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बुधवार, 8 दिसंबर 2010

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे...

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....


अभी वक्त की मारामारी है,

कुछ सपनों की लाचारी है,

जगती आंखों के सपने हैं...

राशन, पानी के, कुर्सी के...

पल कहां हैं मातमपुर्सी के....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....


अभी वक्त पे काई जमी हुई,

अपनों में लड़ाई जमी हुई,

पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,

ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,

इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....


उम्र का क्या है, बढ़नी है,

चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...

घर में मां अकेली पड़नी है,

बाबूजी का क़द घटना है,

सोचूं तो कलेजा फटना है,

इक दिन टूटेगा......


उसने हद तक गद्दारी की,

हमने भी बेहद यारी की,

हंस-हंस कर पीछे वार किया,

हम हाथ थाम कर चलते रहे,

जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,

सर्वस्व समर्पण करते रहे,

तुम मोल समझ पाए ही नहीं,

ख़ामोश इबादत जारी है,

हर सांस में याद तुम्हारी है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


अभी और बदलना है ख़ुद को,

दुनिया में बने रहने के लिए,

अभी जड़ तक खोदी जानी है,

पहचान न बचने पाए कहीं,

आईना सच न दिखाए कहीं!

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....


अभी रोज़ चिता में जलना है,

सब उम्र हवाले करनी है,

चकमक बाज़ार के सेठों को,

नज़रों से टटोला जाना है,

सिक्कों में तोला जाना है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....


इक दिन नीले आकाश तले,

हम घंटों साथ बिताएंगे,

बचपन की सूनी गलियों में,

हम मीलों चलते जाएंगे,

अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..


मां की पथरायी आंखों में,

इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,

मेरे आने की आस लिए..

उस उम्र का हर पल बोलेगा....


टूटे चावल को चुनती मां,

बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,

दिन भर का सारा बोझ उठा,

सूना कमरा, सिर धुनती मां....


टूटे ऐनक की लौटेगी

रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...

मां तेरे आंचल में सिर रख,

मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,

मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....


तू चूमेगी, पुचकारेगी,

तू मुझको खूब दुलारेगी...

इस झूठी जगमग से रौशन,

उस बोझिल प्यार से भी पावन,

जन्नत होगी, आंचल होगा....

मां! कितना सुनहरा कल होगा.....


इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....

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रविवार, 5 दिसंबर 2010

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन...

दे जाता है इन शामों को सागर कौन...

चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?

भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?

उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,

कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?

संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,

होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?

रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,

कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...

सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,

मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?

मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,

ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..

जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,

‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?


निखिल आनंद गिरि
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जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...