रविवार, 13 नवंबर 2016
आएंगे..आ ही गए अच्छे दिन!
बुधवार, 21 सितंबर 2016
अच्छे दिनों की गज़ल
अच्छे दिन में मरने का आराम है, अच्छा है।
निखिल आनंद गिरि
गुरुवार, 12 मई 2016
कोई भी मर्ज़ हो, सबकी दवा बस इक मुहब्बत है
हुनरमंदों की आखों का इशारा बोलता है
मैं होली खेलकर ज़िंदा तो लौटूंगा ना अम्मा?
हमारे मुल्क का सहमा-सा बच्चा बोलता है
निखिल आनंद गिरि
शुक्रवार, 1 जनवरी 2016
वो एक साल था, जाने कहां गयां यारो
बड़ा बवाल था, जाने कहां गया यारों।
हरेक लम्हे को जीते रहे तबीयत से
भरम का जाल था, जाने कहां गया यारों।
चलो ये साल, नयी बारिशों से लबलब हो
बहुत अकाल था, जाने कहां गया यारों।
बिछड़ के खुश हुआ कि और भी उदास हुआ
बड़ा सवाल था, जाने कहां गया यारों।
जो जा रहा है, कभी लौट के भी आ जाता
यही मलाल था, जाने कहां गया यारों।
नए निज़ाम में सब कुछ नया-नया होगा
हसीं ख़याल था, जाने कहां गया यारों
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 17 नवंबर 2015
तेरी तलाश में क्या क्या नहीं मिला है मुझे
अब अंधेरों में भी चलने का हौसला है मुझे
तेरी तलाश में क्या क्या नहीं मिला है मुझे
अभी तो सांस ही उसने गिरफ्त में ली है,
अभी तो बंदगी की हद से गुज़रना है मुझे
मेरा तो साया ही पहचानता नहीं मुझको,
कहूं ये कैसे कि ग़ैरों से ही गिला है मुझे
मैं एक ख़्वाब-से रिश्ते का क़त्ल कर बैठा
अब अपनी लाश ढो रहा हूं, ये सज़ा है मुझे
किसी ने छीन लिया जब से मेरा सूरज भी
मैं उसके नाम से रौशन रहूं दुआ है मुझे
मेरे यक़ीन से कह दो, ज़रा-सा सब्र करे,
ये रात बुझने ही वाली है, लग रहा है मुझे
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 17 जून 2014
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनेस के खिलाफ
बहुत पुराने मित्र हैं मनु बेतख़ल्लुस..फेसबुक पर उनकी ये ग़जल पढ़ी तो मन हुआ अपने ब्लॉग पर पोस्ट की जाए.आप भी दाद दीजिए.
अपने पुरखों के, कभी अपने ही वारिस के ख़िलाफ़
ये तो क्लीयर हो कि आखिर तुम हो किस-किस के ख़िलाफ़
इस हवा को कौन उकसाता है, जिस-तिस के ख़िलाफ़
फिर तेरा वो दैट आया है, मेरे दिस के ख़िलाफ़
मैंने कुछ देखा नहीं है, जानता हूँ सब मगर
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनस के ख़िलाफ़
जब भी दिखलाते हैं वो, तस्वीर जलते मुल्क की
दीये-चूल्हे तक निकल आते हैं, माचिस के ख़िलाफ़
उस चमन में बेगुनाह होगी, मगर इस बाग़ में
हो चुके हैं दर्ज़ कितने केस, नर्गिस के ख़िलाफ़
कोई ऐसा दिन भी हो, जब इक अकेला आदमी
कर सके जारी कोई फरमान, मज़लिस के ख़िलाफ़
कितने दिन परहेज़ रखें, तौबा किस-किस से करें
दिलनशीं हर चीज़ ठहरी, अपनी फिटनस के ख़िलाफ़
हर जगह चलती है उसकी, आप गलती से कभी
दाल अपनी मत गला देना, कहीं उसके ख़िलाफ़
मनु बेतखल्लुस
रविवार, 8 जून 2014
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा
दरवाज़े पर आया, आकर चला गया
सांसे मेरी सभी चुराकर चला गया.
मेरा मुंसिफ भी कैसा दरियादिल था,
सज़ा सुनाई, सज़ा सुनाकर चला गया.
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा,
मुझ पे सौ इल्ज़ाम लगाकर चला गया.
अच्छे दिन आएंगे तो बुझ जाएगी,
बस्ती सारी यूं सुलगाकर चला गया.
उम्मीदों की लहरों पर वो आया था,
बची-खुची उम्मीद बहाकर चला गया.
ये मौसम भी पिछले मौसम जैसा था,
दर्द को थोड़ा और बढ़ाकर चला गया.
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 23 मार्च 2014
कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..
कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..
गोलियां सीने पे खाने का ज़माना लद गया,
गोलियां खाने-खिलाने का मज़ा आई-पिल में है..
झोंपड़ी में रात काटें, बेघरों के रहनुमा,
कोठियां जिनकी मनाली या कि पाली हिल में है..
एक ही झंडे तले 'अकबर' की सेना, 'राम' की,
रंगे शेरों का तमाशा, अब तो मुस्तकबिल में है.
वक्त आया है मगर हम क्या बताएं आसमां,
कौन सुनता है हमारी, क्या हमारे दिल है..
गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014
दुनिया अब रात-रात लगती है..
आपको दाल-भात लगती है।
हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे,
अब तो बीती-सी बात लगती है।
एक ही रात लुट गया सब कुछ,,
दुनिया अब रात-रात लगती है।
आप कहते हैं डेमोक्रेसी है,
हमको चमचों की जात लगती है।
निखिल आनंद गिरि
बुधवार, 1 जनवरी 2014
खस्ताहाल मुबारक हो..
बत्ती लाल मुबारक हो..
फेंकू-पप्पू के दंगल में,
केजरीवाल मुबारक हो..
आसाराम मुबारक हो,
तेजपाल मुबारक हो..
यूपी तुझको सालों साल,
खस्ताहाल मुबारक हो..
प्रजातंत्र की थाली में..
काली दाल मुबारक हो..
दिल की जलती बस्ती को,
और पुआल मुबारक हो..
हो ना हो, मगर फिर भी..
नया ये साल मुबारक हो..
निखिल आनंद गिरि
गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012
तुम्हें इक झूठ कह देना था मुझसे..
हमें सूरज की भी आदत नहीं है।।
यहां सब सर झुकाए चल रहे हैं।
यहां हंसने की भी मोहलत नहीं है।।
तुम्हें इक झूठ कह देना था मुझसे।
मुझे सच सुनने की हिम्मत नहीं है।।
फ़क़त लाखो की ही अंधेरगर्दी !
'ये क्या खुर्शीद पर तोहमत नहीं है'!!
मैं पत्थर पर पटकता ही रहा सर।
मगर मरने की भी फुर्सत नहीं है।।
सभी को बेज़ुबां अच्छा लगा था।
मैं चुप रह लूं, मेरी फितरत नहीं है।।
(खुर्शीद = सूरज)
निखिल आनंद गिरि
बुधवार, 29 अगस्त 2012
उसने मुझे नज़र से था कुछ यूं गिरा दिया..
किसने जगा दिया मुझे हसीन ख़्वाब से
नाज़ुकमिज़ाज दिल की तसल्ली के वास्ते
हंसकर जिये हैं उसने सभी दिन अजाब-से
वो सुबह अब न आएगी बहरी जो हो गई
यूं उठ रहा है शोर, नए इनक़लाब से
उसने मुझे नज़र से था कुछ यूं गिरा दिया..
जैसे ज़मीं पे कोई गिरे माहताब से..
मैं उससे बरसों बाद भी था बे-तरह मिला
वो मुझसे खुल रहा था अगरचे हिसाब से
झोंके ने एक रेत के सब धुंधला कर दिया
नज़रों में इक उम्मीद बची थी सराब से
इंसानियत का अब कोई मतलब नहीं रहा
मैने पढ़ी थी बात ये सच की किताब से..
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 18 दिसंबर 2011
याद आता है फिर वही देखो...
रोज़ करता है खुदकुशी देखो
यूं तो कई आसमान हैं उसके,
खो गई है मगर ज़मीं देखो
यूं भी क्या ख़ाक देखें दुनिया को
जो ज़माना कहे, वही देखो
कल कोई आबरू लुटी फिर से,
आज ख़बरों में सनसनी देखो
जाते-जाते वो छू गया मुझको
दे गया अनकही खुशी देखो
सबके कहने पे जिये जाता है
कितना बेबस है आदमी देखो
बारहा जिसको भूलना था 'निखिल'
याद आता है फिर वही देखो...
बुधवार, 9 नवंबर 2011
वो उजालों के शहर, तुम को ही मुबारक हों...
किस्से माज़ी के वो जुगनू की तरह लगते थे
हमने उस दौरे-जुनूं में कभी उल्फत की थी ,
जब कि ज़ंजीर भी घुँघरू की तरह लगते थे.
हर तरफ लाशें थी ताहद्दे-नज़र फैली हुईं
ज़िंदा-से लोग तो जादू की तरह लगते थे
ऊंगलियां काट लीं उन सबने ज़मीं की ख़ातिर
बाप को बेटे जो बाज़ू की तरह लगते थे...
मुझ को खामोश बसर करना था बेहतर शायद
हंसते लब भी मेरे आंसू की तरह लगते थे...
वो उजालों के शहर, तुम को ही मुबारक हों,
रात में सब के सब उल्लू की तरह लगते थे
दिन ब दिन रहनुमा गढते थे रिसाले अक्सर
चेहरे सब कलजुगी, साधू की तरह लगते थे
आज बन बैठे अदू कैसे मोहब्बत के 'निखिल'
वो भी थे दिन कि वो मजनू की तरह लगते थे
माज़ी - बीता हुआ कल
अदू - दुश्मन
निखिल आनंद गिरि
सोमवार, 10 अक्टूबर 2011
जल्दी से छुड़ाकर हाथ...कहां तुम चले गए...
कहां तुम चले गए... |
रोमांस की सारी नहीं तो बहुत सारी समझ जगजीत के स्कूल में ही कई पीढ़ियों ने सीखीं। हमने ग़ालिब की ग़ज़लें जगजीत से सीखीं, अपने बचपन से इतना प्यार जगजीत ने करना सिखाया, दोस्तों (ख़ास दोस्तों) को बर्थडे के कार्ड्स पर कुछ अच्छा लिखकर देने का ख़ज़ाना जगजीत की ग़ज़लों से ही मिला। जगजीत हमारी प्रेम कहानियों में कैटेलिस्ट या एंप्लीफायर की तरह मौजूद रहे। पहली, दूसरी या कोई ताज़ा प्रेम कहानी, सब में। वो न होते तो हमारे बस में कहां था अपनी बात को आहिस्ता-आहिस्ता किसी के दिल में उतार पाना। तभी तो गुलज़ार उन्हें ‘ग़ज़लजीत’ कहते हैं, फाहे-सी एक ऐसी आवाज कि दर्द पर हल्का-हल्का मलिए तो थोड़ा चुभती भी है और राहत भी मिलती है।
झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम में नक्सली बम विस्फोट में जब एक साथ कई थानों के पुलिसवाले मारे गए थे, तो उसमें पापा बच गए थे। मैं तब प्रभात ख़बर में था, एकदम नया-नया। मैंने पापा से कहा कि अपने अनुभव लिखिए, मैं यहां विशेष पेज तैयार कर रहा हूं, छापूंगा। उन्होंने जैसे-तैसे लिखा और भेज दिया, शीर्षक छोड़ दिया। अगले दिन के अखबार में पूरा बॉटम इसी स्टोरी के साथ था। एक आह भरी होगी, हमने न सुनी होगी, जाते-जाते तुमने आवाज़ तो दी होगी। उफ्फ, जगजीत आप कहां-कहां मौजूद नहीं हैं, भगवान की तरह।
ज़ी न्यूज़ में कुछ ख़ास तारीखों पर काम करना बड़ा अच्छा लगता था….जैसे 8 फरवरी (जगजीत सिंह का बर्थडे)...हर रोज़ ज़ी यूपी के लिए रात 09.30 बजे आधे घंटे की एक ‘स्पेशल रिपोर्ट’ प्रो़ड्यूस करनी होती थी। जगजीत के लिए काम करते वक्त लगता ही नहीं कि काम कर रहे हैं। लगता ये एक घंटे का प्रोग्राम क्यों नहीं है। आज उनके जाने पर नौकरी छो़ड़ने का बड़ा अफसोस हो रहा है। कौन उतने मन से याद करेगा जगजीत को, जैसे हम करते थे। आपकी ग़ज़लों के बगैर तो फूट-फूट कर रोना भी रोना नहीं कहा जा सकता।
निखिल आनंद गिरि
बुधवार, 5 अक्टूबर 2011
मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..
वही चेहरा मुझे अक्सर मेरा भगवान लगता है..
हमारे गांव यादों में यहां हर रोज़ मरते हैं,
मुझे ये शहर तो ख़्वाबों का कब्रिस्तान लगता है..
ज़रा फुर्सत मिले तो देखिए उसको अकेले में,
वो गोया भीड़ में अच्छा-भला इंसान लगता है..
उजाले ही उजाले हों तो कुछ घर सा नहीं लगता..
अंधेरों के बिना भी घर बहुत वीरान लगता है..
मेरे ख्वाबो की गठरी को समंदर में बहा डालो,
मेरे कमरे में रद्दी का कोई सामान लगता है..
मैं किसको उम्र के इस कारवां में हमसफर समझूं.
मुझे हर शख्स बस दो दिन यहां मेहमान लगता है..
ज़रा मेरी तरह पत्थर पे सजदे करके भी देखे
जिसे भी इश्क नन्हें खेल सा आसान लगता है....
मैं ज़िंदा हूं तुम्हारे बिन, यक़ीं ख़ुद भी नहीं होता,
यहां पहचान साबित ना हो तो चालान लगता है..
निखिल आनंद गिरि
बुधवार, 28 सितंबर 2011
वो भी मुझको रोता है !
जैसे कि मां-बेटे हैं...
सब में तेरा हिस्सा है,
मेरे जितने हिस्से हैं...
मस्जिद भी, मैखाना भी,
तेरी दोनों आंखें हैं...
मंज़िल भी अब भरम लगे,
बरसों ऐसे भटके हैं...
अब जाकर तू आया है,
मुट्ठी भर ही सांसे हैं...
नींद से अक्सर उठ-उठ कर,
ख़्वाब का रस्ता तकते हैं...
वो भी मुझको रोता है !
सब कहने की बातें हैं..
हर शै में तू दिखता है,
तेरे कितने चेहरे हैं?
सागर कितना खारा है
अच्छा है हम प्यासे हैं...
निखिल आनंद गिरि
बुधवार, 21 सितंबर 2011
ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया...
छुपना पड़ा गुलों को भी दामाने-ख़ार में
बरसों के बाद टूटा वो तारा फ़लक से रात,
फिर से हुआ सुकून बहुत, इंतज़ार में...
ऐसा भी क्या हुआ कि उसे इश्क हो गया
कुछ तो कमी ही थी मां के दुलार में...
एक रोज़ ख़ाक होंगे सभी जीत के सामान
रखा नहीं है कुछ भी यहां जीत-हार में...
सब रहनुमाओं ने किए अपने पते भी एक
मिलना हो आपको तो पहुंचिए तिहाड़ में...
जिस फूल की तलब में गुज़री तमाम उम्र
वो फूल ही आया मेरे हिस्से, मज़ार में...
बुधवार, 18 मई 2011
एक दिल का दर्द, दूजे की दवा होता रहा...
अजनबी इक दोस्त हौले से ख़ुदा होता रहा...
सारे मरहम, सब दवाएं हो गईं जब बेअसर
एक दिल का दर्द, दूजे की दवा होता रहा...
चांद के हाथों ज़हर पीना लगा थोड़ा अलग,
यूं तो अपनी ज़िंदगी में हादसा होता रहा...
एक ज़िंदा लाश को उसने छुआ तो जी उठी..
रात भर पूरे शहर में मशवरा होता रहा...
पांव रखने पर ज़मीनों के बजाय सीढ़ियां...
शहर के ऊपर शहर, ऐसे खड़ा होता रहा
तुमको महफिल से गए, कितने ज़माने हो गए
फिर भी अक्सर आइने में, सामना होता रहा
घर के हर कोने में, भरती ही रही रौनक 'निखिल'
मां अकेली ही रही, बेटा बड़ा होता रहा.....
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 27 फ़रवरी 2011
हम भला कौन सा मुद्दा रखते...
आज हम भी कोई रूतबा रखते...
घर के भीतर ही अक्स दिख जाता,
काश! कमरे में आईना रखते...
तीरगी का सफ़र था, मुट्ठी में
एक अदना-सा सूरज का टुकड़ा रखते...
चांद को छूना कोई शर्त ना थी,
झुकी नज़रों से ही कोई रिश्ता रखते...
वक़्त के कटघरे में लोग अपने थे,
हम भला कौन-सा मुद्दा रखते....
दो किनारों की मोहब्बत थी "निखिल"
किसके बूते पर जिंदा रखते...
निखिल आनंद गिरि
ये पोस्ट कुछ ख़ास है
नन्हें नानक के लिए डायरी
जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...
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कौ न कहता है कि बालेश्वर यादव गुज़र गए....बलेसर अब जाके ज़िंदा हुए हैं....इतना ज़िंदा कभी नहीं थे मन में जितना अब हैं....मन करता है रोज़ ...
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हिंदी सिनेमा में आखिरी बार आपने कटा हुआ सिर हाथ में लेकर डराने वाला विलेन कब देखा था। मेरा जवाब है "कभी नहीं"। ये 2024 है, जहां दे...
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छ ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़...