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रविवार, 13 नवंबर 2016

आएंगे..आ ही गए अच्छे दिन!

देश एक लंबी-सी कतार है
आपके बाग़ों में बहार है।
आएंगे, आ ही गए अच्छे दिन
जो न देख पाए, वो ग़द्दार है।
हमारी जेब पर ही बंदूकें,
कैसा पागल ये चौकीदार है।
फोड़ दी गुल्लकें भी बच्चों की
काला धन अब तलक फ़रार है।
जेब ख़ाली है, दवा कैसे करें
विकास का भूत यूं सवार है।


निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 सितंबर 2016

अच्छे दिनों की गज़ल

दिल्ली की सड़कों पर कत्लेआम है, अच्छा है
अच्छे दिन में मरने का आराम है, अच्छा है।

छप्पन इंची सीने का क्या काम है सरहद पर, 
मच्छर तक से लड़ने में नाकाम है, अच्छा है।

बिना बुलाए किसी शरीफ के घर हो आते हैं
और ओबामा से भी दुआ-सलाम है, अच्छा है।

कचरा खाती गाय माता अपनी सड़कों पर,
गोरक्षक के घर में दूध-बादाम है, अच्छा है।

पढ़ने-लिखने वालों में, गद्दारी दिखती है
देशभक्त इस देश का झंडू बाम है, अच्छा है।

मन की बातमें अपने मन की उल्टी करते हैं
जन की बात न सुनने का निज़ाम है, अच्छा है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 12 मई 2016

कोई भी मर्ज़ हो, सबकी दवा बस इक मुहब्बत है

उनका नाम, ना तो क़द, ओहदा बोलता है
हुनरमंदों की आखों का इशारा बोलता है

कोई भी मर्ज़ हो, सबकी दवा बस इक मोहब्बत है
कि अंधा देखने लगता है, गूंगा बोलता है
 
मैं होली खेलकर ज़िंदा तो लौटूंगा ना अम्मा?
हमारे मुल्क का सहमा-सा बच्चा बोलता है

क़िताबे-ज़िंदगी ने ये सबक़ सिखला दिया हमको
कि जब आता नहीं कुछ काम, पैसा बोलता है।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 4 जनवरी 2015

दो रुपये का लोकतंत्र..

बचपन की एक बात समझी,
लगभग तीस साल की उम्र में
एक आदमी चौबीस घंटे में,
तीस लोगों की डांट खाता है
तीन सौ लोगों की डांट से बचता है
तीन हज़ार बार 'सर सर' कहता है
सर झुकाकर खच्चर की तरह,
तीस हज़ार लोगो के साथ,
रोज़ाना धक्के खाते आता-जाता है
शनीचर को तेल चढ़ाता है,
आप कहते हैं मन से नौकरी करता है
कंपनी का बड़ा वफादार है
बीवी-बच्चों से सच्चा प्यार है
मैं तब समझा ये अतिशयोक्ति अलंकार है!


और ये भी कि,
सभ्यताओं के इतिहास में
सिर्फ दुम छोटी होती गई
दुम हिलाना होता गया,
सभ्य होने की पक्की गारंटी।

वो डॉक्टर जो नब्ज़ पकड़ता था
और झट पकड़ लेता बीमारी भी
एक दिन मरा लाइलाज बीमारी से
एक बिल्ली रास्ता काटती ही थी
कि कट गई गाड़ी के नीचे आकर
एक सरकारी अस्पताल खुलना ही था
मर गया महामारी में सारा गांव
दो रिश्ते एक होने को ही थे,
कि सरकारी योजनाओं की तरह
टूट गए भरम के सारे पुल।

जीवन की काली कोठरी में
जब चीख़ती हैं सवालों की परछाईयां
''और कितना डूबोगे सूरज
अंधेरे के बोझ तले
कितना और..?''
उम्मीद की अकेली किरण होती है-
जैसे-तैसे ली गई
एक अंधेरी, बोझिल सांस।
और तब समझ आता है
विडंबना का शाब्दिक अर्थ
दरअसल, व्याकरण की नहीं लिखी गई किताब में
प्यार लोकतंत्र का ही पर्यायवाची शब्द है.
और लोकतंत्र उस अश्लील कहकहे का
जिसका वज़न दो रुपये की क़ीमत चुकाकर,
किसी भी शाम तोला जा सके इंडिया गेट पर


निखिल आनंद गिरि
(कविताओं की पत्रिका 'सदानीरा', मार्च-अप्रैल-मई 2014 अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

विकास के रंगीन चुटकुले

सुबह के जिस अख़बार में चमक रहा था
आधे पेज के सरकारी विकास का विज्ञापन
वही अख़बार देखकर पूछा लड़की ने
ये सामूहिक बलात्कार क्या होता है?
पिता ने छठी मंज़िल से कूदकर खुदकुशी कर ली
लड़की की उम्र सात साल थी। 
उस शहर का नाम कुछ भी रख लीजिए
जहां एक दिन सब सरकारी अस्पतालों में,
निकाले गए थे मरीज़ों के गर्भाशय
और फिर बेच दिये थे सरकारी बाबुओं ने।
गर्भाशय की ख़ूबसूरत तस्वीर छापी थी अख़बार ने,
और अख़बार सबसे ज़्यादा बिका था।
हमारी लाशो में मसाले भरकर,
साबुत रखी जाती हैं लाशें
ख़ूब रंगीन नज़र आते हैं अख़बार
बौराने लगता है माथा
इतनी आती है सड़ांध
मगर शुक्र है टिशु पेपर का ज़माना है।
जिस दारोगा ने एक औरत को
चौकीदार बनाने का लालच देकर
थाने में ही सामूहिक बलात्कार किया
और फरार हो गया
उसकी जगह किसकी हाथों में डाली गई हथकड़ी?
जिस चौराहे पर एक लड़की का जुर्म बस इतना था
कि वो अकेली चल रही थी रात में
बेरहमी से मसली गई,
कुचली गई और नंगी कर दी गई 
किसके छपे पोस्टर अपराधियों के नाम पर,
एक चेहरा आपका तो नहीं?
व्यवस्था अगर नहीं हो सकती बेहतर
तो बेहतर है बदल दी जाए व्यवस्था
जहां-जहां नहीं पहुंच पाती पुलिस
और बलात्कार आराम से होते हैं
उन शरीफ मोहल्लों में
लाउडस्पीकर लगाकर पहले बकी जाएं गालियां
और फिर वंदे मातरम
और ये भी कि,
औरत की गोलाइयों के बाहर भी दुनिया गोल है।

रविवार, 15 दिसंबर 2013

मेरा गला घोंट दो मां

किसी धर्मग्रंथ या शोध में लिखा तो नहीं,

मगर सच है...

प्यार जितनी बार किया जाए,

चांद, तितली और प्रेमिकाओं का मुंह टेढ़ा कर देता है..

एक दर्शन हर बार बेवकूफी पर जाकर खत्म होता है...


आप पाव भर हरी सब्ज़ी खरीदते हैं

और सोचते हैं,  सारी दुनिया हरी है....

चार किताबें खरीदकर कूड़ा भरते हैं दिमाग में,

और बुद्धिजीवियों में गिनती चाहते हैं...

आपको आसपास तक देखने का शऊर नहीं,

और देखिए, ये कोहरे की गलती नहीं...


ये गहरी साज़िशों का युग है जनाब...

आप जिन मैकडोनाल्डों में खा रहे होते हैं....

प्रेमिकाओं के साथ चपड़-चपड़....

उसी का स्टाफ कल भागकर आया है गांव से,

उसके पिता को पुलिस ने गोली मार दी,

और मां को उठाकर ले गए..

आप हालचाल नहीं, कॉफी के दाम पूछते हैं उससे...


आप वास्तु या वर्ग के हिसाब से,

बंगले और कार बुक करते हैं...

और समझते हैं ज़िंदगी हनीमून है..

दरअसल, हम यातना शिविरों में जी रहे हैं,

जहां नियति में सिर्फ मौत लिखी है...

या थूक चाटने वाली ज़िंदगी.....


आप विचारधारा की बात करते हैं....

हमें संस्कारों और सरकारों ने ऐसे टी-प्वाइंट पर छोड़ दिया है,

कि हम शर्तिया या तो बायें खेमे की तरफ मुड़ेंगे,

या तो मजबूरी में दाएं की तरफ..

पीछे मुड़ना या सीधे चलना सबसे बड़ा अपराध है...


जब युद्ध होगा, तब सबसे सुरक्षित होंगे पागल यानी कवि...

मां, तुम मेरा गला घोंट देना

अगर प्यास से मरने लगूं

और पानी कहीं न हो...


निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)


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शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

ममता तेरे देस में..(हम जीते-जी मर गए रे..)

इस बार गर्मियों में छुट्टियां बिताने और आम का मज़ा लेने के लिए पश्चिम बंगाल के मालदा इलाक़े में जाना हुआ। ज़िले का एक छोटा सा कस्बा समसी। सुनने को मिला कि एक-दो बार सोनिया गांधी भी इस इलाके के दौरे पर आ चुकी हैं। इसका मतलब अगर ये समझ लिया जाए कि यहां खूब विकास हुआ है तो ये वैसा ही है जैसे कोई बच्चा गांव के ऊपर से हेलीकॉप्टर उडता देखकर कहे कि हमारे गांव में हेलीकॉप्टर चलते हैं।

एक स्थानीय रिश्तेदार को डॉक्टर से दिखाने के लिए वहां के सरकारी अस्पताल पहुंचा तो देखकर तसल्ली हुई कि डॉक्टर उपलब्ध हैं और शाम पांच बजे के बाद भी मरीज़ों के लिए समय निकाल रही हैं। मगर थोडी देर में समझ आ गया कि उनसे सत्तर रुपये फीस वसूली जा रही है। यानी अस्पताल का कमरा, बिजली, पंखा, यहां तक कि डॉक्टर भी सरकारी मगर प्राइवेट प्रैक्टिस। पैसे लेकर मरीज़ों की पर्ची बनाने वाले झोलाछाप कंपाउंडर से मिन्नत करने और उसकी मेहरबानी के बाद डॉक्टर से मिलना हुआ। कोई फाल्गुनी बाला थीं, जो इस इलाके में इकलौती सरकारी डॉक्टर थीं। स्थानीय लोगों से पता चला कि सरकारी अस्पताल में निजी प्रैक्टिस करना यहां का पुराना चलन है और मैं ही इस मामले को लेकर ज़्यादा भावुक हो रहा हूं।

अगली सुबह फिर से अपने रिश्तेदार के साथ अस्पताल पहुंचा तो देखा निजी प्रैक्टिस सुबह से ही शुरू है। सरकारी अस्पताल के दूसरे कमरे में एक सडक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल मरीज़ काफी देर से डॉक्टर साहिबा के आने का इंतज़ार कर रहा था। मगर, फीस देकर डॉक्टर से मिलने वालों की तादाद ज़्यादा थी इसीलिए डॉक्टर को फुर्सत नहीं मिल पा रही थी। इसके बाद जितना हो सका, मैंने अपने स्तर से स्थानीय पत्रकारों से इस मसले पर बातचीत की मगर उनकी प्रतिक्रिया ऐसी थी जैसे ये कोई गंभीर बात ही नहीं है। लोगों से पूछने पर पता चला कि चुनाव के वक़्त कभी-कभी ऐसे मुद्दों को लेकर रूटीन प्रदर्शन होते हैं, मगर अस्पतालों का ये हाल पूरे बंगाल में एक जैसा है। हालांकि मेरे लिए अस्पतालों का ऐसा हाल नया नहीं है। बिहार के समस्तीपुर में हाल के महीनों में ही निजी और सरकारी अस्पतालों की मिलीभगत से गर्भाशय के इलाज में जो भयंकर घपला सामने आया है, उतना ही सुशासन का हाल बताने को काफी है, मगर बंगाल में हालात इतने बदतर हैं, सोचकर यकीन नहीं होता।

मालदा एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र है। देश की सबसे ज़्यादा मुस्लिम आबादी बंगाल के इसी इलाके में रहती है। जिस समसी कस्बे में मैं ठहरा, वहां भी मुस्लिम आबादी बहुत ज़्यादा है। जितने स्कूल वहां दिखे, उतने ही मस्जिद भी। किसी घर में अख़बार आता नहीं दिखा। रेलवे के फाटक पर या बाजार में कहीं-कहीं बंगाली के अखबार टंगे जरूर दिखे, मगर मेरा अनुमान कहता है कि उसमें अस्पतालों की दुर्दशा बडी ख़बर नहीं बनती होगी। ममता बनर्जी की सरकार अल्पसंख्यकों को लेकर रोज नई घोषणाएं करती दिखती है, मगर सियासत में घोषणाओं का मतलब विकास नहीं होता। और सारा दोष ममता का नहीं, लंबे वक्त तक रहे लेफ्ट के राज का भी है। आख़िर  सिस्टम में भ्रष्टाचार को एक परंपरा बनते वक्त तो लगा ही होगा। मालदा जैसे इलाक़े वक्त से कम से कम तीस साल पीछे चले गए हैं और आगे आने की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती।

बहरहाल, मालदा में किस्म-किस्म को आम खाने को ज़रूर मिले। अगर मेरी तरह आपको भी यक़ीन है कि मालदह आम का सीधा ताल्लुक मालदा ज़िले से है, तो आप ग़लत हैं। यहां इसे लंगड़ा आम कहते हैं। जिले के छोटे-छोटे इलाकों से आम की टोकरियां कटिहार के रास्ते बिहार और आगे के इलाक़ों में जाती हैं। कटिहार में एक लोकल ट्रेन से उतरते वक्त इन छोटे व्यापारियों की दुर्दशा भी दिखी। जैसे ही लोकल ट्रेन से इनकी टोकरियां उतरती हैं, पुलिस वाले अलग-अलग गिरोह बनाकर इनसे वसूली करने लगते हैं। कोई आरपीएफ के नाम पर, कोई रेलवे टिकट के नाम पर तो कोई स्थानीय सिपाही के नाम पर। कोई चाहे तो इस स्टेशन पर पुलिसवालों की तलाशी ले सकता है। उनकी जेब से लेकर बैग तक में इन ग़रीबों को धमकाकर वसूले गए आम निकल जाएंगे।
दिल्ली में जो आम साठ से सौ रूपये किलो तक मिलते हैं, यहां दस-पंद्रह रूपये किलो में मिल जाते हैं। मगर डॉक्टर की फीस यहां भी सत्तर रूपये है, वो भी सरकारी अस्पताल में। शुक्र है दिल्ली के सरकारी अस्पतालों में फीस नहीं देनी पड़ती और वहां मालदा के एक छोटे क़स्बे की खबर छपने की भी पूरी गुंजाइश रहती है। और कुछ नहीं तो अपनी 'आपबीती' तो है ही..

(ये आलेख जनसत्ता अखबार में 12 जुलाई को प्रकाशित हुआ है..)

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

माई गे माई..एफडीआई..

आई रे आई, एफडीआई...
माई गे माई, एफडीआई..
दादा रे दादा, एफडीआई..

हथिया पे आई..
साइकिल पे आई..
लल्लू के, कल्लू के
दुर्दिन मिटाई..
आई रे आई, एफडीआई..

बटुआ में आई,
जै काली माई
व्हाइट हाउस वाली
काली कमाई..
आई रे आई, एफडीआई...

अमरीकी राशन
जियो सुशासन
खेती लंगोटी में
बिक्री में टाई..
आई रे आईएफडीआई...

खुदरा किराना..
डॉलर खजाना..
चड्डी में, टट्टी में
सोना हगाई..
आई रे आई, एफडीआई...

उठा के कॉलर,
घूमेगा डॉलर..
खेलेगा रुपिया,
छुप्पम छुपाई
आई रे आई, एफडीआई...
 
माया रे माया
नाटक रचाया
दद्दा मुलायम
चाभो मलाई..
आई रे आई, एफडीआई..
समाजवाद माने एफडीआई...
दलितवाद याने एफडीआई...

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

तुम्हें इक झूठ कह देना था मुझसे..

दर-ओ-दीवार हैं, पर छत नहीं है।
हमें सूरज की भी आदत नहीं है।।

यहां सब सर झुकाए चल रहे हैं।
यहां हंसने की भी मोहलत नहीं है।।

तुम्हें इक झूठ कह देना था मुझसे।
मुझे सच सुनने की हिम्मत नहीं है।।

फ़क़त लाखो की ही अंधेरगर्दी !
'ये क्या खुर्शीद पर तोहमत नहीं है'!!

मैं पत्थर पर पटकता ही रहा सर।
मगर मरने की भी फुर्सत नहीं है।।

सभी को बेज़ुबां अच्छा लगा था।
मैं चुप रह लूं, मेरी फितरत नहीं है।।

(खुर्शीद = सूरज)

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 28 अगस्त 2011

लोकतंत्र का अगला भाग...अंतराल के बाद

13 दिनों तक किसी सुपरहिट फिल्म की तरह हाउसफुल' चले अन्ना के 'सेलेब्रिटी' आंदोलन का ऐसा सुखांत (happy-ending) शायद पहले से ही सोचकर रखा गया था। आंदोलन की शुरुआत में जिस तरह के तेवर सरकार के थे, संसद की एक बहस में ही सब ऐसे मान गए कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। पूरी संसद में कोई मतभेद ही नहीं दिखा। क्या वाकई ये लोकतंत्र में संभव है, पता नहीं।
एक दलित और एक मुसलिम परिवार की बच्ची आती है और भगवान बन चुके अन्ना को दिल्ली जल बोर्ड का पानी पिलाकर अनशन तुड़वाती है। इसे फिल्मों की भाषा में poetic justice कह सकते हैं। यानी सबको खुश करने की कोशिश। मगर, लोकतंत्र इसमें भी नहीं दिखता। एक पूर्वनियोजित, सुसंयोजित, राजनैतिक कार्यक्रम ज़रूर दिखता है, जैसा कि लोकप्रिय मंच संचालक कुमार विश्वास अन्ना के मंच से बार-बार कह भी रहे थे।
ख़ैर, एक ग़रीब गांव के अन्ना ने जिस तरह से मेट्रो भारत की राजधानी दिल्ली में 13 दिनों तक समां बांधे रखा, वो काबिलेतारीफ है। एक युवा होने के नाते देश के बहरों को आवाज़ सुनाने के लिए किसी भी तरह की गूंज में शामिल होना बुरा नहीं है, मगर सवाल ये है कि क्या ये सिर्फ एक कार्यक्रम भर था, जिसकी तारीख और रूपरेखा पहले से तय थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि अब संसद के बजाय एनजीओ और दूसरे गुट सरकारें चलाएंगे। इस पर भी सोचना ज़रूरी है, नहीं तो डेमोक्रेसी की म्यूज़िकल चेयर के खेल में जो आखिर में हमेशा खड़ा रह जाएगा, वो हम-आप ही होंगे...

पहले गालियों में आती थी बहन-माएं...
आजकल आती हैं नारों में...
वंदे मातरम...

राजधानी में बढ़ गए हैं देशभक्त,
बढ़ गए हैं बुद्धिजीवी...
कार्यक्रमों की तरह आंदोलन भी...

वो मेट्रो में चढ़कर आते हैं
और एसी बसों में भी...
अधूरा काम छोड़कर दफ्तर का...
लड़कियां आती हैं बहाने छोड़कर..
सुना है स्वादिष्ट मिलते हैं गोलगप्पे
रामलीला मैदान में...
जहां होते हैं रोज़ आमरण अनशन

अदालतों में घिस गए हाथ...
घिस गए पन्ने,
गीता-कुरान के...
सच बोलने की झूठी कसमें खा-खाकर
अब कानून से बनेंगे इमानदार...
लोकतंत्र की सब बैसाखियां हमारे लिए...

सब रहनुमा हमारे लिए,
हमारे लिए सब बेईमान,
सब तालियां, सारे जयघोष
हमारे लिए सब भगवान...

सड़कें जाम, लब आज़ाद...
फिर आया पचहत्तर याद...
लोकतंत्र का अगला भाग..
छोटे से अंतराल के बाद...

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 30 जनवरी 2011

ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है...

यहां दिल्ली पुलिस आपकी सेवा में सदैव तत्पर है...
प्यार ढूंढना हो तो कहीं और जाएं

जब तुम्हारे होंठ छुए, तो मालूम हुआ...
ये प्रेम त्रिकोणों का शहर है....
और उदास रौशनी का
जहां दाईं और बाईं ओर सिर्फ लड़ाईयां हैं
और बीच में हैं फ्लाईओवर.....

हम अपनी रीढ़ तले सख्त ज़मीन रखकर सोते हैं...
और आप मेरी कविताओं में रुई ढूंढते हैं...
इतनी खुशफहमी कहां से खरीद कर लाए हैं...
आप कह सकते हैं शर्तियां...
मैं किसी ऐसी बीमारी से मरूंगा...
जिसमें सीधी रीढ़ लाइलाज हो जाती है...

हमें ठीक तरह से याद है....
आधे दाम पर बेची गईं थी स्कूल की किताबें....
जिनमें लिखा था तीसरे पन्ने पर-
'चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं...'

चाहता हूं कि चुरा लूं सब तालियां,
जब वो भाषण दे रहे होंगे भीड़ में
नोंच लूं उनकी आंखों से नींद,
ताकि खूंखार सपने न देख पाएं कभी...

काश! किताबों में एकाध पन्ने जुड़ जाते चाहने भर से,
जैसे आ से आंदोलन, क से क्रांति...
जैसे ज़िंदा रहने के लिए ऑक्सीजन या दिल नहीं,
दुम ज़रूरी है....
और प्यार करने के लिए कंडोम.....

फाड़ दीजिए धर्म-शिक्षा के तमाम पन्ने...
कि सांसों के भी रंग होते हैं अब...
ये 1948 नहीं कि मरते वक्त
हे राम ! कहने की आज़ादी हो....

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

जाना

तुम गईं.. जैसे रेलवे के सफर में बिछड़ जाते हैं कुछ लोग कभी न मिलने के लिए   जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो जैसे नए परिंदों...

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