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शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

चालीस की सड़क

दुनिया अब बाज़ार में बदल गई है
दोस्त अब आत्महत्याओं में बदल गए हैं
मंच अब मंडियों में बदल गए हैं
कविताएं अब पंक्तियों में बदल गई हैं

तुम्हारी याद एक बच्चे की नींद में बदल गई है
मेरा रोना अब लोरियों में बदल रहा है।
इस वक्त जो मैं खड़ा हूं
चालीस की तरफ जाती एक सड़क पर
जिसका नाम जीवन है
और जो एक पीड़ा में बदल गया है - 

मैं बदलना चाहता था एक प्रेमी में
एक अकेले कुंठाग्रस्त कवि में बदलता जा रहा हूं

दुनिया बदल जाती केले के छिलके में 
तो कितना अच्छा होता
फिसल जाते हम सब।

दुनिया एक प्लेस्कूल में बदल गई है
जहां मेरे दो बच्चे पढ़ते हैं
चहचहाते हैं, नई भाषाएं सीखते हैं
दुनिया का नक्शा काटते हैं।
और मैं उनके लौटने का इंतज़ार 
करता हूं सड़क के उस पार

मैं एक भिक्षुक में बदलना चाहता था
जिसके कटोरे में मीठी स्मृतियां होतीं 
मगर मैं एक चौकीदार में 
बदलता जा रहा हूं
सावधान की मुद्रा में खड़े
उम्र के बुझते हुए लैंप पोस्ट के नीचे

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 22 मई 2021

इच्छाओं का कोरस

मेरी भोली इच्छा थी कि अच्छा बनूं 
मगर यह अंतिम इच्छा की तरह नहीं था
और भी इच्छाएँ चलती रहीं साथ-साथ

समोसे की इच्छा सतत बनी रही 
मगर चटनी या आलू के बिना उन्हें पूरा करना असंभव था.
दारू पीने की इच्छा जितनी रही
उसका एक अंश भी नहीं पिया मैंने अब तक

राजा बनने से अधिक 
उसकी आँखों में आँखें डालकर
बात करने की इच्छा प्रबल रही

अमरीका या यूरोप न सही,
किसी ऐसे देश में जाने की इच्छा
अवश्य रही
जहाँ लोग हॉर्न की आवाज़ तक से चौंक जाते हैं
मगर उनका बुरा नसीब उन्हें युद्ध के टैंक की आवाज़ों से भर देता है

उन बच्चों से मिलने की इच्छा
जिनका बचपन माँ-बाप की लड़ाइयों में नष्ट हुआ
या सिर्फ अस्पतालों में बीत गया
रोने से अधिक
उन्हें चुप कराने की इच्छा

अनंत फिल्में देखी इच्छाओं से परे
तब भी मारधार की इच्छा नहीं
प्यार करने की इच्छा पर ही मन ठहरा
अनंत बार प्यार किया उन लड़कियों से
जिनसे नहीं मिला
मिलने की संभावना भी नहीं

जिनसे मिला जीवन में
कभी अभाव में
या समाज के दबाव में
उनसे क्या अपेक्षा रखता
किसी बैंक खाते की तरह 
बना रहा रिश्ते में
भविष्य में काम आने का भ्रम लिए

रात की इच्छाएं एक गहरे सुरंग में ले जाती हैं
जहाँ मैं नींद को चकमा देता हुआ प्रवेश करता हूँ
उम्र और बेचैनी के हिसाब से
और फिर न निकलने की इच्छा 
सुबह से पहले दम तोड़ देती है

इच्छाओं में दिल्ली आना कभी नहीं रहा
गाँव में जीवन गुज़ारना एक इच्छा थी
मगर अब गाँव गाँव नहीं रहे
और जीवन भी जीवन कहाँ रहा.

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

तीन जोड़ी आँखें

एक पतंग थी
तीन दिशाएं थीं..
तीन दिशाओं में उड़ गईं तीन पतंगे थीं...

एक सपना था

तीन सपने थे
तीन सपनों के बराबर एक सपना था....

एक मौन था
एक रात थी
तीन युगों के बराबर एक रात थी

एक ख़ालीपन भर गया रात में
फिर मौन तिगुना हो गया
अंधेरे भर गए तीन गुना काले

एक रिश्ता खो गया उस रात में
ढूंढ रही हैं तीन जोड़ी आंखें...
एक-दूसरे से टकरा जाएंगी एक दिन अंधेरे में।

निखिल  आनंद गिरि



बुधवार, 1 जुलाई 2015

सीढ़ियां

सीढियां कहीं नहीं जाती
कोई कंपन,  कोई धड़कन
नहीं उनकी शिराओं में
वो चुपचाप सुनती हैं
धम्म से चढ़ते हैं पैर उनकी छाती पर
और चले जाते हैं रास्ता बनाते।
सीढियां रास्ता नहीं हैं
इसीलिए टूटने लगी हैं।
जो सीढ़ियों की छाती पर चढ़ते हैं
उनसे सविनय निवेदन है
सीढ़ियों को कुछ रोज़ के लिए अकेला छोड़ दें।
उन्हें टूटने का डर नहीं
दुख है फिर से जोड़े जाने का

जोड़ा जाना सहानुभूति नहीं है

स्वार्थ है छातियां रौंदने का।
निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...