों पर खडे किल्लोल करते
रात राधा,दिवस मीरा संग, सपनो का नया बिस्तर लगाते,
प्रेम की गरिमा यहाँ पर देह के विस्तार में है...
हाँ! मगर वो............

कह री दिल्ली? दे सकेगी कभी मुझको मेरी माँ का स्नेह-आँचल,
दे सकेंगे क्या तेरे वैभव सभी,मिलकर मुझे, दुःख-सुख में संबल,
क्या तू देगी धुएं-में लिपटे हुये चेहरों को रौनक??
थकी-हारी जिन्दगी की राजधानी,देख ले अपना धरातल,
पूर्व की गरिमा,तू क्यों अब पश्चिमी अवतार में है??
माँ मगर वो........................

निखिल आनंद गिरि
(दिल्ली आकर लिखी गई शुरूआती कविताओं में से एक)

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे...

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....


अभी वक्त की मारामारी है,

कुछ सपनों की लाचारी है,

जगती आंखों के सपने हैं...

राशन, पानी के, कुर्सी के...

पल कहां हैं मातमपुर्सी के....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....


अभी वक्त पे काई जमी हुई,

अपनों में लड़ाई जमी हुई,

पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,

ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,

इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....


उम्र का क्या है, बढ़नी है,

चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...

घर में मां अकेली पड़नी है,

बाबूजी का क़द घटना है,

सोचूं तो कलेजा फटना है,

इक दिन टूटेगा......


उसने हद तक गद्दारी की,

हमने भी बेहद यारी की,

हंस-हंस कर पीछे वार किया,

हम हाथ थाम कर चलते रहे,

जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,

सर्वस्व समर्पण करते रहे,

तुम मोल समझ पाए ही नहीं,

ख़ामोश इबादत जारी है,

हर सांस में याद तुम्हारी है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


अभी और बदलना है ख़ुद को,

दुनिया में बने रहने के लिए,

अभी जड़ तक खोदी जानी है,

पहचान न बचने पाए कहीं,

आईना सच न दिखाए कहीं!

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....


अभी रोज़ चिता में जलना है,

सब उम्र हवाले करनी है,

चकमक बाज़ार के सेठों को,

नज़रों से टटोला जाना है,

सिक्कों में तोला जाना है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....


इक दिन नीले आकाश तले,

हम घंटों साथ बिताएंगे,

बचपन की सूनी गलियों में,

हम मीलों चलते जाएंगे,

अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..


मां की पथरायी आंखों में,

इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,

मेरे आने की आस लिए..

उस उम्र का हर पल बोलेगा....


टूटे चावल को चुनती मां,

बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,

दिन भर का सारा बोझ उठा,

सूना कमरा, सिर धुनती मां....


टूटे ऐनक की लौटेगी

रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...

मां तेरे आंचल में सिर रख,

मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,

मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....


तू चूमेगी, पुचकारेगी,

तू मुझको खूब दुलारेगी...

इस झूठी जगमग से रौशन,

उस बोझिल प्यार से भी पावन,

जन्नत होगी, आंचल होगा....

मां! कितना सुनहरा कल होगा.....


इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....

Subscribe to आपबीती...

रविवार, 5 दिसंबर 2010

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन...

दे जाता है इन शामों को सागर कौन...

चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?

भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?

उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,

कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?

संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,

होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?

रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,

कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...

सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,

मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?

मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,

ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..

जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,

‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?


निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी...

वहां हम छोड़ आए थे चिकनी परतें गालों की

वहीं कहीं ड्रेसिंग टेबल के आसपास

एक कंघी, एक ठुड्डी, एक मां...

गौर से ढूंढने पर मिल भी सकते हैं...

एक कटोरी हुआ करती थी,

जो कभी खत्म नहीं होती....

पीछे लिखा था लाल रंग का कोई नाम...

रंग मिट गया, साबुत रही कटोरी...


कूड़ेदानों पर कभी नहीं लिखी गई कविता

जिन्होंने कई बार समेटी मेरी उतरन

ये अपराधबोध नहीं, सहज होना है...


एक डलिया जिसमें हम बटोरते थे चोरी के फूल,

अड़हुल, कनैल और चमेली भी...

दीदी गूंथती थी बिना मुंह धोए..

और पिता चढ़ाते थे मूर्तियों पर....

और हमें आंखे मूंदे खड़े होना पड़ा....

भगवान होने में कितना बचपना था...


एक छत हुआ करती थी,

जहां से दिखते थे,

हरे-उजले रंग में पुते,

चारा घोटाले वाले मकान...

जहां घाम में बालों से

दीदी निकालती थी ढील....

जूं नहीं ढील,

धूप नहीं घाम....

और सूखता था कोने में पड़ा...

अचार का बोइयाम...


एक उम्र जिसे हम छोड़ आए,

ज़िल्द वाली किताबों में...

मुरझाए फूल की तरह सूख चुकी होगी...

और ट्रेन में चढ़ गए लेकर दूसरी उम्र....

छोड़कर कंघी, छोड़कर ठुड्डी, छोड़कर खुशबू,

छोड़कर मां और बूढ़े होते पिता...


आगे की कविता कही नहीं जा सकती.....

वो शहर की बेचैनी में भुला दी गई

और उसका रंग भी काला है...

इस कविता में प्रेमिका भी आनी थी,

मगर पिता बूढ़े होने लगें,

तो प्रेमिकाओं को जाना होता है....


निखिल आनंद गिरि

Subscribe to आपबीती...

रविवार, 28 नवंबर 2010

एक उदास कविता...जैसे तुम

गांव सिर्फ खेत-खलिहान या भोलापन नहीं हैं,

गांव में एक उम्मीद भी है,

गांव में है शहर का रास्ता

और गांव में मां भी है...


शहर सिर्फ खो जाने के लिए नहीं है..

धुएं में, भीड़ में...

अपनी-अपनी खोह में...

शहर सब कुछ पा लेना है..

नौकरी, सपने, आज़ादी..


नौकरी सिर्फ वफादारी नहीं,

झूठ भी है, साज़िश भी...

उजले कागज़ पर सफेद झूठ...

और जी भरकर देह हो जाना भी..


देह बस देह नहीं है...

उम्र की मजबूरी है कहीं,

कहीं कोड़े बरसाने की लत है...

सच कहूं तो एक ज़रूरत है..


और सच, हा हा हा..

सच एक चुटकुला है....

भद्दा-सा, जो नहीं किया जाता

हर किसी से साझा...

बिल्कुल मौत की तरह,

उदास कविता की तरह....


और कविता...

...................

सिर्फ शब्दों की तह लगाना

नहीं है कविता,..

वाक्यों के बीच

छोड़ देना बहुत कुछ

होती है कविता...

जैसे तुम...

निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

खैर, मां तो मां है ना...

आज बहुत दिनों बाद लौटा हूँ घर,

एक बीत चुके हादसे की तरह मालूम हुआ है

की मेरी बंद दराज की कुछ फालतू डायरियां

(ऐसा माँ कहती है, तुम्हे बुरा लगे तो कहना,

कविता से हटा दूंगा ये शब्द....)

बेच दी गयी हैं कबाडी वाले को....

मैं तलाश रहा हूँ खाली पड़ी दराज की धूल,

कुछ टुकड़े हैं कागज़ के,

जिनकी तारीख कुतर गए हैं चूहे,

कोइ नज़्म है शायद अधूरी-सी...

सांस चल रही है अब तक...


एक बोझिल-सी दोपहर में जो तुमने कहा था,

ये उसी का मजमून लगता है..

मेरे लबों पे हंसी दिखी है...

ज़ेहन में जब भी तुम आती हो,

होंठ छिपा नहीं पाते कुछ भी....

खैर, मेरे हंस भर देने से,

साँसे गिनती नज़्म के दिन नहीं फिरने वाले..

वक़्त के चूहे जो तारीखें कुतर गए हैं,

उनके गहरे निशाँ हैं मेरे सारे ज़हन पर..


क्या बतलाऊं,

जिस कागज़ की कतरन मेरे पास पड़ी है,

उस पर जो इक नज़्म है आधी...

उसमे बस इतना ही लिखा है,

"काश! कि कागज़ के इस पुल पर,

हम-तुम मिलते रोज़ शाम को...

बिना हिचक के, बिना किसी बंदिश के साथी...."


नज़्म यहीं तक लिखी हुई है,

मैं कितना भी रो लूं सर को पटक-पटक कर,

अब ना तो ये नदी बनेगी,

ना ये पुल जिस पर तुम आतीं...

माँ ने बेच दिया है अनजाने में,

तुम्हारे आंसू में लिपटा कागज़ का टुकडा...

पता है मैंने सोच रखा था,

इक दिन उस कागज़ के टुकड़े को निचोड़ कर....

तुम्हारे आंसू अपनी नदी में तैरा दूंगा,

मोती जैसे,

मछली जैसे,

कश्ती जैसे,

बल खाती-सी..


खैर, माँ तो माँ ही है ना..

बहुत दिनों के बाद जो लौटा हूँ तो इतनी,

सज़ा ज़रूरी-सी लगती है...

निखिल आनंद गिरि

Subscribe to आपबीती...

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

रात, चांद और आलपिन....

अभी बाक़ी हैं रात के कई पहर,


अभी नहीं आया है सही वक्त

थकान के साथ नींद में बतियाने का....

उसने बर्तन रख दिए हैं किचन में,

धो-पोंछ कर...

(आ रही है आवाज़....)

अब वो मां के घुटनों पर करेगी मालिश,

जब तक मां को नींद न आ जाए..

अच्छी बहू को मारनी पड़ती हैं इच्छाएं...

चांदनी रातों में भी...

कमरे में दो बार पढ़ा जा चुका है अखबार....

उफ्फ! ये चांदनी, तन्हाई और ऊब...


पत्नी आती है दबे पांव,

कि कहीं सो न गए हों परमेश्वर...

पति सोया नहीं है,

तिरछी आंखों से कर रहा है इंतज़ार,

कि चांदनी भर जाएगी बांहों में....

थोड़ी देर में..

वो मुंह से पसीना पोंछती है,

खोलती है जूड़े के पेंच,

एक आलपिन फंस गई है कहीं,

वो जैसे-तैसे छुड़ाती है सब गांठें

और देखती है पति सो चुका है..

अब चुभी है आलपिन चांदनी में...

ये रात दर्द से बिलबिला उठी है....


सुबह जब अलार्म से उठेगा पति,

और पत्नी बनाकर लाएगी चाय,

रखेगी बैग में टिफिन (और उम्मीद)

एक मुस्कुराहट का भी वक्त नहीं होगा...


फिर भी, उसे रुकना है एक पल को,

इसलिए नहीं कि निहार रही है पत्नी,

खुल गए हैं फीते, चौखट पर..

वो झुंझला कर बांधेगा जूते...

और पत्नी को देखे बगैर,

भाग जाएगा धुआं फांकने..


आप कहते हैं शादी स्वर्ग है...

मैं कहता हूं जूता ज़रूरी है...

और रात में आलपिन...


निखिल आनंद गिरि

Subscribe to आपबीती...

सोमवार, 22 नवंबर 2010

तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगता है...

तुम कैसे हो?
दिल्ली में ठंड कैसी है?
....?

ये सवाल तुम डेली रूटीन की तरह करती हो,
मेरा मन होता है कह दूं-
कोई अखबार पढ लो..
शहर का मौसम वहां छपता है
और राशिफल भी....

मुझे तुम पर हंसी आती है,
खुद पर भी..
पहले किस पर हंसू,
मैं रोज़ ये पूछना चाहता हूं
मगर तुम्हारी बातें सुनकर जीभ फिसल जाती है,
इतनी चिकनाई क्यूं है तुम्हारी बातों में...
रिश्तों पर परत जमने लगी है..

अब मुझे ये रिश्ता निगला नहीं जाता...
मुझे उबकाई आ रही है...
मेरा माथा सहला दो ना,
शायद आराम हो जाये...
कुछ भी हो,
मैं इस रिश्ते को प्रेम नहीं कह सकता...

अब नहीं लिखी जातीं
बेतुकी मगर सच्ची कविताएं...
तुम्हारा चेहरा मुझे ग्लोब-सा लगने लगा है,
या किसी पेपरवेट-सा....
मेरे कागज़ों से शब्द उड़ न जाएं,
चाहता हूं कि दबी रहें पेपरवेट से कविताएं....

उफ्फ! तुम्हारे बोझ से शब्दों की रीढ़ टेढी होने लगी है....
मैं शब्दों की कलाई छूकर देखता हूं,
कागज़ के माथे को टटोलता हूं,
तपिश बढ-सी गयी लगती है...

तुम्हारी यादों की ठंडी पट्टी
कई बार कागज़ को देनी पड़ी है....
अब जाके लगता है इक नज़्म आखिर,
कच्ची-सी करवट बदलने लगी है...
नींद में डूबी नज्म बहुत भोली लगती है....

जी करता है नींद से नज़्म कभी ना जागे,
होश भरी नज़्मों के मतलब,
अक्सर ग़लत गढे जाते हैं....

निखिल आनंद गिरि...
Subscribe to आपबीती...

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

यहां पुलिस की साजिश को आप साफ साफ देख सकते हैं

मेरे बचपन के साथी हेम चंद्र पांडे की हत्या को सरकार सही ठहराने की कोशिश कर रही है। खुफिया एजेंसियों की तरफ से भाड़े पर लगाये गये पत्रकार अपने काम में जुटे हैं। इसलिए हेम की पत्नी बबीता के बयानों को ज्यादा अखबारों में जगह नहीं मिल पायी। सभी दोस्तों से अपील है कि नीचे दिये गये बबीता के इस बयान को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाएं। अगर आप पत्रकार हैं, तो इसे जगह-जगह प्रकाशित करने की कोशिश भी करें : भूपेन


आंध्रप्रदेश पुलिस मेरे पति हेम चंद्र पांडे के बारे में दुष्प्रचार कर फर्जी मुठभेड़ में की गयी उनकी हत्या पर पर्दा डालने का काम कर रही है। इस मामले में न्यायिक जांच किये जाने के बजाय लगातार मुझे परेशान करने की कोशिश की जा रही है। पुलिस ने शास्‍त्रीनगर स्थित हमारे किराये के घर में बिना मुझे बताये छापा मारा है और वहां से कई तरह की आपत्तिजनक चीजों की बरामदगी दिखायी है। आंध्रप्रदेश पुलिस का ये दावा बिल्कुल झूठा है कि मैंने उन्हें अपने घर का पता नहीं बताया। पुलिस के पास मेरे घर का पता भी था और मेरा फोन नंबर भी लेकिन उन्होंने छापा मारने से पहले मुझे सूचित करना जरूरी नहीं समझा।


मैं अपने पति हेमचंद्र पाडे के साथ A- 96, शास्त्री नगर में रहती थी। हेम एक प्रगतिशील पत्रकार थे। साहित्य और राजनीति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। उनके पास मक्सिम गोर्की के उपन्यास और उत्तराखंड के जनकवि गिर्दा जैसे रचनाकारों की ढेर सारी रचनाएं थीं। इसके अलावा मार्क्सवादी राजनीति की कई किताबें भी हमारे घर में थीं। मैं पूछना चाहती हूं कि क्या मार्क्सवाद का अध्ययन करना कोई अपराध है? पुलिस जिन आपत्तिजनक दस्तावेजों की बात कर रही है, उनके हमारे घर में होने की कोई जानकारी मुझे नहीं है। मेरे पति का एक डेस्कटॉप कंप्‍यूटर था लेकिन उनके पास कोई लैपटॉप नहीं था। उनके पास फैक्स मशीन जैसी भी कोई चीज नहीं थी। वहां गोपनीय दस्तावेज होने की बात पूरी तरह मनगढ़ंत है। मुझे लगता है कि पुलिस मेरे पति की हत्या की न्यायिक जांच की मांग को भटकाने के लिए इस तरह के काम कर रही है। मैं पूछना चाहती हूं कि सरकार क्यों नहीं न्यायिक जांच के लिए तैयार हो रही है?

मैं अपने पति की हत्या के बाद काफी दुखी थी, इस वजह से मैं शास्त्रीनगर के अपने किराये के घर में नहीं गयी। मैं कुछ दिन अपनी सास के साथ उत्तराखंड के हलद्वानी और अपनी मां के पास पिथौरागढ़ में थी। मकान मालकिन का फोन आने पर मैंने उन्हें बताया था कि मैं वापस आने पर उनका सारा किराया चुका दूंगी। अगर उन्हें जल्द घर खाली कराना है तो मेरा सामान निकालकर अपने पास रख लें। मैं बाद में उनसे अपना सामान ले लूंगी। अगर हमारे घर में कोई भी आपत्तिजनक सामान होता, तो मैं उनसे ऐसा बिल्कुल भी नहीं कहती।

मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि पुलिस इस तरह की अफवाह फैलाकर क्या साबित करना चाह रही है। मुझे शक है कि वो मेरे पति की हत्या को सही ठहराने के लिए ही ये सारे हथकंडे अपना रही है। मैं मीडिया से अपील करना चाहती हूं कि वो आंध्रप्रदेश पुलिस के दुष्प्रचार में न आएं और मेरे पति के हत्यारों को सजा दिलाने में मेरी मदद करे।

विनीता पांडे

(मोहल्ला से साभार)

Subscribe to आपबीती...

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

दीपावली पर 50 झंडू गानों का 'म्यूज़िकल बम'

बात कुछ यूं शुरू ही थी कि सितंबर के महीने में हम कानपुर घूमने निकले थे और अचानक अंताक्षरी के बीच कुछ दिलचस्प गानों का ज़िक्र होने लगा जिनका हुलिया आम हिंदुस्तानी गानों से थोड़ा अलग होता है.....इन्हें ‘झंडू’ गानों की कैटेगरी में रखा जा सकता था। दिमाग में ऐसे कई गाने एक साथ घूमने लगे और भीतर गुदगुदी होने लगी। फिर, कुछ ही दिन बाद हमारे दोस्त गौरव सोलंकी ने फेसबुक पर ऐतराज़ जताया कि इस बार के नेशनल अवार्ड में जिस गीत को पुरस्कार मिला है, उससे बेहतर गीतों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। बात में दम था, तो हमने मज़ाक में ही एक ऐलान कर दिया कि ‘झंडू’ गानों का नया क्लब शुरू करते हैं...उन्हें हम अलग से अवार्ड देंगे। फेसबुक पर दो-चार झंडू गानों का स्टेटस लगाया और सोचा कि भड़ास पूरी हो गई। मगर, दोस्तों ने ऐसा बेहतरीन रिस्पांस दिया कि गानों की लिस्ट लंबी होती चली गई। फेसबुक पर कई अनजान दोस्तों ने भी गाने भेजे, और भेजते रहे। फिर हमारे पुराने ‘मनचले’ साथियों के पास झंडू गानों की भरमार थी, तो उन्होंने भी भरपूर मदद की। कई नए झंडू गाने मिले जिनसे मेरे दिमाग का पाला पहले नहीं पड़ा था। मैंने एफएम रेडियो के अपने दो-तीन साथियों से इन गानों पर बात भी कि क्या इन गानों पर आधारित कोई शो शुरू नहीं हो सकता। उन्होंने लगभग टाल ही दिया मगर उम्मीद हमने छोड़ी नहीं है। इन गानों की क्वालिटी पर किसी तरह से शक नहीं किया जा रहा। न ही इन्हें किसी तरह का अवार्ड हम देने वाले हैं। हां, हमारे भीतर का ‘झंडू’ मन इन्हें बार-बार याद करता है, ये किसी अवार्ड से कम है क्या। आप एक-एक गाना पढ़िए, बार-बार पढ़िए और देखिए आपके भीतर गुदगुदी होती है कि नहीं। यही हमारी असली ‘झंडू’ पहचान है, जिसे हम छिपाते-फिरते हैं।

तो देवियों और सज्जनों, दीपावली के मौके पर पेश है 50 झंडू गानों का धमाका.... पटाखा फोड़िए, दीये जलाइए, लड्डू खाइए, हर मौक पर इन झंडू गानों को गुनगुनाते रहिए और दीवाली को संगीतमय बना दीजिए। कमेंट करके बताइएगा ज़रूर कि इनमें झंडू बम, झंडू फुलझड़ी, झंडू रॉकेट आपको कौन-कौन से लगे...ये लिस्ट नए साल के पहले शतक पूरा करेगी, इस भरोसे के साथ...
आपका ‘झंडू’ साथी
निखिल आनंद गिरि

झंडू गानों की दुनिया में आपका स्वागत है..

1) ले पपियां झपियां पाले हम...

2) मैं लैला-लैला चिल्लाऊंगा, कुर्ता फाड़ के....

3) खा ले तिरंगा गोरिया फाड़ के, जा झाड़ के...

4) अंखियों से गोली मारे, लड़की कमाल रे..

5) जब तक रहेगा समोसे में आलू

6) बाय बाय बाय गुड नाइट, सी यू अगेन...कल फिर मिलेंगे तेरे मेरे नैन

7) तालों में नैनीताल, बाक़ी सब तलैया...

8) मैं एक लड़का पों पों पों....तू इक लड़की पोंपोंपों

9) एबीसीडीइएफ.....पीपीपी पिया...

10) गले में लाल टाई,घर में एक चारपाई, तकिया एक और हम दो...

11) ठंडी में पसीना चले,ना भूख ना प्यास लगे...डैडी से पूछूंगा..

12) पागल मुझे बना गया है सीट्टी बजाके...चक्कर कोई चला गया है सीट्टी बजाके...

13) आ आ ई, उ उ ओ...मेरा दिल ना तोड़ो

14) टनटनाटनटनटनटारा...चलती है क्या नौ से बारा...

15) तुरुरुतुरुरू, तुरूतुरू........कहां से करूं मैं प्यार शुरू...

16) मच्छी बन जाऊंगी, कबाब बन जाऊंगी, बोतलों में डाल दो शराब बन जाऊंगी

17) लड़की ये लड़की कममाल कर गई, धोती को फाड़ के रुमाल कर गई(मेरे हिसाब से lyrics थोड़ा अलग है)

18) गुटुंर, गुटुर, चढ़ गया ऊपर रे, अटरिया पे लोटन कबूतर रे...

19) मैं साइकिल से जा रही थी, वो मोटर से आ रहा था, किया टिनटिन का इशारा मुझे बदनाम किया ना...

20) मैं तुझको भगा लाया हूं तेरे घर से,तेरे बाप के डर से

21) नीले नैनों वाला तेरा लकी कबूतर...

22) तूतक तूतक तूतक तूतिया, आई लव यू....

23) तूतूतू, तूतूतारा.....फंस गया दिल बेचारा...

24) अंगना में बाबा, बाज़ार गई मां..कइसे आएं गोरी हम तोहरे घर मा..

25) इंडारू पिंडारू, तेरी चलती कमर है लट्टू, बांधूं इसपे नज़र का पट्टू..

26) ज़हर है कि प्यार है तेरा चुम्मा...

27) सारेगमपधनी...यू आर माई सजनी...

28) आआई उउओ मेरा दिल ना तोड़ो...

29) अईअईए....मंगता है क्या....गिडबोलो (रंगीला)

30) मैं तो रस्ते से जा रहा था, भेलपुरी खा रहा था, लड़की घुमा रहा था....तेरी नानी मरी तो मैं क्या करूं..

31) पटती है लड़की पटाने वाला चाहिए....

32) ओये वे मिकान्तो, तू नहीं जानतो, प्यार करना बहोत ज़रूरी है

फिल्म - हाय मेरी जान (1991)

33) अईअईया..करूं मैं क्या सुकूसुकू...दिल मेरा... हो गया सुकूसुकू...

34) मेरी छतरी के नीचे आ जा, क्यूं भीगे है कमला खड़ी खड़ी....

35) rain is falling छमाछमछम....लड़की ने आंख मारी, गिर गए हम....

36) जब भी कोई लड़की देखूं, मेरा दिल दीवाना बोले...ओलेओले ओले..

37) आंख मारके बोले हाऊ आर यू..हाथ मिलाकर बोले हाऊ डुयूडू...शहर की लड़की...

38) हम है तुमपे अटके यारा, दिल भी मारे झटके...क्योंकि तुम हो हटके...

39) दिन में लेती है, रात में लेती है...सुबह को लेती है, शाम को लेती है..अपने प्रीतम का, अपने जानम का नाम लेती है..!! (अमानत)

40) डालूंगा, डालूंगा...प्यार से मैं डालूंगा...नौलखा हार तेरे गले में डालूंगा !!(अमानत)

41) पुट ऑन द घुंघरू ऑन माई फीट एंड वाच माई ड्रामा...नाचूंगा अइ, गाऊंगा अइसे..होगा हंगामा, मैं हूं गरम धरम....कैसी शरम (तहलका)

42) शॉम शॉम शॉम शॉम शोमू शाय शाय (तहलका, अमरीश पुरी गायक!!)

43) कबूतरी बोले कबूतर से....मुझे छेड़ ना छत के ऊपर से...

44) टकटकाटक..मुझे दिल ना दिया तूने जब तक..पीछा करूंगा तब तक...टकटकाटक (कर्तव्य)

45) सूसूसू आ गया मैं क्या करूं....(तराज़ू)

46) मैं हूं रेलगाड़ी, मुझे धक्का लगा,इंजन गरम है मुझे धक्का लगा...

47) आया आया आया तूफान, भागा भागा भागा शैतान...

48) दिल की गेट की नेम प्लेट पे, लिखा है तेरा ना...धकधकधुकधुक होती है सुबह शाम...बूबा बूबा...मैं महबूबा

49) चींटी पहाड़ चली मरने के वास्ते, लड़की हुई जवान लड़के के वास्ते (हसीना मान जाएगी)

50 ) तैनू घोड़ी किन्ने चढ़ाया, भूतनी के...तैनू दूल्हा किसन बनाया भूतनी के...

Subscribe to आपबीती...

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब..

हम रोज़ाना चौंकने के लिए खरीदते हैं अखबार,
हम मुस्कुराते हैं एक-दूजे से मिलजुलकर,
पल भर को...
जैसे आदमी नहीं चुटकुले हो गए हैं सब...

सबसे निजी क्षणों को तोड़ने के लिए
हमने बनाई मीठी धुनें,
सबसे हसीन सपनों को उजाड़ दिया,
अलार्म घड़ी की कर्कश आवाज़ों ने...

जिन मुद्दों पर तुरंत लेने थे फैसले,
चाय की चुस्कियों से आगे नहीं बढ़े हम..

शोर में आंखें नहीं बन पाईं सूत्रधार,
नहीं लिखी गईं मौन की कुंठाएं,
नहीं लिखे गए पवित्र प्रेम के गीत,
इतना बतियाए, इतना बतियाए
अपनी प्रेमिकाओं से हम...

उन्हीं पीढ़ियों को देते रहे,
संसार की सबसे भद्दी गालियां,
जिनकी उपज थे हम...
जिन पीढ़ियों ने नहीं भोगा देह का सुख,
किसी कवच की मौजूदगी में...

ज़िंदगी भर की कमाई के बाद भी,
नहीं खरीद सके इतना समय,
कि जा पाते गांव...
बूढ़े होते मां-बाप के लिए,
हम नहीं बन सके पेड़ की छांव...

रात की नींद बेचकर,
हमने ढोया,
मालिकों की तरक्की का बोझ...
हम बनते रहे खच्चर...
एक पल को भी नहीं लगा,
कि हमने जिया हो इंसानों-सा जीवन....

जब तक जिए,
भीतर का रोबोट ज़िंदा रहा...
मर चुका देह की खोल में आदमी..
बहुत-बहुत साल पहले....

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 31 अक्टूबर 2010

अथ मुई लिपस्टिक कथा...

प्यार कर लिया तो क्या, प्यार है ख़ता नहीं...
(यहां क्लिक करें तो यूट्यूब पर वीडियो भी उपलब्ध है..)

प्रथम अध्याय

आईआईटी रूड़की में एक कार्यक्रम के दौरान इंजीनियरिंग के कुछ छात्रों ने अचानक अनोखी प्रतियोगिता रख दी। लड़कों को अपने होठों में लिपस्टिक दबाकर लड़कियों के होठों पर मलनी थी। लड़कों ने ऐसा किया, लड़कियों ने भी भरपूर साथ दिया...मगर लिपस्टिक मलने से मीडिया वाले लाल हो गए। उनके पास कैमरे थे तो वीडियो भी आ गया। वीडियो आया तो टीवी चैनल्स पर ख़बर चलने लगी। किसी चैनल ने कहा कि ये अनोखी प्रतियोगिता थी तो किसी ने होठों से छू लो तुम जैसे आकर्षक टाइटल के साथ तस्वीरें दिखानी जारी रखी। कुछ चैनल्स ऐसे थे जिन्हें लड़कों के लिपस्टिक लगाने से भारतीय संस्कृति को ख़तरा महसूस होने लगा। उन्हें हर दिन भारतीय संस्कृति घोर ख़तरे में नज़र आती है।

दूसरा अध्याय

उन्होंने भारतीय संस्कृति को बचाने का अभियान छेड़ दिया। एक से बढ़कर एक संत-महात्मा-मौलवियों को जुटाकर विमर्श शुरू हो गया कि भई, ये तो घोर पाप है। ये कौन-सी इंजीनियरिंग है। मतलब, ये तो सरासर शिक्षा जगत को शर्मसार कर देने वाली घटना है। इन छात्रों पर कार्रवाई अब तक क्यूं नहीं हुई। इनके मां-बाप को बुलाया जाए। उनसे पूछा जाए कि क्या संस्कार दिए अपनी औलादों को। भई, लिपस्टिक मलना इंजीनियरिंग के कोर्स का हिस्सा तो है नहीं, फिर क्यूं हुआ ये सब? इंजीनियरिंग वाले ‘बच्चे’ तो दिन-रात एक कर पढ़ाई करते हैं और तब जाकर आईआईटी में एडमिशन पाते हैं। उन्हें लड़कियों के होठों पर लिपस्टिक मलना किसने सिखा दिया। ये तो कोर्स करीकुलम के बाहर की बात है। इस पर तो संस्थान के निदेशक को सस्पेंड कर देना चाहिए। उन्हें शो कॉज़ दीजिए कि आईआईटी में लिपस्टिक आई तो आई कैसे। क्या ये सरकारी फंड का दुरुपयोग नहीं है।

तीसरा अध्याय

लिपस्टिक कांड पर देश-दुनिया के बुद्धिजीवी एक-दूसरे से मुंहलगी में व्यस्त हो गए हैं। डिबेट्स, सेमिनार आयोजित हो रहे हैं। लिपस्टिक को राष्ट्रीय आपदा घोषित किए जाने की पैरवी की जा रही है। जहां कहीं लिपस्टिक दिखाई दे रही है, माननीय बुद्धूजीवी (बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवी) लोगों से मुंह ढंककर बच निकलने की अपील कर रहे हैं। होठों से जुड़े तमाम गानों पर तत्काल प्रभाव से प्रतिबंध लगा दिया गया है ताकि युवा पीढ़ी इनके उकसावे में ना आए। महान भारतीय परंपरा का निर्वहन करते हुए सरकार ने एक जांच कमेटी गठित कर दी है जो ये पता लगाएगी कि आखिर 19-20 साल के बच्चों में लिपस्टिक लगाने का शौक कैसे पनपा। इस कमेटी में उन माननीय बुद्धूजीवियों को विशेष तौर पर शामिल किया जा रहा जो सेक्स विषयों पर डेस्क से ही बेहतरीन कार्यक्रम बनाने में सिद्धहस्त हैं। इसके अलावा महिला संगठनों को भी इस कमेटी से दूर ही रखा गया है क्योंकि उन्हें लिपस्टिक से विशेष लगाव है और सरकार को डर है कि जांच के दौरान आईआईटी के लड़के कुछ भी कर सकते हैं।

चौथा अध्याय

बिहार और झारखंड के कई ज़िलों में सरकार ने भोजपुरी गीतों पर बैन लगाना शुरू कर दिया है। सरकार की शिकायत है कि वहां के भोजपुरी गानों में होंठ लाली, लिपस्टिक, और शरीर के बाक़ी अंगों पर बहुत कुछ लिखा-सुना जा रहा है। जैसे ये गाना देखिए-

जब लगावे लू लिपस्टिक, त हिले सारा आरा डिस्टिक (डिस्ट्रिक्ट यानी ज़िला)
कमरिया करे लपालप, लॉलीपप लागे लू....

ऐसे गाने सुन-सुनकर आईआईटी के छात्रों के दिमाग में फिज़िक्स के सूत्र की जगह लिपस्टिक लगाने की उत्कंठा घर करने लगी है। माता-पिता परेशान हैं कि सदियों से चली आ रही डॉक्टरी-इंजीनियरी में भेजने की प्रथा पर रोक कैसे लगाएं। उनके बच्चों के तो डीएनए में इंजीनियरिंग की तैयारी घुसी हुई है। ऐसे में उन्होंने जाना तो इन्हीं संस्थानों में है, जहां साल के आखिर में लिपस्टिक मलकर इंजीनियर बनने का सबूत देना पड़ता है। वैसे, लिपस्टिक कांड पर मीडिया की कृपालु नज़र से कई कोचिंग संस्थानों का फायदा भी होने लगा है। कई गलियों में कोचिंग सेंटर खुलने लगे हैं। यहां आईआईटी के लिए क्रैश कोर्स में लिपस्टिक वाला पैकेज मुफ्त है। लड़की, लिपस्टिक सबकी सुविधा मुफ्त। एक दूसरे कोचिंग संस्थान ने प्रीलिमिनरी राउंड में ऐसे ही कांपटीशन से छात्रों का दाखिला लेने का फैसला किया है। मतलब, आप इंजीनियरिंग की पढाई करना चाहते हैं तो लिपस्टिक लगाना ज़रूर सीख कर आएं। लिपस्टिक इंजीनियरों की पहचान बन गया है। स्टेटस सिंबल बन गया है। अब हर लड़के के पास एक हाथ में इरोडोव की किताब और दूसरे में लिपस्टिक दिखने लगी है। आह! क्या क्रांतिकारी दृश्य है। इंजीनियरिंग का ‘लिपस्टिक काल’, इधर-उधर सब कुछ लाल।

पांचवा अध्याय

मीडिया का असर तो होता ही है। सरकारी तंत्र और मीडिया रिश्ते में मौसेरे भाई लगते हैं। एक नींद में चिल्लाता है तो दूसरा नींद में चलने लगता है। आईआईटी रुड़की में लिपस्टिक ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। संस्थान ने वहां लड़कियों के मिनी स्कर्ट पहनने पर बैन लगा दिया गया है। पहले ये काम सिर्फ फतवा जारी करने वाले मुल्ला किया करते थे। अब ग्लोबलाइज़ेशन अपना असर छोड़ रहा है। हालांकि, कॉलेज की लड़कियां खुश हैं क्योंकि अब तक सिर्फ बड़ी हस्तियों की मिनी स्कर्ट पर ही बैन लगा करता था। और उनकी शादी भी विदेश में होती थी। लड़कियों को इस बैन से संभावनाएं दिखने लगी हैं। एक अदनी सी लिपस्टिक ने उन्हें हस्ती बना दिया है। मगर, मुझे एक बात समझ नहीं आई कि लिपस्टिक होठों पर लगी तो बैन मिनी स्कर्ट पहनने पर क्यों लगा। लिपस्टिक और स्कर्ट का क्या संबंध हो सकता है। ये तो बड़े वैज्ञानिकों के शोध का विषय हो सकता है। शायद आईआईटी से ही इस पर कोई कामयाब रिसर्च निकले। फिलहाल, ये भोजपुरी गाना सुनिए जो आईआईटी वाले जमकर बजा रहे हैं – हाय रे होंठ लाली, हाय रे कजरा....जान मारे तहरो टूपीस घघरा (घघरा यानी मिनी स्कर्ट !!)...

इतिश्री...

निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

काश ! रात कल ख़त्म न होती...

सुबह-सुबह जब आंख खुली तो
एक घोंसला उजड़ चुका था....
स्मृतियों के गीले अवशेष बचे थे
तिनका-तिनका बिखर चुका था....

सूरज की अलसाई किरणें
दीवारों से जा टकराईं
पहली बार.....
मायूसी ने कमरे में पाँव पसारे
हंसी उड़ाई.....

पहली बार....
लगा कि जैसे घड़ी की सुईयां
उग आयी हैं बदन में मेरे

बिस्तर से दरवाज़े तक का सफ़र
लगा कि ख़त्म न होगा...
सुबह का पहला पहर
लगा कि ख़त्म न होगा....

रात एक ही प्लेट में दोनों
खाना खाकर, सुस्ताये थे...
देर रात तक बिना बात के
ख़ूब हँसे थे, चिल्लाये थे....
काश !! रात कल ख़त्म न होती.....

अभी किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी है...
मैंने सोचा-तुम ही होगे...

आनन-फानन में बिस्तर से नीचे उतरा
हाथ मेज से टकराए हैं...
खाली प्लेट नीचे चकनाचूर पड़ी है
दरवाज़े पर कोई दस्तक अब भी खड़ी है.....

मैं बेचैन हुआ जाता हूँ
बिस्तर से दरवाज़े तक का लम्बा रस्ता तय करता हूँ....
कोई नहीं है ...........

एक हँसी का टुकडा शायद तैर रहा है
दूर कहीं पर ....
आंखों में गीली मायूसी उभर रही है....
एक नदी मेरे कमरे में पसर रही है.....

और मैं
संवेदना का पुल बनाकर
इस नदी से बच रहा हूँ
और आंखों के समंदर से तुम्हारा
अक्स फिर से रच रहा हूँ..........

निखिल आनंद गिरि

Subscribe to आपबीती...

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

लड़के सिर्फ जंगली...

क्या ऐसा नहीं हो सकता,

कि हम रोते रहें रात भर

और चांद आंसूओं में बह जाए,

नाव हो जाए, कागज़ की...

एक सपना जिसमें गांव हो,

गांव की सबसे अकेली औरत

पीती हो बीड़ी, प्रेमिका हो जाए....

मेरे हाथ इतने लंबे हों कि,

बुझा सकूं सूरज पल भर के लिए,

और मां जिस कोने में रखती थी अचार...

वहां पहुंचे, स्वाद हो जाएं....

गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके,

महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर

जलता रहे, जल जाए समय

हम बेवकूफ घोषित हो जाएं...

एक मौसम खुले बांहों में,

और छोड़ जाए इंद्रधनुष....

दर्द के सात रंग,

नज़्म हो जाए...

लड़कियां बारिश हो जाएं...

चांद हो जाएं, गुलकंद हो जाएं,

नरम अल्फाज़ हो जाएं....

और मीठे सपने....

लड़के सिर्फ जंगली....

निखिल आनंद गिरि

Subscribe to आपबीती...

रविवार, 24 अक्टूबर 2010

शोकगीत...

तुम्हारी देह,

पोंछ सकता मेरी आस्तीन से

तो पोंछ देता...


सर्पिल-सी बांहों के स्पर्श में,

दम घुटने लगा है....

सच जैसा कुछ भी सुनने पर

बेचैन हो जाता है भीतर का आदमी....


जानता हूँ,

कि मेरी उपलब्धियों पर खुश दिखने वाला....

मेरे मुड़ते ही रच देगा नई साजिश...

मैं सब जानता हूँ कि,

आईने के उस तरफ़ का शख्स,

मेरा कभी नही हो सकता....


रात के सन्नाटे में,

कुछ बीती हुई साँसों की गर्माहट,

मुझे पिघलाने लगती है....

मेरे होठों पर एक मैली-सी छुअन,

मेरी नसों में एक बोझिल-सा उन्माद,

तैरने लगता है...


तुम, जिसे मैं दुनिया का

इकलौता सच समझता था,

उस एक पल सबसे बड़ा छल लगती हो....


मुझे सबसे घिन्न आती है,

अपने चेहरे से भी.....

धो रहा हूँ अपना चेहरा,

रिस रहे हैं मेरे गुनाह...


चेहरा सूखे तो,

बैठूं कहीं कोने में...

और लिख डालूँ,

अपनी सबसे उदास कविता....


निखिल आनंद गिरि


Subscribe to आपबीती...

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

लाशों के शहर में...

कभी-कभी लगता है
फट जाएंगी नसें...
सिकुड़ जाएगा शरीर,
खून उतर आएगा आंखों में...

हम पड़े होंगे निढ़ाल,
अपने-अपने कमरों में...
कोई नहीं आएगा रोने,
हमारे लाशों की सड़ांध पर,
अगल-बगल पड़ी होंगी
अनगिनत लाशें....

शहरों के नाम नहीं होंगे तब,
लाशों के शहर होंगे सब
फिर हम बिकेंगे महंगे दामों पर,
हम माने, हमारी लाशें...
नंगे, निढ़ाल  शरीर की
लगेंगी बोलियां...

हमारी चमड़ी से अमेरिका पहनेगा जूते..
हमारी आंखों से दुनिया देखेगा चीन...
किसी प्रयोगशाला में पड़े होंगे अंग
वैज्ञानिक की जिज्ञासा बनकर...
तुम देखना,
कितनी महंगी होगी मौत...
इस ज़िंदगी से कहीं बेहतर...
दो कौड़ी की ज़िंदगी....
तुम्हारे बिन.....

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

एक शायर मर गया है...

एक शायर मर गया है,
इस ठिठुरती रात में...
कल सुबह होगी उदास,
देखना तुम....

देखना तुम...
धुंध चारों ओर होगी,
इस जहां को देखने वाला,
सभी की...
बांझ नज़रें कर गया है....
एक शायर मर गया है....

मखमली यादों की गठरी
पास उसके...
और कुछ सपने पड़े हैं आंख मूंदे....
ज़िंदगी की रोशनाई खर्च करके,
बेसबब नज़्मों की तह में,
चंद मानी भर गया है.....
एक शायर मर गया है....

एक सूरज टूट कर बिखरा पड़ा है,
एक मौसम के लुटे हैं रंग सारे....
वक्त जिसको सुन रहा था...
गुम हुआ है...
लम्हा-लम्हा डर गया है....
एक शायर मर गया है...
इस ठिठुरती रात में....

निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

प्यारी झुकी हुई रीढ़ के नाम....

हे ईश्वर!

हम तुम्हारी दी हुई रीढ़ से परेशान हैं....

गाहे-बगाहे झुक जाती है,

या झुका दी जाती है...

गलत उम्र में....

जिस उम्र में पिता के पांव छूने थे...

और बहुत से बुद्धिजीवी मुच्छड़ों के...

दिमाग ने कहा,

रीढ़ बन जा ढ़ीठ

तो तनी रही पीठ...

जिस उम्र में पढ़नी थी किताबें...

और रटने थे उबाऊ पहाड़े....

या फिर कंठस्थ करने थे सूत्र

कि ज़हरीली गैसों के निकनेम कैसे पड़े.....

हम खड़े रहे स्कूल  की बालकनी में...

घंटों संभावनाएं तलाशते...

बांहों में बांहे पसारे....

इसी तनी रीढ़ के सहारे..

हम चले थे लेकर रौशनी की तरफ...

मां के कुछ मीठे पकवान,

और छटांक भर ईमान.....

जो शहर के लिए अनजाने थे...

अब ठीक से याद नहीं,

मगर तब भी रीढ़ तनी हुई थी...

फिर अचानक...

कुछ लोग थे जो गड़ेरिए नहीं थे...

वो शर्तिया पहली नज़र का धोखा रहा होगा..

मगर उन्हें चाहिए थे खच्चर...

कि जिनकी पीठ पर लाद सकें...

वो अपनी तरक्की का बोझ..

उन्होंने छुआ हमारी सख्त पीठ को...

और एक सफेद कागज़ पर लिए नमूने....

हमारी भोली ख्वाहिशों का....

वो ज़ोर से हंसे...

और हमने अपनी आंखे मूंद ली...

(और हमें दिखा अपने मजबूर पिताओं का चेहरा)

फिर अचानक झुक गई रीढ़...

और हम उम्र से काफी पहले...

हे ईश्वर! बूढ़े हो गए...

 
निखिल आनंद गिरि
 
Subscribe to आपबीती...

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

स्तब्ध कर देने का सुख...

आईए ज़रा-सा बदलें,
खुश होने के तरीके...

जो भी दिखे सामने,
उछाल दें उसकी टोपी
और हंसें मुंह फाड़कर
बदहवासी की हद तक...

जिसे सदियों से जानने का भरम हो,
सामने पाकर ऐंठ ले मुंह
उचकाकर कंधे, बोलें-
'हालांकि, चेहरा पहचाना-सा है
मगर दिमाग का सारा ज़ोर लगाकर भी
माफ कीजिए, याद नहीं आ रहे आप'!
स्तब्ध कर देने का सुख,
फैशन है आजकल...

पिता की अक्ल भरी बातें,
सुनते रहें लगाकर कानों में हेडफोन,
और नाश्ते के लिए रिरियाती मां को
दुत्कार दें हर सुबह,
साबित कर दें भिखारन....
आह! सुख कितना सहज है..

आईए हम हो जाएं अश्वत्थामा
नहीं, नहीं, युधिष्ठिर
और खूब फैलाएं भ्रम
कि जो मरा वो हम थे...
आह! छल का सुख
मरते रहें अश्वत्थामा, हमें क्या...

पृथ्वी से निचोड़ ली जाएं
सब प्राकृतिक संपदाएं,
पेड़, फूल, जानवर और प्यार...
सब हो जाएं निर्वस्त्र...
ममता से बांझ धरती पर,
अभी-अभी नवजात जैसे...

आह! एक पीढ़ी का वर्तमान
बोझिल, सूना, नीरस
आह! एक बांझ भविष्य का रेखाचित्र...
खुश होने को गालिब ये खयाल अच्छा है....

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

तुम नहीं हो तो हर खुशी फीकी...

प्यास इतनी कि ज़िन्दगी फीकी,
तुम नहीं हो तो हर खुशी फीकी..
एक माहताब-ए-हुस्न के आगे,
चाँद की सारी रौशनी फीकी..
चन्द अल्फ़ाज़ ने ही कर डाली,
उम्र भर की ही दोस्ती फीकी..
दर्द की सीढियाँ न खत्म हुईं,
आँसुओं की पड़ी नदी फीकी..
जिस्म रिश्ते के दरमियां आया,
लम्स की ताज़गी हुई फीकी...
शहर की रौनकें न कर डालें,
मां के आँचल की ज्योत ही फीकी....

लम्स-छुअन
निखिल आनन्द गिरि 
Subscribe to आपबीती...

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....


कौड़ियों के भाव बिका, जब से अंतःकरण,
अनगिन मुखौटे हैं, सैकड़ों हैं आवरण...
मदमस्त होकर जो झूमती हैं पीढियां,
लड़खड़ा न जाएँ कहीं सभ्यताओं के चरण...
ठिठका-सा चाँद है, गुम भी, खामोश भी,
जुगनुओं को रात ने दी है जब से शरण...
गुमशुदा-सा फिरता हूँ, अपनों के शहर में,
आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....
मौन की देहरी जब तुमने भी लाँघ दी,
टूट गए रिश्तों के सारे समीकरण...
पीड़ा के शब्द-शब्द मीत को समर्पित हों,
आंसुओं की लय में हो, गुंजित जीवन-मरण...
माँ ने तो सिखलाया जीने का ककहरा,
दुनिया से सीखे हैं, नित नए व्याकरण...

- निखिल आनंद गिरि 


Subscribe to आपबीती...

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

जिस्म की गिरहें....

कुछ लम्हे बेहद शातिर थे,
रिश्तों में दरारें कर डाली...
छीन ली नज़रों की नरमी,
मुस्कान वही पहले वाली....

मैं लाख छिपाता फिरता हूं,
इक सच का लम्हा आंखों में..
सब पढ़ लेते हैं चुपके से
इक गुस्ताखी तारीखों की...
मैं रुह समेटे लौटा था

वो आंसू का सैलाब ही था,
मैं जैसे-तैसे बच निकला,
इक सिलवट तब भी चुपके से,
मैं साथ ही लाया था....
चांद-सितारे सब चुप थे...
उन लम्हों की खामोशी में,,,

वो लम्हे चीख रहे हैं अब,
वो सिलवट तड़प रही है अब....
शातिर लम्हे, नटखट सिलवट...
रिश्तों में घुटन फैलाने लगे...

मैं बेबस आखिर क्या करता,
रोया, चीखा, चिल्लाने लगा...
मजबूरी थी, गुस्ताखी नहीं...
तुम इक ना इक दिन समझोगे,
उस लम्हे की सच्चाई को...
मैं रुह उठाकर ले आया....
पर जिस्म की गिरहें खुल न सकीं...

इस उम्र के रस्ते पर साथी,
ये जिस्म ही मील का पत्थर है...
आओ न मिटा दें सब दूरी,
है रूह की मंज़िल दूर बहुत...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

इतना नीरस होगा समय....

जब रात से निचोड़ लिए जाएंगे अंधेरे

और उगने लगेगा सूरज दोनों तरफ से..

जिन पेड़ों को तुम देखते हो रोमांस से,

उन्हें देखना सौभाग्य समझा जाएगा...

मिटा दिए जाएंगे रेगिस्तानों से पदचिह्न

और बाक़ी रहेंगे सिर्फ रुपये जैसे सरकारी निशान...

वर्जित क्षेत्रों में पूजे जाने के लिए....


इतना नीरस होगा समय कि,

दम घोंटकर कई बार मरना चाहेगी दुनिया...

समर्थ लोगों की बेबस दुनिया....

जब थोड़ी-सी प्यास और पसीना फेंटकर,

प्रयोगशालाओं में जन्म लेंगी कविताएं...

जैविक कूड़ा समझकर उड़ेल दिया जाएगा अकेलापन...

सूख चुके समुद्रों में....


लगातार युद्धों से थक चुके होंगे योद्धा...

खून का रंग उतना ही परिचित होगा,

जितनी मां....

चांद पर मिलेंगे ज़मीन के मुआवज़े

और कहीं नहीं होगा आकाश...


इतिहास ऊब चुका होगा बेईमान किस्सों से,

तब बड़े चाव से लिखी जाएंगी बेवकूफियां..

कि कैसे हम चौंके थे, बिना प्रलय के...

जब पहली बार हमने चखा था चुंबन का स्वाद...

या फिर भूख लगने पर बांट लिए थे शरीर....

 
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

चौंक तेरे इस देश की हालत क्या हो गई बापू....

गांधी जी के लिए ये निर्देश नोएडा ऑथोरिटी ने लगवाया है....अब अयोध्या से लेकर कॉमनवेल्थ तक देश में इतना कुछ घट रहा है....तो गांधी जी और कर भी क्या सकते हैं चौंकने के सिवा....फ्लाईओवर देखकर भी चौंक जाएंगे बापू....उनके ज़माने में तो इतना भी नहीं था...हैप्पी बर्थडे बापू...

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

मैं ज़िंदा हूं अभी...

मुझे टटोलिए,
हिलाइए-डुलाइए,
झकझोरिए ज़रा...
लगता है कि मैं ज़िंदा हूं अभी...

चुप्पी मौत नहीं है,
चीख नहीं है जीवन,
मैं अंधेरे में चुप हूं ज़रा,
भूला नहीं हूं उजाला...
ये शहर कुछ भी भूलने नहीं देगा...

नौ घंटे की बेबसी,
दुम हिलाने की....
फिर चेहरा उतारकर
गुज़ारते रहिए घंटे...

फोन पर मिमियाते रहिए प्रेमिका से,
उसे हर वाक्य के खत्म होते खुश होना है...
मां से बतियाने में ओढ लीजिए हंसी,
कितनी भी...
पकड़े जाएंगे दुख...

कुछ चेहरे हैं
जिनसे बरतनी है सावधानी...
कुछ नज़रें हैं..
जिन्हें पलट कर घूरना नहीं है..
दिन एक थके-मांदे आदमी की तरह है..
हांफ रहा है आपके साथ..
रात के आखिरी पहर तक...
बिस्तर पर लेटकर निहारते रहिए दीवारें..
क्या पता शून्य का आविष्कार,
इन्हीं क्षणों में हुआ हो..

26 साल की बेबस  उम्र
नींद की गोली पर टिकी है...
गटक जाइए गोली,
विश्राम लेंगे दुख...
बदलते रहिए केंचुल,
शर्त है जीने की...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 26 सितंबर 2010

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां...

आईने  ने जब से ठुकराया मुझे,
हर कोई पुतला नज़र आया मुझे...

रौशनी ने कर दिया था बदगुमां,
शाम तक सूरज ने भरमाया मुझे...

ऊबती सुबहों का सच मालूम था,
रात भर ख्वाबों ने बहलाया मुझे....

मैं बुरा था जब तलक ज़िंदा रहा,
'अच्छा था', ये कहके दफनाया मुझे...

जब शहर के शोर ने पागल किया,
एक भोला गांव याद आया मुझे....

ख्वाब टूटे, एक टुकड़ा चुभ गया,
देर तक नज़्मों ने सहलाया मुझे....

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

ये चांद ऊंघने लगे हैं..

आओ फूट कर रो लें,
ये धुंधला वक्त धो लें,
बहुत ही खुशनुमा-सी सुबह है,
ज़रा-सा ग़मज़दा हो ले

चिकोटी काट लें, छेड़ें किसी को,
बना लें दोस्त फिर से ज़िंदगी को,
किसी अनजान रस्ते पर चलें,
भटकें, गुमशुदा हो लें

बहुत हैं प्यार के शोशे,
वहीं बोरिंग छुअन-बोसे,
जुगलबंदी दो जिस्मों की,
सांसों की गिरह खोलें...

समंदर पी गए कब के,
बुझे शोले कहां लब के,
उलट दें सब नदी-दरिया,
फिर से बुलबुला हो लें...

ये दस्तक, फिर खुशी है !
इधर बस बेबसी है....
बुला लो, दो घड़ी भर
हंसे, बतियाएं, बोलें....

बहुत से रतजगे-हैं,
ये चांद ऊंघने लगे हैं....
ज़रा-सी मौत दे दो,
हम भी नींद सो लें...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 24 जनवरी 2010

फूल-सी लड़की के लिए...

वो बचपन की पहेली,
हम जिसे अब तक नहीं समझे..
तुम्हारा मुंह चिढ़ाती है,
ज़रा तुम भी चिढ़ाओ ना..
उठो, जल्दी से आओ ना...

वो एक तस्वीर अलबम की,
जिसमें मैं खड़ा आधा-अधूरा सा,
तुम्हें फुर्सत नहीं अपनी शरारत से...
तुम्हें तस्वीर का हिस्सा बनाने में,
मैं खींचता तो हूं...
मगर तस्वीर थोड़ा और पहले
खिंच ही जाती है....
मैं फिर खड़ा हूं,
सब खड़े हैं, हंसते चेहरे...
तुम कहां हो....
हथेली को बढ़ाओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

मैं कितनी देर तक हंसता रहा था...
गुलाबी फ्रॉक वाली एक लड़की
लाल घूंघट में...
शरम से लाल होकर छिप रही थी..
मुस्कुराती थी....
...............

अचानक...
कौन था...जिसने की चोरी
सांसों की गठरी..
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....
अचानक..
चार कंधों पर....
ये लंबी नींद की चादर.....
मैं कुछ क्यों कर नहीं पाया....

अभी गहरी उदासी में...
तुम्हें तो मुस्कुराना था...
अभी तो उम्र की कई सीढ़ियों के
पार जाना था...

मैं रोना चाहता हूं,
उस नए मेहमान की खातिर,
जिसे भरनी थी किलकारी
सभी की गोदियां चढ़कर...
खिलौने, दूध की बोतल
पटक कर तोड़ देनी थीं...
सुनाए कौन अब वो तोतली बोली,
दिल कैसे बहल जाए, बताओ ना...
उठो जल्दी से आओ ना...

अभी तो इक महकती
फूल-सी लड़की को
सारी रात जगकर...
मेरी आंखों में तकना था....
हंसना था, महकना था..
ज़िद तारों की करनी थी...
मेरे कंधे पे चढ़कर
चांद की ठुड्डी पकड़नी थी...
......................
मैं अब भी बंद आंखों से,
तुम्हारी राह तकता हूं...
मैं सोया हूं बहाने से....
ज़रा चुपके, सिरहाने से....
मेरा तकिया हिलाओ ना....
मैं सोया हूं, जगाओ ना...
मेरी छोटी बहन पूजा,
मेरी अच्छी बहन पूजा,
उठो जल्दी से आओ ना...
...................................

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

मुसाफिर....

जीवन तब भी रुका नही था

जब तुमको दो व्याकुल आंखें
तकती थीं दिन-रात कभी
और तुम्हारी एक हंसी पे
सदके थे जज्बात सभी….
वक़्त क़ैद था मुट्ठी में जब……


फिर हम दोनो साथ टहलते,
बिन, मतलब के इधर-उधर,
दर्द तुम्हारी फूंक से गायब,
बातें तुम्हारी, जादू-मंतर..
वक़्त क़ैद था मुट्ठी में जब

और अचानक वो लम्हा जब,
तुमको छू लेने की जिद में
मैंने अपनी मुट्ठी खोली,
हाथ बढ़ाकर तुम तक पंहुचा,
वक़्त क़ैद से निकल चुका था

फिर कुछ लम्हे तनहा-तनहा,
फिर कुछ रातें ख़त के सहारे,
गम खा-खा कर, आंसू पीकर,
फिर कुछ सदियाँ चांद किनारे
वक़्त क़ैद से निकल चुका था….

दुनिया की सड़कों पर चलकर,
सच के चहरे हर बत्ती पर,
रोज़ बदलते, मैं क्या करता,
एक सफ़र था जीवन तुम बिन,
वक़्त का सच अब बदल चुक्का था….

और मेरी दो व्याकुल आंखें
जिनमे अब भी बसी हुई है च्वी तुम्हारी,
थोड़ी-सी गीली होकर मेरे चहरे पर,
झलक तुम्हारी दे जति हैं
इसी भरोसे….
जीवन अब भी रुका नही है,

इसी भरोसे,
अभी मुसाफिर थका नही है…….

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

देखना तुम...

ये बदहवासी से ठीक पहले के क्षण हैं,

मेरी पीठ पर पटके जा रहे हैं कोड़े

कि मेरी रीढ़ टूट जाए...

वो मुझे सांप बना देना चाहते हैं,

कि मैं रेंगता रहूं उम्र भर...

उनकी बजाई बीन पर...

ये बदहवासी से ठीक पहले की घड़ी है..

मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने वाला है...

इस एक पल को जीना चाहता हूं मैं...

करना चाहता हूं सौ तरह की बातें तुमसे...

खोलना चहता हूं मौन की मोटी गठरी..

तुम कहां हो??

मैं चीख रहा हूं ज़ोर-ज़ोर से...

शायद आवाज़ कहीं पहुंचेगी...

कोड़े खाने के फायदे हैं बहुत..

ये चीख मुझे गूंगा कर देगी देखना.....

मेरे पांवों में बांध रखी हैं,

समय ने कस कर बेड़ियां...

मैं भूलने लगा हूं

अपने बूढ़े पिता का चेहरा...

ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....

मां याद है मुझे,

पसीना पोंछती मां,

बेटों की डांट खाती मां...

तुम कहां हो,

तुम्हें छूना चाहता हूं एक बार..

हाथ भूल गए हैं स्पर्श का स्वाद...

मैं पीछे मुड़कर दबोच लेना चाहता हूं कोड़ा,

मगर ऐसा कर नहीं सकता..

मैं बदहवास होने लगा हूं अब...

मुझ पर और कोड़े बरसाए जाएं..

मुझे प्यास लग रही है,

मैं चखना चाहता हूं आंसू का स्वाद..

ये बदहवासी के आंसू हैं...

रोप दिए जाएं सौ करोड़ लोगों की छाती में..

कि झुकने न पाए उनकी रीढ़

बीन बजाते संपेरों के आगे...

कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..

मैं हर सीने में हूं..

दुआ करो कि खाद-पानी मिले मेरे आंसूओ को,

याद रखना संपेरों,

मेरे आंसू उग आए

तो निर्मूल हो जाओगे तुम....

…………………………………………………………..

शुक्रवार, 7 सितंबर 2007

हिंदी को ख़ून चाहिए.....

रुधिर-की बहने दो अब धार,

स्वर गुंजित हों नभ के पार,

किए पदताल भाषा के सिपाही आए,

खोलो, खोलो तोरणद्वार......

बहुत-सा हौसला भी, होश भी, जूनून चाहिए...

हिंदी को ख़ून चाहिए...



गुलामी-की विवशता हम,

समझने अब लगे हैं कम,

तभी तो एक परदेसी ज़बां,

लहरा रही परचम,

नयी रच दे इबारत, अब वही मजमून निखिल...

हिंदी को ख़ून चाहिए....



हुई हैं साजिशें घर में,
दिखे हैं मीत लश्कर में,

पडी है आस्था घायल,

अपने ही दरो-घर में...

उठो, आगे बढ़ो, हिंद को सुकूं चाहिए....

हिंदी को ख़ून चाहिए....

निखिल आनंद गिरि
+919868062333

बुधवार, 11 जुलाई 2007

मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझे .............

ताजमहल को नये सात आश्चर्यों में शामिल कर लिया गया, बड़ा हो- हल्ला हुआ, वोट दीजिये, एस.एम.एस कीजिये वग़ैरह । और तिजारत यानी व्‍यापार के इस दौर में ताजमहल को चंद एस.एम.एस. की बिना पर सर्टिफिकेट दे दिया गया । इस सबसे अलग ताजमहल कभी उर्दू शायरी में भी चर्चा और बहस का मुद्दा था । शकील बदायूंनी ने लिखा था- इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, दुनिया को मुहब्बत की निशानी दी है । और तरक्का पसंद साहिर से रहा नहीं गया । ये उनका जवाब था । इस नज़्म का शीर्षक है—ताजमहल........चूंकि इसमें बहुत बुलंद उर्दू के अलफ़ाज़ हैं इसलिये कुछ कठिन शब्दों के मायने दिये जा रहे हैं ।



ताज तेरे लिए इक मज़हरे-उल्‍फ़त ही सही
तुझको इस वादिये रंगीं से अकीदत ही सही
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझसे

बज़्मे-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्‍या मानी
सब्‍त जिस राह पे हों सतवते शाही के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्‍या मानी
मेरे मेहबूब पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा तूने
सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली
अपने तारीक-मकानों को तो देखा होता

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्‍बत की है
कौन कहता है सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिए तशहीर का सामान नहीं
क्‍योंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे

ये इमारतो-मकाबिर, ये फ़सीलें, ये हिसार
मुतलक-उल-हुक्‍म शहंशाहों की अज़्मत के सुतूं
दामने-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अज़दाद का खूं
मेरी मेहबूब, उन्‍हें भी तो मुहब्‍‍बत होगी
जिनको सन्‍नाई ने बख्‍शी शक्‍ले-जमील
उनके प्‍यारों के मक़ाबिर रहे बेनामो-नुमूद
आज तक उन पे जलाई ना किसी ने कंदील
ये चमनज़ार, ये जमना का किनारा, ये महल
ये मुनक्‍क़श दरोदीवार, ये मेहराब, ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्‍बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरे मेहबूब कहीं और मिला कर मुझे ।।

कुछ कठिन शब्‍दों के मायने
मज़हर-ऐ-उल्‍फत—प्रेम का प्रतिरूप
वादिए-रंगीं—रंगीन घाटी
बज्मे शाही—शाही महफिल
सब्‍त—अंकित,
सतवते-शाही— शाहाना शानो शौक़त
पसे-पर्दा-ए-तशहीरे-वफ़ा—प्रेम के प्रदर्शन/विज्ञापन के पीछे
मक़ाबिर—मकबरे तारीक—अंधेरे सादिक़—सच्‍चे
तशहीर का सामान—विज्ञापन की सामग्री
हिसार—किले
मुतलक-उल-हुक्‍म—पूर्ण सत्‍ताधारी
अज़्मत—महानता
सुतूं—सुतून
दामने-देहर—संसार के दामन पर
अज़दाद—पुरखे
ख़ूं—खून
सन्‍नाई—कारीगरी
शक्‍ले-जमील—सुंदर रूप
बेनामो-नुमूद—गुमनाम
चमनज़ार—बाग़
मुनक़्क़श—नक्‍काशी

साभार : radiovani.blogspot.com

गुरुवार, 5 जुलाई 2007

तुम सिखा दो ........

दुःख हो या कि सुख सदा उत्सव मनाना, तुम सिखा दो॥
दूसरों के मर्म पर सब कुछ लुटाना, तुम सिखा दो॥
मुस्कुराना तुम सिखा दो॥

जानता हूँ, सैकड़ों बादल रखे हैं, हँसती आँखों में छिपाकर,
तृप्त हो लेती हो अपना मन, अकेले में भिगाकर
और कह देती हो मुझसे- 'सुख इसी अवसाद में है'!!
आह!! कैसा सुख कि अपना घर जलाकर,
नीड़ औरों का बसा खुद को मिटाना, तुम सिखा दो॥
मुस्कुराना तुम सिखा दो॥

मैं कहाँ रोया कि जब कोई बात गड़ती है हृदय में
कब बता पाया कि तुम ही मार्गदर्शक हर विजय में
और तुम... आकाश के निर्लिप्त पंछी की तरह ही
मौन के विस्तार को भी, बाँधती हो एक लय में
आँसुओं की लय पिरोकर, गुनगुनाना, तुम सिखा दो॥
मुस्कुराना तुम सिखा दो॥

रात का अंतिम प्रहर है, तुम निरंतर दिख रही हो
मैं तो केवल शब्द गढ़ता, तुम ही मुझको लिख रही हो
चाहता हूँ, प्रेम-रूपी इस शिला के मिटा डालूँ लेख सारे,
मिलन कैसा?? हम किसी सूखी नदी के दो किनारे!!
तुम न इस सूखी नदी पर रेत का सेतु बनाना
सब भुला दो, है उचित सब कुछ भुलाना
मुस्कुराना तुम सिखा दो...

निखिल आनंद गिरी
हिंद-युग्म पर पुरस्कृत कविता (देखें www.merekavimitra.blogspot.com)

एक अधूरा सच

जब कभी लिखी जायेगी शून्य की कथा,

सभ्यताएं मुँह बाए हमें निहारेंगीं......

क्या उत्पत्ति का सच दोगला भी हो सकता है???



निरुत्तर होगा समय,

देखकर एक समानांतर दुनिया,

एक विभाजन रेखा,

पौरुष और नारीत्व के बीच!!!



हम!!

जो खेंचते हैं लकीर,

होने और ना होने के बीच....


हम!!

जो हैं साधना, प्रीति या राधा...


हम!!

जिनका अस्तित्त्व सिर्फ आधा......



तुम!!


जो पूरा होने का गुमान भरते हो,

कभी ना सुन पाए टीस की,

तुम्हारी सारी पूर्णता समझ ना सकी,

व्यथा एक सवाली की...



हम!!

जो बन ना सके कभी;
भाई, बहन, दूल्हा या दुल्हन....

रिश्तों की देहरी लांघकर,

हमने गढी है एक नयी परिभाषा,

नए अर्थ..धर्म के जात-पात .......


मस्ती भरी बोली,
मन यायावर...

हाँ!! हम वही हैं...

जिन्हे तुम कहते हो,

छक्के, हिजडे या किन्नर!!!



तुम!! जो पौरुष का दंभ भरते हो,

झूठ की नींव पर सच कि जुगाली करते हो...


याद रखना........

एक अधूरा सच हैं हम....

पौरुष का कवच हैं हम.......



निखिल आनंद गिरि
9868062333
मैं नहीं हूँ.....

दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ...
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...

तिमिर मुझको प्रिय, कि अब तक इसी ने है संभाला,
छीनकर सर्वस्व मेरा, चांदनी क्यों सौंपती मुझको उजाला??
भूल जाये जो निशा को सूर्य पाकर मैं नहीं हूँ....
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...

मैं अगर होता बड़ा तो वश में कर लेता समय को,
छवि मेरी जो तुम्हारे मन बसी है, तोड़ता उस मिथक भय को,
जो तुम्हारे प्रेम को दे सके आदर, मैं नहीं हूँ,
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...

मैं किसी का दर्द सुनकर क्षणिक सुख भी दे ना पाऊं,
फिर तुम्हारे प्यार का पावन-कलश कैसे उठाऊं??
प्यार लौटा पाऊं, प्रिय का प्यार पाकर, मैं नहीं हूँ....
अहम का पुतला है, वो मेरे बराबर, मैं नहीं हूँ...
दीखता है जो तुम्हे ऊंचे शिखर पर, मैं नहीं हूँ......

हिंद युग्म पर प्रकाशित(देखें www.hindyugm.com)
आपके स्नेह का शुभाकांक्षी
निखिल आनंद गिरि
9868062333

गुरुवार, 31 मई 2007

या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा.......

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले!
आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ
पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से
कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.

रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’

मंगलवार, 29 मई 2007

एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन ..............

बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम अगर नही आई गीत गा न पाऊँगा
साँस साथ छोडेगी, सुर सजा न पाऊँगा
तान भावना की है शब्द-शब्द दर्पण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम बिना हथेली की हर लकीर प्यासी है
तीर पार कान्हा से दूर राधिका-सी है
रात की उदासी को आँसुओ ने झेला है
कुछ गलत ना कर बैठें मन बहुत अकेला है
औषधि चली आओ चोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है

तुम अलग हुई मुझसे साँस की ख़ताओं से
भूख की दलीलों से वक्त की सज़ाओं से
दूरियों को मालूम है दर्द कैसे सहना है
आँख लाख चाहे पर होंठ से न कहना है
कंचना कसौटी को खोट का निमंत्रण है
बाँसुरी चली आओ, होंठ का निमंत्रण है




मेरे पहले प्यार

ऒ प्रीत भरे संगीत भरे!
ओ मेरे पहले प्यार !
मुझे तू याद न आया कर

ओ शक्ति भरे अनुरक्ति भरे!
नस नस के पहले ज्वार!
मुझे तू याद न आया कर।

पावस की प्रथम फुहारों से
जिसने मुझको कुछ बोल दिये
मेरे आँसु मुस्कानो की
कीमत पर जिसने तोल दिये
जिसने अहसास दिया मुझको
मै अम्बर तक उठ सकता हूं
जिसने खुदको बाँधा लेकिन
मेरे सब बंधन खोल दिये

ओ अनजाने आकर्षण से!
ओ पावन मधुर समर्पण से!
मेरे गीतों के सार
मुझे तू याद न आया कर।

मूझे पता चला मधुरे तू भी पागल बन रोती है,
जो पीङा मेरे अंतर में तेरे दिल में भी होती है
लेकिन इन बातों से किंचिंत भी अपना धैर्य नही खोना
मेरे मन की सीपी में अब तक तेरे मन का मोती है,

ओ सहज सरल पलकों वाले!
ओ कुंचित घन अलकों वाले!
हँसते गाते स्वीकार
मुझे तू याद न आया कर।
ओ मेरे पहले प्यार
मुझे तू याद न आया कर।
......................................
.......................................



आना तुम

आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये

तन-मन की धरती पर
झर-झर-झर-झर-झरना
साँसों मे प्रश्नों का आकुल आकाश लिये

पथ में कुछ मर्यादाएँ रोकेंगी
जानी-अनजानी सौ बाधाएँ रोकेंगी
लेकिन तुम चन्दन सी, सुरभित कस्तूरी सी
पावस की रिमझिम सी, मादक मजबूरी सी
सारी बाधाएँ तज, बल खाती नदिया बन
मेरे तट आना
एक भीगा उल्लास लिये
आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये

जब तुम आऒगी तो घर आँगन नाचेगा
अनुबन्धित तन होगा लेकिन मन नाचेगा
माँ के आशीषों-सी, भाभी की बिंदिया-सी
बापू के चरणों-सी, बहना की निंदिया-सी
कोमल-कोमल, श्यामल-श्यामल,अरूणिम-अरुणिम
पायल की ध्वनियों में
गुंजित मधुमास लिये
आना तुम मेरे घर
अधरों पर हास लिये .................


मुक्तक

1.बहुत टूटा बहुत बिखरा थपेडे सह नही पाया
हवाऒं के इशारों पर मगर मै बह नही पाया
रहा है अनसुना और अनकहा ही प्यार का किस्सा
कभी तुम सुन नही पायी कभी मै कह नही पाया

2.बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन
मन हीरा बेमोल बिक गया घिस घिस रीता तन चंदन
इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज़ गज़ब की है
एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन

3.तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ
तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ
तुम्हे मै भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नही लेकिन
तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ

4.पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार करना क्या
जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार करना क्या
मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश मे है
हो गर मालूम गहराई तो दरिया पार करना क्या

5.समन्दर पीर का अन्दर है लेकिन रो नही सकता
ये आँसू प्यार का मोती है इसको खो नही सकता
मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नही पाया वो तेरा हो नही सकता


उनकी खैरों खबर नही मिलती

उनकी खैरों खबर नही मिलती
हमको ही खासकर नही मिलती

शायरी को नज़र नही मिलती
मुझको तू ही अगर नही मिलती

रूह मे, दिल में, जिस्म में, दुनिया
ढूंढता हूँ मगर नही मिलती

लोग कहते हैं रुह बिकती है
मै जहाँ हूँ उधर नही मिलती........

रचनाकार: कुमार विश्वास
जन्म: 10 फ़रवरी 1970
जन्मस्थान : पिलखुआ गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
कुछ प्रमुख कृतियाँ : एक पगली लड़की के बिन (1996), कोई दीवाना कहता है (2007)

सोमवार, 28 मई 2007

लोहे का स्वाद .......

इसे देखो
अक्षरों के बीच घिरे हुए आदमी को पढो
क्या तुमने सुना
कि यह लोहे की आवाज़ है
या मिट्टी में गिरे खून का रंग
लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो
घोङे से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है

-सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'

बच्चे तुम अपने घर जाओ........

बच्चे तुम अपने घर जाओ
घर कहीं नहीं है
तो वापस कोख में जाओ
माँ कहीं नहीं है
पिता के वीर्य मे जाओ
पिता कहीं नहीं है
तो माँ के गर्भ में जाओ
गर्भ का अंडा बंजर
तो मुन्ना झर जाओ तुम
उसकी माहवारी में
जाती है जैसे उसकी इच्छा
संडास के नीचे
वैसे तुम भी जाओ
लड़की को मुक्त करो
अब बच्चे तुम अपने घर जाओं

गगन गिल

मेरे देश की संसद मौन है....

एक आदमी रोटी बेलता है
आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी खाता है
ना रोटी बेलता है,
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मै पूंछता हू- यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है....

बहुत ही सोच समझकर दुआ सलाम करो.........

एक
वो अक्सर फूल परियों की तरह सजकर निकलती
आँखों में इक दरिया का जल भरकर निकलती है
कँटीली झाड़ियाँ उग आती हैं लोगों के चेहरों पर
ख़ुदा जाने वो कैसे भीड़ से बचकर निकलती है
बदलकर शक्ल हर सूरत उसे रावण ही मिलते हैं
कोई सीता जब लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलती है
सफ़र में तुम उसे ख़ामोश गुड़िया मत समझ लेना
ज़माने को झुकी नज़रों से वो पढ़कर निकलती है
ज़माने भर से इज़्ज़त की उसे उम्मीद क्या होगी
ख़ुद अपने घर से वो लड़की बहुत डरकर निकलती है
जो बचपन में घरों की ज़द हिरण सी लाँघ आती थी
वो घर से पूछकर हर रोज़ अब दफ़्तर निकलती है
ख़ुद जिसकी कोख़ में ईश्वर भी पलकर जन्म लेता है
वही लड़की ख़ुद अपनी कोख़ से मरकर निकलती है
छुपा लेती है सब आँचल में रंज़ो-ग़म के अफ़साने
कोई भी रंग हो मौसम का वो हँसकर निकलती है
******
दो
कहीं भी सुब्ह करो या कहीं पे शाम करो
बहुत ही सोच समझकर दुआ सलाम करो
हमारे दौर के सूरज में रोशनी ही नहीं
अब एक और भी सूरज का इंतज़ाम करो
चमन में फूल खिला दे समय पे जल बरसे
इसी मिज़ाज के मौसम का एहतराम करो
गवाह बिकते हैं डरते हैं क्या सज़ा होगी
तमाम ज़ुर्म सरेआम सरेशाम करो
******
तीन

समस्याओं का रोना है क्यों उनका हल नहीं होता
हमारे बाज़ुओं में अब तनिक भी बल नहीं होता
समय के पंक में उलझी है फिर गंगा भगीरथ की
सुना है उज्जैन की क्षिप्रा में भी अब जल नहीं होता
सहन में बोन्साई हैं, न साया है, न ख़ुश्बू है
परिंदे किस तरह आएँगे इसमें फल नहीं होता
नशे में तुम जिसे संगीत का सरगम समझते हो
शहर के शोर में वंशी नहीं, मादल नहीं होता
प्रतीक्षा में तुम्हारी हम समय पर आके तो देखो
जो ज़ज़्बा आज दिल में है वो शायद कल नहीं होता
सफ़र में हम भी तनहा हैं सफ़र में तुम भी तनहा हो
किसी भी मोड़ पर अब ख़ूबसूरत पल नहीं होता
जिसे तुम देखकर ख़ुश हो मरुस्थल की फ़िज़ाओं में
ये उजले रंग के बादल हैं इनमें जल नहीं होता
************************

जयकृष्ण राय तुषार63 जी/7, बेली कॉलोनीस्टैनली रोड, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...