हे ईश्वर!
हम तुम्हारी दी हुई रीढ़ से परेशान हैं....
गाहे-बगाहे झुक जाती है,
या झुका दी जाती है...
गलत उम्र में....
जिस उम्र में पिता के पांव छूने थे...
और बहुत से बुद्धिजीवी मुच्छड़ों के...
दिमाग ने कहा,
रीढ़ बन जा ढ़ीठ
तो तनी रही पीठ...
जिस उम्र में पढ़नी थी किताबें...
और रटने थे उबाऊ पहाड़े....
या फिर कंठस्थ करने थे सूत्र
कि ज़हरीली गैसों के निकनेम कैसे पड़े.....
हम खड़े रहे स्कूल की बालकनी में...
घंटों संभावनाएं तलाशते...
बांहों में बांहे पसारे....
इसी तनी रीढ़ के सहारे..
हम चले थे लेकर रौशनी की तरफ...
मां के कुछ मीठे पकवान,
और छटांक भर ईमान.....
जो शहर के लिए अनजाने थे...
अब ठीक से याद नहीं,
मगर तब भी रीढ़ तनी हुई थी...
फिर अचानक...
कुछ लोग थे जो गड़ेरिए नहीं थे...
वो शर्तिया पहली नज़र का धोखा रहा होगा..
मगर उन्हें चाहिए थे खच्चर...
कि जिनकी पीठ पर लाद सकें...
वो अपनी तरक्की का बोझ..
उन्होंने छुआ हमारी सख्त पीठ को...
और एक सफेद कागज़ पर लिए नमूने....
हमारी भोली ख्वाहिशों का....
वो ज़ोर से हंसे...
और हमने अपनी आंखे मूंद ली...
(और हमें दिखा अपने मजबूर पिताओं का चेहरा)
फिर अचानक झुक गई रीढ़...
और हम उम्र से काफी पहले...
हे ईश्वर! बूढ़े हो गए...
निखिल आनंद गिरि
Subscribe to आपबीती...
हम तुम्हारी दी हुई रीढ़ से परेशान हैं....
गाहे-बगाहे झुक जाती है,
या झुका दी जाती है...
गलत उम्र में....
जिस उम्र में पिता के पांव छूने थे...
और बहुत से बुद्धिजीवी मुच्छड़ों के...
दिमाग ने कहा,
रीढ़ बन जा ढ़ीठ
तो तनी रही पीठ...
जिस उम्र में पढ़नी थी किताबें...
और रटने थे उबाऊ पहाड़े....
या फिर कंठस्थ करने थे सूत्र
कि ज़हरीली गैसों के निकनेम कैसे पड़े.....
हम खड़े रहे स्कूल की बालकनी में...
घंटों संभावनाएं तलाशते...
बांहों में बांहे पसारे....
इसी तनी रीढ़ के सहारे..
हम चले थे लेकर रौशनी की तरफ...
मां के कुछ मीठे पकवान,
और छटांक भर ईमान.....
जो शहर के लिए अनजाने थे...
अब ठीक से याद नहीं,
मगर तब भी रीढ़ तनी हुई थी...
फिर अचानक...
कुछ लोग थे जो गड़ेरिए नहीं थे...
वो शर्तिया पहली नज़र का धोखा रहा होगा..
मगर उन्हें चाहिए थे खच्चर...
कि जिनकी पीठ पर लाद सकें...
वो अपनी तरक्की का बोझ..
उन्होंने छुआ हमारी सख्त पीठ को...
और एक सफेद कागज़ पर लिए नमूने....
हमारी भोली ख्वाहिशों का....
वो ज़ोर से हंसे...
और हमने अपनी आंखे मूंद ली...
(और हमें दिखा अपने मजबूर पिताओं का चेहरा)
फिर अचानक झुक गई रीढ़...
और हम उम्र से काफी पहले...
हे ईश्वर! बूढ़े हो गए...
निखिल आनंद गिरि
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विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें।
जवाब देंहटाएंBeautiful as always.
जवाब देंहटाएंIt is pleasure reading your poems.
सर आप हमेशा अच्छा लिखते हो
जवाब देंहटाएंआपकी हर रचना कमाल की होती है और उसमें सच्चाई होती है
अपना भी स्कूली जीवन ऐसा ही था।।
शुक्रिया अखिलेंद्र.....संजय जी आपको भी धन्यवाद....ब्लॉग पर आते रहें,,,
जवाब देंहटाएंbehtareen, uljhi hui nazm
जवाब देंहटाएंab
kuch karara sa keh dein nikhil ji