रविवार, 5 दिसंबर 2010

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन...

दे जाता है इन शामों को सागर कौन...

चुपके से आया आंखों से बाहर कौन?

भूख न होती, प्यास न लगती इंसा को

रोज़ दलाली करने जाता दफ्तर कौन?

उम्र निकल गई कुछ कहने की कसक लिए,

कर देती है जाने मुझ पर जंतर कौन?

संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,

होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?

रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,

कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...

सब कहते हैं, अच्छा लगता है लेकिन,

मुझको पहचाने है मुझसे बेहतर कौन?

मां रहती है मीलों मुझसे दूर मगर,

ख्वाबों में बहलाए आकर अक्सर कौन..

जीवन का इक रटा-रटाया रस्ता है,

‘निखिल’ जुनूं न हो तो सोचे हटकर कौन?


निखिल आनंद गिरि
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6 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा हा मजा आ गया।आप तो बहुत खूब लिखते हो

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  2. amazing...!!
    kya tareef karni aapki...aap hanskar kahoge..."yeah rright, i know" ;)

    par sacchi, ghazal kammmaaal ki hai, kya punches hain, too good

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  3. संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,

    होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?

    रिश्तों के सब पेंच सुलझ गए उलझन में,

    कौन निहारे सिलवट, झाड़े बिस्तर कौन...
    बिलकुल सच कहा। लेकिन लीक से हट कर सोचे कौन विचारणीय प्रश्न। शुभकामनायें।

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  4. बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

    आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें

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  5. संसद में फिर गाली-कुर्सी खूब चली,

    होड़ सभी में, है नालायक बढ़कर कौन?

    ha ha ha. maza aa geya

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