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बुधवार, 31 जुलाई 2024

रिंगटोन

एक सस्ता फोन मां के पास है
जो चाह कर भी नहीं टूटता
पिता के पास भी है फोन
वह ख़ुद भी टैंपर्ड ग्लास की तरह
टूटने से बचाते हुए हमें
हमारी सुरक्षा के भ्रम में हैं।

एक लैंडलाइन अब तक है 
हमारे यहां जो कुछ दिन में
इतिहास बन जाएगी।

जितने लोग हैं दुनिया में
उनसे कहीं ज़्यादा हैं फोन
ग़लत नंबर वालों के कॉल सबसे ज़्यादा
कर्ज़ वालों के भी
थाई मसाज कराने के लिए भी 
कर लेता है कोई अजनबी संवाद।
कोई वोट मांगने के लिए भी
कर लेता है झूठमूठ याद। 

जो असल में याद आते हैं
बहुत प्रतीक्षा करने पर भी 
नहीं आता उनका कोई फोन कॉल

विज्ञान तुम आगे बढ़ो इतना कि
जीवन-मृत्यु के दो संसारों में 
बंट गए अभिन्न लोग
एक बार कॉल कर सकें एक-दूसरे को
या किसी रिंगटोन के सहारे ही
खोल दो उनकी अनंत नींद

कविता में याद करने की अपनी सीमाएं हैं।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 मई 2024

मरने की फुरसत

गो कि यही चलन है मेरी दुनिया का
जीते जी भुला दिए जाते हैं लोग
अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो

ख़ैर बताओ बातें अपनी दुनिया की
कुछ तो अलग दिखाई देता होगा सब
क्या वहां भी पैदल चलना पड़ता है
चलते चलते चप्पल टूट भी जाती है
क्या वहां भी मुझसा कोई हाथों में
टूटी चप्पल लेकर मीलों चलता है

क्या वहां भी छोटी मोटी अनबन पर
साथी यूं ही रूठ जाया करते हैं
या फिर जैसे तुम्हें थी जल्दी जाने की
वहां भी ऐसे हाथ छुड़ाया करते हैं
फिर सालों तक आंसू वाली रातों में
सपने बनकर आया जाया करते हैं?

वहां किताबें तो होंगी ना पढ़ने को
जिसमें कोई फूल की पत्ती रहती हो?
बाग बगीचे घुघू पाखी की चीचीं 
और नदी भी कोई धीमे बहती हो?
यहां नदी में उतरी थीं तो पार गईं 
वहां नदी से आने की ज़िद करती हो?

मेरा क्या है मैं तो जैसा तैसा हूं
तुम्हें ही ज़्यादा सर्दी गर्मी लगती थी
मीठी वाली गोली तुम्हें खिलाने को
मन बहलाने को रखनी ही पड़ती है
वहां की दुनिया में भी क्या बीमारी से
अच्छे भलों की दुनिया रोज़ उजड़ती है?

अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो
इस दुनिया से उस दुनिया की दूरी का
कोई भी अंदाज़ा मुझको मिल जाता
तो मैं बच्चों के साथ कुछ ना कुछ करके
तुमसे मिलने ट्रेन पकड़ के आ जाता

ठीक से रहना, तुम्हें ठीक की आदत थी
मैं तो जैसे तैसे ठीक ही रहता था
तुमको जाने की जल्दी थी चली गईं
वक्त के आगे किसकी लेकिन चलती है
यहां तुम्हारी उम्र भी मुझको जीनी है
मरने की फुरसत ही नहीं निकलती है।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 24 अप्रैल 2024

जाना

तुम गईं..

जैसे रेलवे के सफर में

बिछड़ जाते हैं कुछ लोग

कभी न मिलने के लिए

 

जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो

जैसे नए परिंदों से घोंसले

जैसे लोग जाते रहे

अपने-अपने समय में

अपनी-अपनी माटी से

और कहलाते रहे रिफ्यूजी

 

जैसे चला जाता है समय

दीवार पर अटकी घड़ी से

जैसे चली जाती है हंसी

बेटियों की विदाई के बाद 

पिता के चेहरे से


तुम गईं

जैसे होली के रोज़ दादी

नए साल के रोज़ बाबा

जैसे कोई अपना छोड़ जाता है

अपनी जगह 

आंखों में आंसू


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

दुख का रुमाल

इस सर्दी में कंबल ज़रा-सा सरका
तो सुन्न पड़ गया अंगूठा
हवा के साथ सुर्र से घुस आई
तुम्हारी याद दुख बनकर
कोई सुख ओढ़ाने नहीं आया।

लू वाली गर्मियों में
हाथ वाले पंखे की खड़-खड़ बन
बारिश के मौसम में
चप्पलों की छप छप बन
ऐसे ही आती रहेगी याद।

टिफिन में मीठे अचार का टुकड़ा बनकर भी 
याद आ सकती है
या अजनबी दिल्ली में पहली बार
ग़लत बस में चढ़ने की डांट बनकर

तुम्हारा जाना बड़ा दुख है
इससे बड़ा दुख है
तिल-तिल याद का आना

ज़िंदगी एक दुख भरे गाने की तरह है
जिसके रियाज़ में आते हैं आंसू
आ जाती है तुम्हारी याद भी
आंसू पोंछते हुए रुमाल की तरह

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 22 जून 2023

कैसे कटेगा जीवन, बोलो?

कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

तुम ही से अभिमान था सारा
आंखों का सम्मान था सारा
सारा गौरव चूर कर दिया
तुमने जब से दूर कर दिया
बिना बात के कर ली अनबन, बोलो
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

दुनिया में मारा-मारा फिरता रहता हूं
बिल्कुल तन्हा, आवारा फिरता रहता हूं
किसकी खातिर, मेरे मीता?
मुझे हराया तो क्या जीता?
मुझे मान बैठी हो दुश्मन, बोलो?
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

ठीक से देखो, मैं वो एक परिंदा हूं
पंख कटे हैं दोनों, लेकिन ज़िंदा हूं
घर जैसे मीलों तक कोई मरघट है, वीराना है
और मुझे घुट घुट कर प्यासा ही मर जाना है
कब आओगी लेकर मेरा सावन,बोलो
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

एक गोद में नानक, एक में लोई है
अभी जगी थी, रोते रोते सोई है
मां की बातें, इन्हें कहानी लगता है
मेरा सोना-जगना सब बेमानी लगता है
कैसे जुटाऊं जीवन गाड़ी का ईंधन, बोलो
कैसे काटूं इतना लंबा जीवन, बोलो?

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 1 जून 2023

घर पर कोई नहीं है

आप उससे मिलने आए हैं
अभी वो घर पर नहीं है
रात भी नहीं थी
ना बाएं करवट थी, ना दाएं करवट

वो मुस्कुरा कर मिलती थी स्वागत में
पर नहीं है..

वो सबसे अच्छी चाय पिलाती थी
मगर फिलहाल यह संभव नहीं है

मैं भी घर पर नहीं था
तभी वह बाहर निकली
किसी ज़रूरी काम से निकली होगी

आप तो जानते ही हैं 
वो कैसे निपुणता से सब काम करती थी
पढ़ती और पढ़ाती थी
सुंदर खाना खिलाती थी
मुझसे लंबी बहस करती थी
और मुझे भय होता था कि कहीं बाहर न चली जाए

उसे शायद एक लंबी यात्रा पर जाना था
उसने अपने लिए चार कंधे तैयार किए
फूल धूप गंध आंसू विलाप सब रास्ते में साथी रहे
उसने लकड़ियों को अपने वज़न के अनुपात में जुटाया
फिर गांव कस्बे शहर के व्यस्त जाम में निर्बाध बढ़ती रही आगे
सब उसे जानते थे तो रास्ता देते गए
उसे जहां पहुंचना था उसका समय तय था

वो तय समय पर पहुंची और धुआं हो गई
वह बादलों से देखती है
घर पर निगाह रखती है।
मेरा जन्मदिन ज़रूर याद रखती है।

मेरी पत्नी अब घर पर नहीं रहती

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 29 मई 2023

अचानक नदी में उतरी लड़की के लिए


वो नाराज़ हुई तो तो उठकर चली गई
किसी दूसरे कमरे में 
फिर किसी और कमरे में 
फिर एक दिन घर से बाहर चली गई
फिर एक दिन दुनिया से बाहर
कभी नहीं लौटी।

उसने अपने गुस्से की ईमानदारी बरतते हुए
अपने आसपास ऐसे लोग खड़े किए 
जो मुझे उससे दूर रख सकें
उन लोगों के चेहरे ठीक ठीक याद नहीं
मगर नीयत देखकर लगता था कि
वो अपने काम में सफल होंगे

उन्होंने कंटीली झाड़ियां उगाईं चारों तरफ
ज़हरीले सांप छोड़े मेरे पीछे
फिर खुद
बेहद बदबूदार, हिंसक और क्रूर जानवर में बदल गए
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

वो मेरे सपनों में अपने असली रूप में आए 
और उसके सपनों में मेरा रूप धरकर
उसे मेरी कमी पूरी करने का भ्रम दिया
फिर उसका भ्रम टूटा तो
उसके सपने तक डरावने हो गए

उसने कंटीली झाड़ियों को पार करने की कोशिश की
लहुलूहान हुई 
फिर उसके आसपास के लोग 
जो हिंसक, क्रूर और बदबूदार थे
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

उन्होंने उसके छलनी शरीर को चाटना शुरू कर दिया
फिर उसे भरोसा दिलाया कि इससे दर्द कम होगा
फिर खून चूसने लगे
फिर भरोसा दिलाया कि इससे सब ठीक होगा
उसने चीखना चाहा, जैसा कि उसकी रोज़ाना आदत थी
मगर अब चीख नहीं पाई

मैं गया तो उसे कंटीली झाड़ियों पर लेटा हुआ पाया
उसका खून सूख चुका था

उसे कुछ याद नहीं कि कब आंधी आई, आग उठी, तूफ़ान आया, बारिश हुई..
एक अद्भुत शांति थी उसके चेहरे पर
वह कई लोगों का ज़हर खींच कर बुद्ध की मुद्रा में थी

मैंने हल्के से आवाज़ दी तो नहीं उठी
थोड़ा तेज़ आवाज़ दी तो भी अनसुना कर दिया
मैं समझने को मजबूर हुआ कि अब वो मुझे इस तरह कभी नहीं सुनेगी।

अब हम सिर्फ मौन की भाषा में चीखते हैं
जिसे और कोई सुन नहीं सकता
हम दोनों साफ़-साफ़ सुनते हैं
और रो-रोकर मुस्कुराते हैं।

मैं उसे पलट कर देखता हूं
वो अब भी सो रही है
उसे दर्द में आराम है अब
मेरे देखने भर से ही।

मैं उसे पलट पलट कर देखता हूं
अब वो वहां नहीं लेटी है
शायद गंगा में उतरी होगी
उसे नदी का पानी बहुत पसंद था

अब मैं अपनी आंखों में हरदम एक नदी रखूंगा।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 23 जनवरी 2023

उदास मौसम का प्रेमगीत

ये सच है कि मेरे सपनों में 
जादू वाली परियां आती थीं बचपन में
मगर उनका चेहरा ग़ायब हो जाता था भोर से पहले
तुम्हारा होना किसी भोर के सपने का सच होना लगता है

तुम्हारा होना
संसार की सबसे सुंदर घड़ी का कलाई पर होना है
जिसमें बुरे से बुरा समय भी निखर कर आता है

तुम्हारा होना
किसी गुरुद्वारे में प्रवेश के पहले
पानी में पैर रखने जितना पवित्र
जहां से जीवन एक गुरुद्वारा लगता है

जैसे दिल्ली कोई बेहद निर्मम, भावहीन शहर नहीं
यह अथाह शोर की राजधानी नहीं
किसी संगत में बजती बानी में 
बदल जाता है
जहां घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर लौटना
सपनों का मर जाना नहीं लगता।

तुम्हारा होना मुझे इस क़दर मज़बूत करता है
जैसे मैं कोई दरवेश हो जाता हूं
और किसी आखिरी सांस ले रहे निर्जीव शरीर में भी 
जीवन फूंक देने के विश्वास से भर जाता हूं

मौन सबसे सुंदर भाषा हो जाती है
जब मैं होता हूं तुम्हारे साथ  
जब मेरे रुखे चेहरे को स्पर्श करते हैं 
तुम्हारी कटी-छिली उंगलियों वाले हाथ
यह देह का स्पर्श नहीं
आत्मा का मिलन लगता है

तुम्हारी बाहें दो पंख हैं
तुम्हारी पीठ पर किसी शिशु-सा कस कर बंधा मैं
पैदल चलते हुए हम अचानक
कितनी दूर निकल जाते हैं ब्रह्मांड में
 
अब मेरी दीवारों में कोई सीलन नहीं
मेरी दोस्तों से कोई अनबन नहीं
मेरे मोज़ों में कोई बदबू नहीं
मेरे पहियों में कोई पंक्चर नहीं
मेरे पिता को कोई बीमारी नहीं
इस दुनिया में कोई युद्ध नहीं

तुम्हारे साथ होना अपनी जड़ों में होने जैसा है
जहां कमियां कोई घाव नहीं लगतीं चरित्र का
हम पैसे खोने पर दुखी नहीं होते
हम रास्ता भटकने पर डरते नहीं
दुख कोई छिपाने जैसी मजबूरी नहीं लगती

जहां मैं एक ही वक्त में 
बेटा, भाई, पति, पिता,
मुजरिम, शराबी, फ़कीर
यानी जैसा चाहूं वैसे का वैसा 
हो सकता हूं

जहां मैं जब चाहूं अपनी मातृभाषा में 
देर तक रो सकता हूं 

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 27 मई 2022

बेटी का स्कूल

कल स्कूल खुलेंगे कई दिन बाद 
क़ैद से निकलेंगी बच्चियाँ
नए पुराने दोस्तों से मिलेंगी

फरहाना के साथ लंच शेयर करेगी 
जेनिस के साथ खूब बातें करेगी
रवनीत बनेगी बेंच पार्टनर

फरहाना बताएगी वॉटर पार्क के क़िस्से
छपछप करती है वो अक्सर जाकर

जेनिस बताएगी कैसे मुर्गे की आवाज़ निकालकर
खिड़की के बाहर आता है रोज़ 
गुब्बारे वाला

रवनीत बताएगी 
गुरुद्वारे जाकर दुखभंजनी साहब गाती है वो 
हर बुधवार

मेरी बच्ची भी बताएगी 
नई जगहों के बार में 
जहाँ मम्मी ले जाती है उसे, 

बताएगी कोर्ट गयी थी घूमने 
पिछले मंगलवार
कोर्ट एक मस्त जगह है
जहाँ मम्मी-पापा बिल्कुल नहीं लड़ते
सिर्फ़ प्यार करते हैं मुझसे। 

बताएगी फरहाना को
वॉटरपार्क से बुरा नहीं है थाने जाना
पुलिस वाले अंकल देते हैं खूब सारी टौफियाँ
और पापा से काफी देर बातें करते हैं। 

जेनिस को बताएगी
घर पर आती रहती है पुलिस
जैसे उसके यहाँ आता है गुब्बारे वाला। 

अगली बार आई पुलिस तो वो रवनीत से सीखकर 
गाएगी दुखभंजनी साहेब

और रोएगी बिल्कुल नहीं।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 14 मई 2022

पति-पत्नी

पति-पत्नी अलग रहने की अर्ज़ी लिए एक साथ कोर्ट जाते हैं। 
पति लंबी लाइन में आधार कार्ड लिए खड़ा हो जाता है। 
पत्नी फुर्र से बच्ची को दिखाकर घुस जाती है भीतर। 

श्वेत श्याम झगड़ों का अदभुत रेला है कोर्ट
चालाकियों की दुर्गंध हर तरफ़
सब अपने युद्ध के मैदान में जैसे। 

अब वो पति-पत्नी नहीं हैं
अपने वकीलों के पास ज़ुबान गिरवी रख गूँगे दुश्मन सिर्फ
सामने हैं जज
बीच में है बच्ची। 

कभी माँ को देखती है कि लौटेगी यहाँ से तो फेवरेट मैगी बनायेगी
फिर देखती है पिता को
और चुपके माँ के बैग से निकालकर देती है पानी की बोतल
धीरे से कहती है कान में-
"पी लीजिए, सीधा ऑफिस जाना है आपको"

माँ लगाती है तीन चांटे बड़बड़ाते हुए-
'बड़ा प्यार दिखा रही है यहाँ पर'
और खींचकर हाथ चल देती है।


शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

रिश्तों का सच

अपने बहुत क़रीबी, बहुत सुंदर रिश्तों में जब हम अपने साथ छोटी- छोटी,  ग़ैर ज़रूरी बातों में चालाकियां होते देखते हैं तो मन सहम जाता है क्योंकि मन भलीभांति जानता है कि अब कुछ भी सामान्य नहीं हो पायेगा ....

 मन  रिश्ते पर दुनियावी हिसाबों की सेंध लगाए जाने का अभ्यस्त है ... मन दोबारा छले जाने से ख़ौफ़जदा नहीं है.... मन को डर इस बात का है अब भरोसा कैसे करेगा किसी पर....  छले जाने का ये भयावह अनुभव किसी सच्चे इंसान का भरोसा भी नहीं करने देगा जल्दी .... 

मन अपने अनमनपन का ये ठौर भी दरकते देखता है....बेचैनी से...

आप चीखना चाहते हैं --" मत करो ऐसे...  खेलो मत यार...  मत ख़राब करो उसे जो बहुत सुन्दर है..और सुन्दरतम होने की असीम संभावनाए लिए हुए है ...कुछ हासिल नहीं होगा.. दोनों ही टूटेंगे ..जड़ से उखड़ने पर दोबारा पनपने की गुंजाइश हर बार नहीं होती न!!
उनको मालूम है आप नए धोखे अफ़ोर्ड नहीं कर सकते!

  "मुझे खोकर तुम एक ऐसा साथी खो दोगे जो तुम्हारे बारे में तुमसे ज़्यादा सोचता है  ...मैं तो टूटूंगा ही ..तुम भी साबुत कहां रह जाओगे ..."

पर आप ख़ामोशी से उस व्यक्ति को दूर होते हुए देखते हैं बस ... 

आप रिश्ते में दरिया हुए जाते हैं पर सामने वाले की सारी क़वायद आपसे किसी भी तरह एक कतरा हासिल करने की होती हैं  ...

रिश्ता ख़त्म हो जाता है ...आप अपने टुकड़े समेटने की कोशिश करते हैं  ... पर आपने अपने जिन भावों को उस प्यारे रिश्ते के इर्द-गिर्द सहेज दिया था वो भाव आपसे सवाल करते हैं---
'अब'?

और इस सवाल का कोई जवाब आपके पास नहीं होता....

(फेसबुक पर भूमिका पांडे की पोस्ट से साभार) 


मंगलवार, 11 मई 2021

गिरते हुए

कोई जगह थी बहुत बंजर या निर्वात 
जहाँ गिरा मैं
एक भरा पूरा जीवन लिए मनुष्य 
अकस्मात्

मैं जिस ऊंचाई से गिरा
टूटा
टूटने की आवाज़ गिरने से पहले खत्म हुई
रोना भी गिरने गिरने तक सूख चुका

अंतिम सांस से पहले
पृथ्वी भर का दुःख
तुम्हारी नरम हथेलियों ने थाम लिया
मेरी चुप्पियों की भाषा पढ़ी तुमने
और मैं एक नयी भाषा में रोया
चीखा, चिल्लाया
तुम्हारे क़रीब आया

तुम्हारा एक स्पर्श
समर्पण से भरा हुआ
मेरा जीवन- छलनी, आहत
फिर से हरा हुआ

मेरा सारा वजूद
तुम्हारे सीने में दुबका दिया है मैंने
तुम उसे महफूज़ रखना

फिर-फिर आऊंगा 
और शिखर लांघकर 
और अधिक ऊंचाइयों से 
और भयावह अंधेरी अकेली रातों में
थर थर काँपता हुआ
तुम्हें पुकारता 
हाँफ़ता हुआ ..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 8 जून 2014

दुनिया की आंखो से उसने सच देखा

दरवाज़े पर आया, आकर चला गया
सांसे मेरी सभी चुराकर चला गया.
मेरा मुंसिफ भी कैसा दरियादिल था,
सज़ा सुनाई, सज़ा सुनाकर चला गया.
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा,
मुझ पे सौ इल्ज़ाम लगाकर चला गया.
अच्छे दिन आएंगे तो बुझ जाएगी,
बस्ती सारी यूं सुलगाकर चला गया.
उम्मीदों की लहरों पर वो आया था,
बची-खुची उम्मीद बहाकर चला गया.
ये मौसम भी पिछले मौसम जैसा था,
दर्द को थोड़ा और बढ़ाकर चला गया.

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

उदासी का गीत

नदी जब सूख जाती है अचानक
उदास हो जाते हैं कई मौसम..
मछलियां भूल जाती है इतराना..
नावें भूल जाती हैं लड़कपन..
पनिहारिनें भूल जाती हैं ठिठोली..
मिट्टी में दब जाते हैं मीठे गीत...
गगरी भूल जाती है भरने का स्वाद..

सूरज परछाईं भूलता है अपनी,
पंछी भूल जाते हैं विस्तार अपना..
किनारे भुला दिए जाते हैं अचानक...
लाचार बांध पर दूर तक चीखता है मौन..
कुछ भी लौटता नहीं दिखता..
नदी के जाने के बाद..

कहीं कोई ख़बर नहीं बनती,
नदी के सूख जाने के बाद..

निखिल आनंद गिरि 

बुधवार, 11 सितंबर 2013

करवट..

वो सभी रिश्ते समाज से,
बेदख़ल कर दिए जाएं,
जिनमें रत्ती भर भी ईमानदारी हो.
उस भीड़ को दफ्न कर दिया जाए
जिसके पास मीठी तालियां हों बस..

तेज़ आंच में झुलसा दी जाएं,
वो तमाम बातें..
जो कही गईं
चांद के नाम पर,
प्यार की मजबूरी में,
नरम हों, ठंडी हों..

वो आंखें नोच ली जाएं,
जिन्हें देखकर लगता हो..
कि ख़ुदा है..
अब भी कहीं..

उस ज़िंदगी से मौत बेहतर,
जिसे ठोकरें तक नसीब नहीं..
एक करवट बदलनेे के लिए..

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 सितंबर 2011

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया...

खुशबू के नाम पर हुए सौदे बहार में
छुपना पड़ा गुलों को भी दामाने-ख़ार में

बरसों के बाद टूटा वो तारा फ़लक से रात,
फिर से हुआ सुकून बहुत, इंतज़ार में...

ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया
कुछ तो कमी ही थी मां के दुलार में...

एक रोज़ ख़ाक होंगे सभी जीत के सामान
रखा नहीं है कुछ भी यहां जीत-हार में...

वहशी हुए तो घर में ही करने लगे शिकार
जंगल से ही उसूल भी लेते उधार में..

सब रहनुमाओं ने किए अपने पते भी एक
मिलना हो आपको तो पहुंचिए तिहाड़ में...

जिस फूल की तलब में गुज़री तमाम उम्र
वो फूल ही आया मेरे हिस्से, मज़ार में...

निखिल आनंद गिरि

 

शनिवार, 17 सितंबर 2011

मुझे बार-बार ठुकराया जाना है...

चांद को आज होना था अनुपस्थित 
मगर वो उगा, आकाश में...

जैसे मुझे धोनी थी एड़ियां,
साफ करने थे घुटने, रगड़ कर...
तुमसे मिलने से पहले,
मगर हम मिले यूं ही....

हमारे गांव नहीं आने थे, उस रात
शहर की बातचीत में
मगर आए...

तुम्हारी हंसी में छिप जाने थे सब दुख,
मगर मैं नीयत देखने में व्यस्त था..

हमारी उम्र बढ़ जानी थी दस साल,
मगर लगा हम फिसल गए..
अपने-अपने बचपन में...
जहां मेरे पास किताबें हैं
और गुज़ार देने को तमाम उम्र
तुम्हारे पास जीने को है उम्र..
जिसमें मुझे बार-बार ठुकराया जाना है..
सांस-दर-सांस

हमें बटोरने थे अपने-अपने मौन
और खुश होकर विदा होना था...

मुझे सौंपनी थी आखिरी बरसात
तुम्हारे कंधों पर,
मगर तुम्हारे पास अपने मौसम थे...

मुझे तुमसे कोई और बात कहनी थी,
और मैं अचानक कहने लगा-
कि ये शहर डरावना है बहुत
क्योंकि रात को यहां कुत्ते रोते हैं
और मंदिरों के पीछे भी लोग पेशाब करते हैं..
इसीलिए रिश्तों से बू आती है यहां...

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

आखिरी यात्रा से पहले...

वो डिब्बों के साथ चलते हैं कुछ दूर तक,
कुछ शब्द और...
विदा से पहले..
कुछ प्यार और...
मुट्ठी भर किरणें सूरज की...

आंखों में अथाह अनुराग,
और लौटने की उम्मीद...
हाथ हाथ छूटने से ठीक पहले...
पलक भीगने से ठीक पहले,
गाड़ियों के शोर से ठीक पहले....

थोड़ी सी दही, थोड़ा-सा गुड़,
और थोड़ा-सा झुकना घुटनों तक,
बहुत-सा आशीष....

जो गए,
उस न लौटनेवाली दिशा में..
क्या पता आ भी जाएं एक बार...

भरोसा है बल खाती गाड़ियों पर,
वही लौटाएंगी एक दिन...
सारे बिछोह, सारे परिचित..
सारे प्रेम...
और बहुत-से सूरज...
आखिरी यात्रा से पहले....

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

नन्हें नानक के लिए डायरी

जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...