सोमवार, 29 मई 2023

अचानक नदी में उतरी लड़की के लिए


वो नाराज़ हुई तो तो उठकर चली गई
किसी दूसरे कमरे में 
फिर किसी और कमरे में 
फिर एक दिन घर से बाहर चली गई
फिर एक दिन दुनिया से बाहर
कभी नहीं लौटी।

उसने अपने गुस्से की ईमानदारी बरतते हुए
अपने आसपास ऐसे लोग खड़े किए 
जो मुझे उससे दूर रख सकें
उन लोगों के चेहरे ठीक ठीक याद नहीं
मगर नीयत देखकर लगता था कि
वो अपने काम में सफल होंगे

उन्होंने कंटीली झाड़ियां उगाईं चारों तरफ
ज़हरीले सांप छोड़े मेरे पीछे
फिर खुद
बेहद बदबूदार, हिंसक और क्रूर जानवर में बदल गए
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

वो मेरे सपनों में अपने असली रूप में आए 
और उसके सपनों में मेरा रूप धरकर
उसे मेरी कमी पूरी करने का भ्रम दिया
फिर उसका भ्रम टूटा तो
उसके सपने तक डरावने हो गए

उसने कंटीली झाड़ियों को पार करने की कोशिश की
लहुलूहान हुई 
फिर उसके आसपास के लोग 
जो हिंसक, क्रूर और बदबूदार थे
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

उन्होंने उसके छलनी शरीर को चाटना शुरू कर दिया
फिर उसे भरोसा दिलाया कि इससे दर्द कम होगा
फिर खून चूसने लगे
फिर भरोसा दिलाया कि इससे सब ठीक होगा
उसने चीखना चाहा, जैसा कि उसकी रोज़ाना आदत थी
मगर अब चीख नहीं पाई

मैं गया तो उसे कंटीली झाड़ियों पर लेटा हुआ पाया
उसका खून सूख चुका था

उसे कुछ याद नहीं कि कब आंधी आई, आग उठी, तूफ़ान आया, बारिश हुई..
एक अद्भुत शांति थी उसके चेहरे पर
वह कई लोगों का ज़हर खींच कर बुद्ध की मुद्रा में थी

मैंने हल्के से आवाज़ दी तो नहीं उठी
थोड़ा तेज़ आवाज़ दी तो भी अनसुना कर दिया
मैं समझने को मजबूर हुआ कि अब वो मुझे इस तरह कभी नहीं सुनेगी।

अब हम सिर्फ मौन की भाषा में चीखते हैं
जिसे और कोई सुन नहीं सकता
हम दोनों साफ़-साफ़ सुनते हैं
और रो-रोकर मुस्कुराते हैं।

मैं उसे पलट कर देखता हूं
वो अब भी सो रही है
उसे दर्द में आराम है अब
मेरे देखने भर से ही।

मैं उसे पलट पलट कर देखता हूं
अब वो वहां नहीं लेटी है
शायद गंगा में उतरी होगी
उसे नदी का पानी बहुत पसंद था

अब मैं अपनी आंखों में हरदम एक नदी रखूंगा।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 26 मई 2023

चिट्ठी जो हरदम अधूरी पढ़ी जाएगी

क्या लिखूं?  कैसी हो? जानता हूं, कैसी हो।  अपने आसपास ज़हरीले सांपों से घिरी हुई। मुझसे दूरी रखने के तमाम उपाय जुटाकर मुझसे मिलने को बेताब। 
तुमसे मिलने की इच्छा नहीं है। तुम हमेशा मेरे पास ही रही। अलग से क्या मिलना। दूर कभी लगी नहीं। फिर क्यूं बचता रहा तुमसे।
कोई नाराज़गी नहीं। तुम्हारे भीतर जिन भले दिखने वाले तुम्हारे शुभचिंतकों ने ज़हर भरा है, मैं उनसे नफ़रत भी नहीं करना चाहता। नफरत के लिए भी रिश्ता रखना पड़ता है। 
उन्होंने तुम्हारे और मेरे रिश्ते के बीच इतनी गहरी खाई खोद दी कि हम कभी एक साथ एक दूसरे के होकर बात ही नहीं कर पाए।
वो कान लगाकर सुनते रहे, गलत अफवाहें उड़ाते रहे। तुम्हारे यक़ीन पर चोट करते रहे, जो तुम्हें मुझ पर था। है।
बहुत अफसोस है। मैं हमारी दूरी को कम नहीं कर सका। मुझे लगा कि तुम जहां हो, वो मुझसे ज़्यादा हिफाज़त से रखेंगे तुम्हे। तुम्हारा गुस्सा, हमारी लड़ाईयां, सब क़ाबू में रहेंगी वहां।
मगर मैं दूर से ये नहीं देख पाया कि तुम वहां भी मेरा इंतज़ार ही करती रही। उन तमाम नकली लोगों, दोस्तों के घटिया चक्रव्यूह से घिरी होने के बावजूद।
तुम जहां भी हो, कोई ये नहीं देख पाएगा कि हमारा तुम्हारा क्या रिश्ता था। उनकी नीच समझ से बहुत अलग, पवित्र; वर्तमान की स्याह चादर से थोड़ा धुंधला।
तुम दरअसल गईं नहीं, अपने आसपास घिरे गिद्धों को मुक्त कर दिया। वरना वो इस रिश्ते को और नोच नोच कर खाते ही रहते।
उनकी चिंता मत करना। अब मेरा और तुम्हारा संवाद इतना निजी है कि निर्लज्ज नजरें उन्हें ताड़ नहीं पाएंगी।
मुझे माफ कर देना, मैं नहीं जानता था कि तुम्हें उनसे इस तरह आज़ाद करना होगा। अपने कंधे पर रखे हुए...
उन्हें माफ कर देना, वो नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।

जहां हो, वहां खुश रहना। मुझसे लड़ने के नए रास्ते खोजने में कोई कमी मत रखना। मुझे इसकी आदत पड़ी हुई है। 

इस आदत के बिना कैसे रहूंगा, बताओ..

निखिल

सोमवार, 22 मई 2023

मालदा से लौटकर

ऊपर कमीज़ है
नीचे गमछा
पीठ पर अमेरिकन टूरिस्टर का रफ़ू किया बैग।
दृश्य में वह आदमी
खेत की मेड़ पर उसी तरह बैठा है
जैसा बीस-पच्चीस साल पहले बैठा था।
जलकुंभियां उतनी ही स्थिर।

लड़कियां हैं पसीने से लथपथ
पढ़ाई कर लौटतीं
गोद में बच्चा लिए
निर्दोष आंखे लिए।

भैंसे लड़ रहे बीच सड़क पर
आदमी शांति से प्रतीक्षा में हैं
गाड़ियों के हैंंडल थामे
उन्हें कोई जल्दी नहीं।
लड़ाईयों के ख़त्म होने की प्रार्थना में
इसी तरह रहा जा सकता है
बिनी किसी हड़बड़ी।

एक सड़क है
जो कच्ची से पक्की हुई है
बैंक खुले हैं कई
कर्ज़ लेने वाले बढ़े हैं बहुत
और हॉर्न वाली मोटर साइकिलें

एक खुला हुआ रेलवे फाटक है
जहां सदियों का इंतज़ार है
ट्रेन के गुज़र जाने का।

गीत गाते बाउल भिक्षु हैं
बिना सुने खुदरा देते भले लोग
कानों में इयरफोन हैं।

हिंदुओं से ज़्यादा मुसलमान हैं
कहीं कोई आतंक नहीं फिर भी
ये ज़मीन अगर सदियों से है
तो हमारे मुल्क के नक्शे में
सबसे ज़्यादा दिखाई क्यूं नहीं देती।

कोई मेरी सरकार को पावर वाला चश्मा दे दो
या कागज़ वाला रेल टिकट।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 19 मई 2023

बिहार का सिनेमा कैसा होना चाहिए?

बिहार की भाषाओं, (भोजपुरी/मैथिली/मगही, इत्यादि) में बिहार में ही अच्छी फिल्में बनाने का फायदा और नुक्सान |
फायदा
1. स्थानीय कलाकारों को उनकी ही मातृभाषा में, बिहार में ही काम |
2. स्थानीय भाषाओं में ज्यादा से ज्यादा साहित्य रचने की शुरुआत |
3. पहले के लिखे साहित्य पढ़े जाएंगे, जो कोई बिरले ही पढता है और उनपर फिल्मे बनेंगी |
4. आप अपनी कहानी अपनी भाषा में कहकर उसमे वो रिअलिटी डाल सकते हैं जो आप मराठी, बांगला, असमिया, मलयालम इत्यादि फिल्मों में हम लोग देखते हैं |
5. कलकारों की भाषाओं में कलाकारों के लिए रोजगार खड़ा होने लगता है |
6. कलाकारों का पलायन रुकेगा |
7. सिनेमा के साथ रंगमंच भी बढ़ेगा |
8. रंगमंच के कलाकारों के पास पूरे साल भी काम रहेगा सिनेमा के माध्यम से |
9. आपको जबरजस्ती अपनी हिंदी ठीक करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी | आप सिर्फ अपनी मातृभाषा को और बेहतर कर सकते हैं ऐसा करके आप अपनी मातृभाषा को और समृद्ध बनाते हैं | जैसे दूसरे विकसित राज्य करते हैं |
10. तकनीक से जुड़े लोग जैसे की कैमरामैन, एडिटर इत्यादि के पास भी बिहार में ही काम |
11. सिनेमा और साहित्य बढ़ता है तो पहचान को भी सम्मान मिलने लगता है | जैसे बंगाल या दक्षिण या मराठी गुजराती के साहित्य/सिनेमा से उनकी अच्छी पहचान है |
12. आप बिहार की समस्या पर लगातार फिल्म बनाकर जनता में बदलाव का सन्देश दे सकते हैं, यहां तक की किसी मुद्दे पर आंदोलन भी खड़ा कर सकते हैं l
13. आप लगातार राष्ट्रीय पुरस्कार जीत सकते हैं | जैसे बंगाल के पास १०० से ज्यादा राष्ट्रीय पुरस्कार हैं | बिहार की भाषा में, बिहार में बनी सिर्फ एक फिल्म को है | ये एक सॉफ्ट पॉवर है l
14. बिहार में रहकर कमाने से आप ज्यादा समृद्ध हो सकेंगे और मुंबई में पलायन करके फ़्रस्ट्रेट होने से बच जाएंगे | देश के १२ - १५ राज्य के कलाकारों को बम्बई में भटकने की ज़रूरत नहीं पड़ती है |
15. फिल्मों की लागत बहुत कम हो जाती है और डिजिटल युग में कमाना आसान हो जाता है |
16. बिहार में होने वाले "अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव" में बिहार का सिनेमा भी दिखने लगेगा |
17. अश्लीलता धीरे धीरे कम हो जाएगी और बिहार की पहचान अश्लीलता और भोजपुरी की हलकी पोर्न फिल्मों से नहीं बल्कि अच्छी फिल्मों से होने लगेगी |
18. आम लोगों में अपने अच्छे बदले हुए सिनेमा को देखकर असली गर्व होगा | बिहार पर गर्व करने के असली कारण तब होंगे |
19. हिंदी में काम के लिए भटकने वाले लोग, बम्बई से बिहार आने लगेगें और उनके लिए अच्छी फिल्मों का ऑप्शन रहेगा |
20. बहुत से डायरेक्टर, लेखक, मेरी तरह वालों को बंबई में नहीं रहना पड़ेगा |
21. बिहार की कहानियों को ज्यादा दर्शक मिलेंगे, जैसे सत्यजीत रे की, दक्षिण इत्यादि के फिल्मों को मिलते हैं |
22. बिहार सरकार टैक्स से करोड़ों कमाएगी |
23. टूरिज्म बढ़ेगा |
24. दूसरे धंधे जैसे की केटरिंग, ट्रैवेलिंग, होटल इंडस्ट्री, इत्यादि, इत्यादि सब बढ़ेंगे |
25. हर क्षेत्र में रोज़गार बढ़ेगा |
नुकसान
एक भी नहीं |
😃🙏🥰🌹
- नितिन |

(नितिन नीरा चंद्रा बिहार की बोली और भाषा में फिल्म बनाए जाने को लेकर प्रतिबद्ध हैं और मिथिला मखान, देसवा, जैक्सन हॉल्ट जैसी बेहतरीन फिल्में भी बना चुके हैं।)

सोमवार, 15 मई 2023

'बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ' के शोर के बीच देखिए स्त्री होने की 'दहाड़'

'दहाड़' देखने लायक वेबसीरीज़ है। तब भी जब पहला एपिसोड अंत आते-आते तक पकाऊ है। हर एपिसोड इतना लंबा  है कि आप एकाध झपकी मारकर फिर से देखने बैठ जाएं तब भी कुछ नया नहीं होता। तब भी जब इसमें लीड रोल में सोनाक्षी सिन्हा हैं, जिनकी एक्टिंग अपनी उम्र के हिसाब से मुझे कभी मेल खाती नहीं दिखी। तब भी जब पूरी कहानी में कई झोल हैं। जैसे पूरे राजस्थान में एक ही थाना इतनी बड़ी मर्डर मिस्ट्री सुलझा रहा है और राष्ट्रीय राजनीति या मीडिया में कहीं कोई चर्चा तक नहीं। तब भी जब पुलिस वाले और अपराधी का बेटा एक ही स्कूल में पढ़ते हैं और आगे जाकर इन्हीं दोनों को आपस में टकराना होता है। तब भी जब आपको लगता है कि ये कोई हरियाणवी ज़बान है लेकिन नहीं ये तो राजस्थान है।

इस तरह से लगेगा कि मैं सीरीज़ नहीं देखने के कारण ज़्यादा गिना रहा हूं। सबसे अच्छी बात जो इस सीरीज़ में है, वो है इसकी डिटेलिंग। कहानी में सिर्फ मर्डर मिस्ट्री नहीं है। कई परते हैं। जात-पात, पुलिस व्यवस्था, इंटरनेट की गिरफ्त में हम-आप, प्रेम संबंधों के बदलते रूप, 'बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ' प्रधान देश में बेटियों की स्थिति चाहे वो एक बैकवर्ड बहू हो, स्कूल जाती बच्ची हो या फिर एक दबंग पुलिस वाली। पूरी कहानी को लीड करती है पुलिस अफसर भाटी जो पिछड़े समुदाय से है। बड़ी जात वाले खाकी वर्दी में भी जात देखकर अपनी कोठी के भीतर घुसने की इजाज़त नहीं देते। बाकी पुलिस अफसर भी सिर्फ पुलिस अफसर नहीं हैं, बाप हैं, पति हैं, छोटी-छोटी कुंठाओं वाले सहकर्मी भी।

कहानी में इतने मुद्दे एक साथ हैं कि सबसे मुख्य कहानी जिसके आसपास बाकी कहानियां बुनी गई हैं, चुपचाप अपना काम करती रहती है। आप देखना चाहते हैं कि हिंदी का एक सीधा-सादा प्रोफेसर, जिसकी बीवी और एक बेटा है, कैसे अब अपना अगला शिकार किसी लड़की को बनाएगा। शुक्र है कि प्रोफेसर के साइकोपैथ होने में कोई बचपन का हादसा या फैमिली हिस्ट्री सीधे तौर पर ज़िम्मेदार नहीं ठहराए गए। बस वो बड़े इत्मीनान से हिंदी की कविताएं पढ़ता है, लड़कियां फंसाता है, हत्या की साज़िश रचता है और फिर किसी अगली हत्या के लिए तैयार होता है। 

प्रोफेसर आनंद के रोल में विजय वर्मा में कई बार मनोज वाजपेयी जैसी कसावट और इरफान ख़ान जैसी गहराई दिखती है। आजकल के अख़बार लगातार जिन सेक्सटॉर्शन, इंटरनेट ठगी, हनीट्रैप जैसी ख़बरों से लदे रहते हैं, ये सीरीज़ उन्हीं ख़बरों के पीछे का एक किरदार लेकर सामने आती है, जिसमें सादगी इतनी है कि कोई भी फिदा हो जाए और साइनाइड खाकर मर जाए। वो किसी पर रहम नहीं करता। न अपने बेटे पर, न भाई पर, न बाप पर। हिंदी साहित्य का इतना क्रूर प्रोफेसर क्या हमने अपने सिनेमा में कभी देखा है, मुझे तो याद नहीं आता।

ये सीरीज़ उन मां-बाप को भी देखनी चाहिए, जिनके घर में स्कूल जाते बड़े होते बच्चे हैं। उन मासूम बच्चों से कब, कैसे, कितनी बात की जाए, उसकी तमीज़ इसके कई किरदार सिखाते हैं। एक एपिसोड में कपीश, प्रोफेसर आनंद के लापता होने पर, इतनी मासूमियत से अपनी मां से पूछता है - 'घर के बाहर पुलिस क्यों आई है, क्या पापा खो गए हैं' कि दिल धक से हो उठता है। एक एपिसोड में थाने का इंचार्ज देवी सिंह अपने स्कूल जाते बेटे को जिस संजीदगी से मोबाइल पर अच्छा-बुरा देखने के बारे में समझाता है, वो हम सबके सीखने लायक है। एक बेटी, जो किसी काम्पटीशन में दिल्ली जाना चाहती है, मगर मां रोकती है, तो बाप बेटी का हौसला बढ़ाता है। 

'दहाड़' की सबसे अच्छी बात ये रही कि इसके सीक्वेल की कोई गुंजाइश कम ही दिखती है। मुझे सीक्वल बोर करते हैं, सोनाक्षी सिन्हा की तरह। माधुरी दीक्षित के जन्मदिन पर सोनाक्षी सिन्हा को देखकर काम चलाना बदनसीबी नहीं तो और क्या है। फिर भी, सोनाक्षी ने अपने करियर का सबसे अच्छा काम इसी सीरीज़ में किया है। शाहिद कपूर वाली सीरीज़ 'फर्ज़ी' से कम फर्ज़ी है, इसीलिए भी देखनी चाहिए।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 4 मई 2023

क्षणिकाएं


1) मुझे सुनने वाले कम रहे 
मगर अक्सर कहते हैं
जब मैं सबसे ज़्यादा चुप रहा
सबसे ज़्यादा कहने को था।

2) एक किताब पढ़ने में 
लग गए कई दिन 
और फिर भी कुछ हासिल नहीं हुआ
इस बार किसी बुज़ुर्ग से मिला हूं
दस किताबों का हासिल है 
मेरे पास।

3) रेलवे फाटक पर 
गाड़ियां अटकी हैं
साइकिल अटके हैं
पूरा गांव किसी बुज़ुर्ग की तरह
पहले निहारेगा जाने वालों को
फिर विदा करेगा

रेलगाड़ी एक बच्चे की तरह
इठलाती हुई गुज़र जाएगी


4)
कपड़े किसी और के
जूता किसी और का
घड़ी किसी और की
बस पुराना शहर मेरा है
और मैं किसी और का।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

नदी तुम धीमे बहते जाना

नदी तुम धीमे बहते जाना  मीत अकेला, बहता जाए देस बड़ा वीराना रे नदी तुम.. बिना बताए, इक दिन उसने बीच भंवर में छोड़ दिया सात जनम सांसों का रिश...

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