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सोमवार, 23 जनवरी 2023

उदास मौसम का प्रेमगीत

ये सच है कि मेरे सपनों में 
जादू वाली परियां आती थीं बचपन में
मगर उनका चेहरा ग़ायब हो जाता था भोर से पहले
तुम्हारा होना किसी भोर के सपने का सच होना लगता है

तुम्हारा होना
संसार की सबसे सुंदर घड़ी का कलाई पर होना है
जिसमें बुरे से बुरा समय भी निखर कर आता है

तुम्हारा होना
किसी गुरुद्वारे में प्रवेश के पहले
पानी में पैर रखने जितना पवित्र
जहां से जीवन एक गुरुद्वारा लगता है

जैसे दिल्ली कोई बेहद निर्मम, भावहीन शहर नहीं
यह अथाह शोर की राजधानी नहीं
किसी संगत में बजती बानी में 
बदल जाता है
जहां घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर लौटना
सपनों का मर जाना नहीं लगता।

तुम्हारा होना मुझे इस क़दर मज़बूत करता है
जैसे मैं कोई दरवेश हो जाता हूं
और किसी आखिरी सांस ले रहे निर्जीव शरीर में भी 
जीवन फूंक देने के विश्वास से भर जाता हूं

मौन सबसे सुंदर भाषा हो जाती है
जब मैं होता हूं तुम्हारे साथ  
जब मेरे रुखे चेहरे को स्पर्श करते हैं 
तुम्हारी कटी-छिली उंगलियों वाले हाथ
यह देह का स्पर्श नहीं
आत्मा का मिलन लगता है

तुम्हारी बाहें दो पंख हैं
तुम्हारी पीठ पर किसी शिशु-सा कस कर बंधा मैं
पैदल चलते हुए हम अचानक
कितनी दूर निकल जाते हैं ब्रह्मांड में
 
अब मेरी दीवारों में कोई सीलन नहीं
मेरी दोस्तों से कोई अनबन नहीं
मेरे मोज़ों में कोई बदबू नहीं
मेरे पहियों में कोई पंक्चर नहीं
मेरे पिता को कोई बीमारी नहीं
इस दुनिया में कोई युद्ध नहीं

तुम्हारे साथ होना अपनी जड़ों में होने जैसा है
जहां कमियां कोई घाव नहीं लगतीं चरित्र का
हम पैसे खोने पर दुखी नहीं होते
हम रास्ता भटकने पर डरते नहीं
दुख कोई छिपाने जैसी मजबूरी नहीं लगती

जहां मैं एक ही वक्त में 
बेटा, भाई, पति, पिता,
मुजरिम, शराबी, फ़कीर
यानी जैसा चाहूं वैसे का वैसा 
हो सकता हूं

जहां मैं जब चाहूं अपनी मातृभाषा में 
देर तक रो सकता हूं 

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

मांएं डरने के लिए जीती हैं..

हमारा बचपन ऐसा नहीं कि
गाया जा सके उदास रातों में...
हमारे नसीब में नहीं थे सितारे,
जिन्हें तोड़कर टांक सकें स्याह रातों में
उम्र बढ़नी थी, कोई रास्ता नहीं था....
वरना उस एक मोड़ पर रोक लेते खुद को,
कि जहां से ज़िंदगी सबसे उबाऊ और मजबूर रास्ते लेती है..

पूछो अपनी मांओं से,
पूछो पिताओं से....
कि जब कोई रास्ता नहीं रहा होगा....
तो मजबूरी में करनी पड़ी होगी शादी...
और फिर शाकाहारी पत्नियां मांजती रही होंगी बर्तन,
और परोसती रही होंगी मांस अपने पतियों को...

और फिर बेटे हुए होंगे,
बंटी होंगी मिलावटी मिठाईयां..
और बेटियां होने पर सास ने बकी होगी गालियां...
पत्नियां खून का घूंट पीकर रह जाती होंगी...
और पति चश्मा इधर-उधर करते हुए...
पतिव्रता पत्नियां फ़रेब के किस्सों से ज़्यादा कुछ भी नहीं...

बड़े होते बेटों से रहती होगी उम्मीद,
कि उनकी एक हुंकार से सिहर उठेगी दुनिया,
जबकि असल में वो इतना डरपोक थे कि
कूकर की सीटी से भी लगता रहा डर,
कहीं फट न पड़े टाइम बम की तरह...
दीवार पर छिपकली आने भर से..
मूत देते थे सुकुमार लाडले...

और समझिए ऐसे दोगले समय में,
गूंथी हुई चोटियां हथेली में लेकर,
कैसे किया होगा हमने प्यार...
और समझो कितनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी होगी,
ये कहने के लिए, बिन पिए...
कि तुम्हारी नंगी पीठ पर एक बार फिराकर उंगलियां....
लिखना चाहता हूं अपना नाम

हालांकि एक मर्द है मेरे भीतर,                                                            
जो कर सकता है हर किसी से नफरत..
गुस्से में मां को भी माफ नहीं करता
हालांकि ये भी सच है कि...
मांएं डरने के लिए ही जीती हैं,
पहले मजबूर पिताओं से,
फिर मर्द होते बेटों से..

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक मेंप्रकाशित)

सोमवार, 25 मार्च 2013

घर में पधारो 'योयो' जी..

हनी सिंह का रैपर अंश
हिमाचल-पंजाब से लेकर बिहार-झारखंड तक के शादी समारोहों में दो चीज़ें ज़रूर होती हैं। एक तो वीडियो कैमरा और दूसरा डीजे। कैमरे का स्तर तो बहुत ज़्यादा नहीं बदला मगर डीजे का ज़रूर बदल गया है। शहनाई की धुन वाले समारोह मैंने देखे नहीं। 'आज मेरे यार की शादी है', 'बाबुल की दुआएं लेती जा'' का दौर अब पूरी तरह बीत चुका है। 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' फिल्म में शारदा सिन्हा का गाया गीत 'तार बिजली से पतले हमारे पिया' भी नया तो है, मगर नए ज़माने का नहीं है। नए ज़माने में तो बस हनी सिंह हैं। हनी सिंह को जानना हो तो गूगल नहीं दिल्ली की गलियों में घूमना चाहिेए।

द्वारका क्षेत्र का बहुत पुराना गांव है ककरौला। जाट इतिहास से जुड़ी कई नामी हस्तियां इस इलाके से रहीं। एक स्थानीय जाट लेखक के बुलावे पर उनके भतीजे की शादी में शिरकत करने का मौका मिला। ऊपर से नीचे तक सफेद कमीज़ और पैंट में छोटे-बड़े तमाम लोग कमाल के लग रहे थे। औरतें साड़ियों में थीं और बच्चे रंग-बिरंगे परिधानों में। शादी के लिए तैयार किए गए शामियाने के ठीक बीच में हुक्के की महफिल लगी हुई थी। खाने में तंदूरी रोटी के साथ गांव का शुद्ध देसी घी भी एक बर्तन में रखा हुआ था।  इन सबके बीच कैमरे और डीजे का इंतज़ाम भी था। गाने वही जो बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश की शादी वाले डीजे में बज रहे थे। कुछ फिल्मी आइटम गीत और बहुत कुछ हनी सिंह। मैंने अपने लेखक 'अंकल' से कहा, बाक़ी सब तो ठीक है, मगर ये डीजे ककरौला गांव के देसी घी की तरह असली नहीं है। मुझे तो ठेठ जाट अंदाज़ वाली शादी देखने का मन था। उन्होंने कहा, 'गांव के लोग हैं, इन्हें असली-नकली की इतनी समझ नहीं, शहर में जो लोकप्रिय है, गांव तक आ ही जाता है।'

इसके कुछ दिन बाद ही दिल्ली के कई कॉलेजों में चल रहे फेस्ट में जाने का मौक़ा मिला। हर जगह ककरौला मेरे साथ ही रहा। सफेद लिबास और देसी घी वाला ककरौला नहीं, डीजे वाला ककरौला। हनी सिंह के गानों पर झूमता ककरौला। हनी सिंह हर कार्यक्रम में खु़द नहीं आए तो उनकी टीम के रैपर (मुख्य गवैये) पधारे और माहौल हनीमय कर दिया। समस्तीपुर और रांची की शादियों में भी कुछ गाने हनी सिंह के थे। हनी सिंह के बारे में मेरी जानकारी इतनी ही है जितनी मनमोहन सिंह के रसोइये के बारे में। मगर मेरी जानकारी के स्तर से हनी सिंह का क़द मत मापिए। हनी सिंह को समझना हो तो दिल्ली के कॉलेजों में हो रहे रंगारंग कार्यक्रमों की रिकॉर्डिंग कहीं से देखिए। हनी सिंह के गीत मंच पर शुरू होते नहीं कि होंठ से होंठ मिलाकर नौजवान उन गीतों पर झूमते-थिरकने लगते। ऐसा कंठस्थ वातावरण मैंने सिर्फ आरती के वक्त मंदिरों में ही साक्षात देखा है।

हनी सिंह दिल्ली-पंजाब की डीजे जेनरेशन के ख़ुदा यूं ही नहीं लगते। 'श्री श्री' की तरह हनी सिंह भी अपने नाम के साथ 'यो यो' लिखते हैं। गूगल पर लाख ढूंढने के बावजूद कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिला कि 'यो यो' विशेषण लगाने से आदमी के नाम में कितने चांद लग जाते हैं। ख़ैर, यो यो की कुछ और ख़ासियतें भी हैं। एक तो ये कि एकदम नई पीढ़ी के बच्चों के नाम अब चीकू, मीकू, पीकू से योयो, जोजो, भोंभों होते जा रहे हैं। दूसरा, शाइरी अपने टूटे-फूटे रूप में भी ज़िंदा बची हुई है। 'बरसात का मौसम है, बरसात न होगी..तू नहीं आएगी तो क्या रात न  होगी' जैसे शेरों पर योयो के भक्त जब 'वंस मोर' का जयकारा लगाते हैं तो लगता है उनके चेहरे से पसीना नहीं, गंगा मैली होकर बह रही हो।

भद्दे गीतों पर झूमते योयो के दीवानों में सिर्फ लड़के ही नहीं, लड़कियां भी हैं। आप उन्हें बुरा-भला कह सकते हैं, मगर वो अपना बुरा-भला ख़ुद सोच-समझ सकने वाली पीढ़ी है। उन्हें पता है कि दिल्ली में कॉलेज के भीतर किस लेक्चरर का कितना लेक्चर सुनना है और किसका कितना संगीत सुनना है। योयो के माध्यम से वो अपनी ज़िंदगी जीने का तरीका चुन रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है। अब तो किसी योयो को ही किसी यूनिवर्सिटी का वाइस चांसलर बना देना चाहिए। कम से कम किसी कॉलेज का प्रिंसिपल तो ज़रूर ही। प्रोफेसर, डॉक्टर जैसे विशेषण से अब बुद्धिजीवी ऊबने लगे हैं। उनकी किताबी बातें आजकल किसी के पल्ले भी नहीं पड़तीं। तभी तो वो अपने बच्चों का दिल बहलाने के लिए लाखों का फंड खर्च करके योयो को न्योता भेजते हैं।  कॉलेज में क्लास के भीतर बहुत कम बच्चे होते हैं। योयो को सुनने पूरा कॉलेज आता है। योयो ही इस वक्त की मांग है।

लेकिन ऐसा क्यों हुआ है? हनी सिंह के गाए कुछ गीतों के शब्द और आशय पढ़ने के बाद दिल दहल जाता है। स्त्रियों के खिलाफ शायद इससे घिनौने लहजे में कुछ और नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद एक बड़ा तबका हनी सिंह को सुनकर क्यों दीवाना होता है? क्या वही गीत वह अपने घर की महिलाओं के बारे में सुनकर उसी भाव में झूमेगा? वहां उसकी 'मर्दानगी' कैसे रिएक्ट करेगी? एलीट स्कूल-कॉलेजों से निकली युवतियों को ये समझना क्यों मुश्किल हो रहा है कि हनी सिंह के गाये कुछ गीत  उन्हें किस अंधे कुएं में धकेल कर छोड़ रहे हैं। क्या हमारी पढ़ाई-लिखाई की ज़मीन इतनी खोखली है कि यह अपने ही सम्मान,गरिमा और अस्तित्व को अपमानित करने के कारकों को हमें पहचानने नहीं देती?

निखिल आनंद गिरि
(सभी तस्वीरें सस्ते मोबाइल से खींची गई हैं..)
(25 मार्च 2013 को 'जनसत्ता' अख़बार में प्रकाशित)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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