एक थे प्रभाष जोशी और एक है प्रभाष परंपरा न्यास। इन्हीं के सौजन्य से
राजघाट के पास गांधी स्मृति परिसर में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की याद में
सालाना आयोजन होता है। इस बार भी हुआ। कार्यक्रम के लिए निमंत्रण भेजने वाले सज्जन
ने आखिर में ये भी लिख दिया था कि डिनर की भी व्यवस्था है। उन्हें डर रहा होगा कि आजकल
बिना खाने-पीने के कौन गांधी टाइप सीधे-सादे कार्यक्रमों में जाता है। प्रभाष जोशी
एक बड़े पत्रकार थे। उनके नाम पर हर तरह के लोगों को जुटते देखना अच्छा लगता है।
नामवर सिंह से लेकर राजनाथ सिंह तक। सोचता हूं कितने पत्रकार ऐसे बचे हैं, जिनके
जाने के बाद बाघ-बकरी जैसे लोग एक ही सभा में इकट्ठा होने को समय निकाल पायेंगे।
डेढ़ घंटे की देरी से कार्यक्रम इसीलिए शुरु हुआ कि राजनाथ सिंह नहीं
पहुंचे थे। गांधी के ‘सत्याग्रह मंडप’ में हर आदमी गांधी से बड़ा लग रहा था। सब सलाम-दुआ में ही व्यस्त थे।
एक-दूसरे को बड़ा बनाने में। कुर्सी पर
बिठाने में। जान-पहचान निकालने-बढ़ाने में। ज़िंदगी भर मीडिया के भीतर-बाहर की
बुराइयों पर लिखते रहने वाले प्रभाष जी की सभा में मंच पर सबसे आगे इंडिया टीवी का
भी माइक था जहां एक एंकर को ‘बड़े लोगों के पास जाने’ को इतनी बार उकसाया गया कि उसे आत्महत्या की कोशिश करनी पड़ी।
सभा में डिनर के अलावा सबसे असरदार रहा वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीज का
संबोधन। उनके बारे में अब तक सिर्फ किताबों में पढ़ा था। हिंदी के पत्रकारों और
तमाम वक्ताओं को उनसे सीखना चाहिए कि समय-सीमा में बोलना भी कला होती है। साढ़े
चार पन्नों का लिखा हुआ भाषण जिसमें एक शब्द भी फालतू का नहीं। ‘कह के लेने’ वाला अंदाज़। तीस
मिनट में ही तीन सौ सालों के मीडिया के बदलते माहौल पर सब कुछ कह डाला। आरुषि से
लेकर वैदिक तक। प्रेस कमीशन की ज़रूरत से लेकर रेडियो की हालत तक। हिंदी वाले तो
भाषण कंबोडिया पर बात शुरू करते हुए कंब ऋषि तक पहुंच जाते हैं। राजनाथ सिंह को तो
छोड़िए, पता नहीं नामवर सिंह को इस कार्यक्रम में क्यूं बुलाया गया था जब उन्हें
सिर्फ तुलसीदास की चौपाई सुनाकर ही बात ख़त्म करनी थी। इससे बढ़िया तो रामबहादुर
राय ही अपनी बात थोडा विस्तार से रखते।
कई बार सोचता हूं कि देश भर में जो सभाएं, गोष्ठियां, सेमिनार वगैरह
होते हैं उसमें काम की कितनी बातें निकलकर आ पाती होंगी। काम की बातें आ भी जाती
हों तो कितने लोग अमल करते हैं। जिनके लिए बातें होती हैं, उनमें से कितने लोगों
तक ये पहुंच पाती हैं। जो लोग जुटते हैं, उसमें कितने लोगों का मकसद सचमुच सभा में
शामिल होना होता है। कहना मुश्किल है।
क्या ऐसी सभाएं बड़े स्तर पर नहीं हो सकतीं जिसमें सिर्फ छोटे लोग आए
हों। क्या प्रभाष जोशी की पहचान सिर्फ बड़े नेताओं या लोगों से ही थी। आम लोगों के
बीच रहकर उन्होंने जो रिपोर्टिंग की, उन्हें बुलाकर मंच पर सबसे आगे क्यों नहीं
बिठाया जाता। उन्हें ख़ास तौर पर डिनर के लिए क्यों नहीं निमंत्रण भेजा जाता।
तरह-तरह के पत्रकार इस कार्यक्रम में मौजूद थे। ख़बरों की दलाली के
नाम पर नौ हजार चूहे खाकर शायद हज करने पहुंचे थे। इन जैसे ‘नकली चेलों’ से ये पूछा जाना चाहिए
कि अपने-अपने चैनल का कौन सा स्पेशल शो ड्रॉप करके इस कार्यक्रम की रिपोर्ट दिखाई
गई। कितने मिनट दिखाई गई। सिर्फ माइक ही दिखाने को रखा था या कैमरे के साथ जोड़ा भी था। इस
कार्यक्रम की बातें सुनकर कितने लोगों ने अपने चैनल में अनाप-शनाप चलाना बंद कर
दिया। नहीं किया तो इन सभाओं में जुटकर क्या मिल जाता है।
सबसे बुरा होता है परंपरा के नाम पर किसी की याद को ढोते रहना। जैसे
अध्यक्ष के तौर पर कोई बूढ़ा आदमी ढोया जाता है। जैसे ख़बरों के नाम पर अफवाहें और
दुनिया भर का कूड़ा ढोया जाता है।
निखिल आनंद गिरि