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शुक्रवार, 9 अगस्त 2024

चालीस की सड़क

दुनिया अब बाज़ार में बदल गई है
दोस्त अब आत्महत्याओं में बदल गए हैं
मंच अब मंडियों में बदल गए हैं
कविताएं अब पंक्तियों में बदल गई हैं

तुम्हारी याद एक बच्चे की नींद में बदल गई है
मेरा रोना अब लोरियों में बदल रहा है।
इस वक्त जो मैं खड़ा हूं
चालीस की तरफ जाती एक सड़क पर
जिसका नाम जीवन है
और जो एक पीड़ा में बदल गया है - 

मैं बदलना चाहता था एक प्रेमी में
एक अकेले कुंठाग्रस्त कवि में बदलता जा रहा हूं

दुनिया बदल जाती केले के छिलके में 
तो कितना अच्छा होता
फिसल जाते हम सब।

दुनिया एक प्लेस्कूल में बदल गई है
जहां मेरे दो बच्चे पढ़ते हैं
चहचहाते हैं, नई भाषाएं सीखते हैं
दुनिया का नक्शा काटते हैं।
और मैं उनके लौटने का इंतज़ार 
करता हूं सड़क के उस पार

मैं एक भिक्षुक में बदलना चाहता था
जिसके कटोरे में मीठी स्मृतियां होतीं 
मगर मैं एक चौकीदार में 
बदलता जा रहा हूं
सावधान की मुद्रा में खड़े
उम्र के बुझते हुए लैंप पोस्ट के नीचे

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 31 जुलाई 2024

रिंगटोन

एक सस्ता फोन मां के पास है
जो चाह कर भी नहीं टूटता
पिता के पास भी है फोन
वह ख़ुद भी टैंपर्ड ग्लास की तरह
टूटने से बचाते हुए हमें
हमारी सुरक्षा के भ्रम में हैं।

एक लैंडलाइन अब तक है 
हमारे यहां जो कुछ दिन में
इतिहास बन जाएगी।

जितने लोग हैं दुनिया में
उनसे कहीं ज़्यादा हैं फोन
ग़लत नंबर वालों के कॉल सबसे ज़्यादा
कर्ज़ वालों के भी
थाई मसाज कराने के लिए भी 
कर लेता है कोई अजनबी संवाद।
कोई वोट मांगने के लिए भी
कर लेता है झूठमूठ याद। 

जो असल में याद आते हैं
बहुत प्रतीक्षा करने पर भी 
नहीं आता उनका कोई फोन कॉल

विज्ञान तुम आगे बढ़ो इतना कि
जीवन-मृत्यु के दो संसारों में 
बंट गए अभिन्न लोग
एक बार कॉल कर सकें एक-दूसरे को
या किसी रिंगटोन के सहारे ही
खोल दो उनकी अनंत नींद

कविता में याद करने की अपनी सीमाएं हैं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 17 जुलाई 2024

पुकार


देखो मां!
तुमसे मिलने कौन आया है

मुझे गिराओ किसी पत्ते की लंगड़ी से
मैं चूमूंगा मिट्टी 
पत्ते फूल की तरह झड़ेंगे

मैं आंगन में अकेला टहलता हूं
एक बूढ़ी अलगनी है, 
एक उदास कुआं है
मिट्टी के चूल्हे में सिर्फ धुआं है
इस वीराने में रोऊंगा नहीं
जानता हूं
तुम यही छिपी हो कहीं

देखो ये किसके नन्हें पांव है
जो अपने पुरखों को गुदगुदी करते हैं

आओ खेलें लुकाछिपी
एक दो तीन चार
...
धप्पा करो एक बार

सुनो मेरी पुकार
ढूंढ रहा हूं अनंत तक तुम्हें।

                                                                          
निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 मई 2024

याद का आखिरी पत्ता

विजय
छल पर निश्छल की
कोलाहल पर शांति की
युद्ध पर विराम की
अनेक पर एक की
हंसी पर आंसू की 
मृत्यु
एक उपलब्धि है
जिस पर गर्व करना मुश्किल है

तुमने वह पा लिया मुझसे पहले
जिसके बाद कुछ पाने की इच्छा नहीं बचती
मृत्यु बुद्ध हो जाना है
रोना, कलपना, मिलना बिछड़ना
सब छोड़ शुद्ध हो जाना है

मन एक साथ इतनी आवाज़ें करता था
अब शांत है
स्मृतियां धीमे धीमे टहलती हैं

हमारी याद में एक नंबर पर चलती गाड़ी है 
एक फिरोज़ी रंग की नहीं खरीदी गई साड़ी है
एक रिसता हुआ नल है
सीलन वाली दीवार है
एक नहीं सुनी गई पुकार है
और कभी न खत्म होने वाला इंतजार है

उस पत्ते पर अब तुम्हारा चेहरा है
जो बोधिवृक्ष से टूट कर गिरा था
हमारी याद में एक पत्ता खड़कता है
और उसे छू लेने को
मुझ सा कोई अनंत तक लपकता है।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 24 अप्रैल 2024

जाना

तुम गईं..

जैसे रेलवे के सफर में

बिछड़ जाते हैं कुछ लोग

कभी न मिलने के लिए

 

जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो

जैसे नए परिंदों से घोंसले

जैसे लोग जाते रहे

अपने-अपने समय में

अपनी-अपनी माटी से

और कहलाते रहे रिफ्यूजी

 

जैसे चला जाता है समय

दीवार पर अटकी घड़ी से

जैसे चली जाती है हंसी

बेटियों की विदाई के बाद 

पिता के चेहरे से


तुम गईं

जैसे होली के रोज़ दादी

नए साल के रोज़ बाबा

जैसे कोई अपना छोड़ जाता है

अपनी जगह 

आंखों में आंसू


निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

नदी तुम धीमे बहते जाना

नदी तुम धीमे बहती जाना 
मीत अकेला, बहता जाए
देस बड़ा वीराना रे
नदी तुम..

बिना बताए, इक दिन उसने
बीच भंवर में छोड़ दिया
सात जनम सांसों का रिश्ता
एक झटके में तोड़ दिया
एक नदी भरकर आंखों में
फिरता हूं दीवाना रे
नदी तुम.. 

वही पुरानी गलियां सारी
वही शहर के रस्ते हैं
वही फूल जो तुमने रोपे
मुझे देखकर हंसते हैं
किसे दिखाएं जीते जीते
घुट घुट कर मर जाना रे
नदी तुम..

उफनती लहरों से बचकर
मछलियों लेना उसको धर
बड़ा भोला है वो दिलबर
नदी तुम रहना मां बनकर
नदी वो लंबी नींद में होगी
उसको हौले से सुलाना रे
नदी तुम धीमे बहती जाना रे..



निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

दुख का रुमाल

इस सर्दी में कंबल ज़रा-सा सरका
तो सुन्न पड़ गया अंगूठा
हवा के साथ सुर्र से घुस आई
तुम्हारी याद दुख बनकर
कोई सुख ओढ़ाने नहीं आया।

लू वाली गर्मियों में
हाथ वाले पंखे की खड़-खड़ बन
बारिश के मौसम में
चप्पलों की छप छप बन
ऐसे ही आती रहेगी याद।

टिफिन में मीठे अचार का टुकड़ा बनकर भी 
याद आ सकती है
या अजनबी दिल्ली में पहली बार
ग़लत बस में चढ़ने की डांट बनकर

तुम्हारा जाना बड़ा दुख है
इससे बड़ा दुख है
तिल-तिल याद का आना

ज़िंदगी एक दुख भरे गाने की तरह है
जिसके रियाज़ में आते हैं आंसू
आ जाती है तुम्हारी याद भी
आंसू पोंछते हुए रुमाल की तरह

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

तेरी तलाश में क्या क्या नहीं मिला है मुझे


अब अंधेरों में भी चलने का हौसला है मुझे
तेरी तलाश में क्या क्या नहीं मिला है मुझे

अभी तो सांस ही उसने गिरफ्त में ली है,
अभी तो बंदगी की हद से गुज़रना है मुझे

मेरा तो साया ही पहचानता नहीं मुझको,
कहूं ये कैसे कि ग़ैरों से ही गिला है मुझे

मैं एक ख़्वाब-से रिश्ते का क़त्ल कर बैठा
अब अपनी लाश ढो रहा हूं, ये सज़ा है मुझे

किसी ने छीन लिया जब से मेरा सूरज भी
मैं उसके नाम से रौशन रहूं दुआ है मुझे

मेरे यक़ीन से कह दो, ज़रा-सा सब्र करे,
ये रात बुझने ही वाली है, लग रहा है मुझे

निखिल आनंद गिरि

 

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

हम जहां बचे हुए हैं..

आजकल कई पुरानी चीज़ों पर काम कर रहा हूं। घर में पड़ी पुरानी क़िताबें पढ़ रहा हूं। कई ऐसी किताबें हैं जो कभी पढ़ी ही नहीं। घर में आईं और कहीं कोने में पड़ी रहीं। पढ़े जाने के इंतज़ार में। कई पन्नों पर पुरानी, अधूरी कविताएँ दिख जाती हैं। कहती हैं, पूरा करो मुझे। याद नहीं कौन-सी कविता किस मूड में वहां तक पहुंची थी। लग रहा है जैसे कविता पूरी करने का कोई कांपटीशन कर रहा हूं ख़ुद से।
दो कहानियां पड़ी हुई हैं। एक बार फिल्म बनाने का मन हुआ था तो एक कहानी लिखी थी एक दोस्त के साथ। कहानी लगभग पूरी होकर रह गई। एक बहुत पुरानी डायरी है। कई सारे नंबर लिखे हुए हैं। मन होता है किसी अनजान नंबर को फोन मिला दूं और पूछूं क्या हाल। अगर वो पहचान ले तो शिकायत के साथ पूछूं कि इतने दिन में आपने ही फोन क्यों नहीं कर लिया। अगर न पहचाने तो कहूं कि कभी-कभी अनजान लोगों से बात करने की हॉबी है मेरी।
स्कूल के ज़माने की कुछ तस्वीरें हैं। जब नई-नई दाढ़ी आई थी चेहरे पर। अजीब-सी सादगी लग रही है ख़ुद के उस पुराने चेहरे में। अब काफी चालाक कर दिया है शहर ने। नए तरह के दोस्तों ने। पुराने रिश्तों से कई दिनों बाद गुज़रना बहुत ख़ास होता है।
अभी फेसबुक पर मैंने स्टेटस लगाया कि कुछ पैसों की ज़रूरत है। कुछ लोगों ने मज़ाक उड़ाया। कुछ ने इनबॉक्स में आकर दिल से मदद करनी चाही। ऐसे कई दोस्त जिनसे कई-कई महीनों से बात नहीं हुई, बिना शर्त पैसा देने को तैयार हो गये। इस तरह ख़ुद को परखने का ये अनुभव ठीकठाक रहा। हम दिन ब दिन जितना निगेटिव सोचते जाते हैं, ऐसे कुछ मीठे अनुभव भीतर से ताक़त देते हैं। मदद की पेशकश महिला मित्रों की तरफ से ज़्यादा आई। बहन, प्रेमिका, मां तक का हक़ जताकर उन्होंने मदद करनी चाही। मैं उन सबका शुक्रगुज़ार हूं।
ये एहसास ही बहुत है कि आप कई पुराने रिश्तों में अब भी बचे हुए हैं। जहां नहीं बचे हैं या जिन रिश्तों ने ठुकरा दिया, उनको मुंहतोड़ जवाब की तरह। मैं बचा रहूंगा एक उम्मीद की तरह।
आमीन!

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

ख़ुद से ख़ुद तक सफर है इन दिनों

मोहल्ले के कई बच्चे ट्यूशन के लिए अचानक घर पर आने लगे हैं। पता नहीं उनके स्कूलों में पढ़ाई होती भी है या नहीं। मेरे पास फुर्सत होती नहीं फिर भी उनके साथ बैठना-बतियाना अच्छा लगता है। उनके समय को समझने में बहुत मदद मिलती है। उनकी बातों के आईने में अपने स्कूल के दिनों को भी चुपके से देख लेता हूं। कुछ ख़ास बदलता हुआ नहीं दिखता। सिवाय अपनी उम्र के। सिवाय मोबाइल और इंटरनेट के। उनकी पढ़ाई के बीच में अचानक से मोबाइल और इंटरनेट आते रहते हैं। ऐसे जैसे कभी इनके बिना पढ़ाई होती ही नहीं हो।

मैंने इंटरनेट स्कूल के दिनों में ही सीखा। लगभग पंद्रह साल पुरानी ईमेल आईडी ही आज भी चल रही है। इस तरह से सोचता हूं तो लगता है काफी बड़ा हो गया हूं। मेरे बाद की एक पूरी पीढ़ी तैयार हो गई। दिल मानता ही नहीं इस बात को। मेरे ख़याल से ऐसा सबके साथ होता होगा। एक लंबे समय तक पापा हमेशा एक ही उम्र के लगते रहे हैं। मैं भी एक ख़ास उम्र में फ्रीज होकर रह जाना चाहता हूं। उसके बाद की उम्र के साथ बहुत सी दुश्वारियां भी हैं।

बात इंटरनेट की चल रही थी। हाल ही में एक बार फेसबुक पर किसी अनजान लड़की के नाम से फ्रेंड रिक्वेस्ट आई। बहुत बातचीत के बाद भी वो बताने को तैयार नहीं थी कि कौन है, कैसे जानती है। अचानक चैट में उसने मेरा फेवरेट सिंगर पूछा और मैंने झट से कहा –मुकेश । उधर से जवाब आया मुकेश कौन?  मैं समझ गया कि लड़की (या लड़का) मेरी उम्र से काफी छोटा है। इसके बाद उस अनजान लड़की का कोई मेसैज वगैरह आज तक नहीं आया। मुझए उसकी याद आती है। उसे बताने का मन करता है कि मुकेश एक गायक रहे हैं और उन जैसा गाना कोई हंसी-मज़ाक नहीं है।

पिछले कुछ दिनों से अपने साथ एक एक्सपेरिमेंट कर रहा था। ख़ुद को फेसबुक, ब्लॉगिंग से दूर रखने की कोशिश चल रही थी। करीब डेढ महीने से फेसबुक पर कोई पोस्ट नहीं डाली। अगस्त के महीने में सिर्फ एक पोस्ट डाली, वो भी अपने बर्थडे पर। सोचा था कि जो लोग लाइक-कमेंट वगैरह करते हैं, मेरे सोशल मीडिया की दूरी को महसूस करेंगे, हाल-चाल पूछेंगे। महसूस हुआ कि मेरे सोशल मीडिया पर रहने-ना रहने का किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। हां, एकाध लोग हैं जो सचमुच मुझे सोशल मीडिया पर मिस करते हैं।

अखिलेंद्र उनमें सबसे ख़ास है। मेरी कई कविताएं, कई ब्लॉग-पोस्ट उसे ठीक-ठीक याद हैं। उससे बात करके इतना अपनापन महसूस होता है जैसे हम सोशल मीडिया पर नहीं मोहल्ले की छत पर मिल रहे हों। मेरी शादी में सिर्फ 16 मेहमान बाराती थे। उनमें से एक अखिलेंद्र भी था। उसकी और हमारी पहचान सिर्फ इतनी थी कि सोशल मीडिया पर एक-दूसरे को हम जानते थे। उसने सीधा आज़मगढ़ से ट्रेन पकड़ी और समस्तीपुर चला आया। बिना किसी कार्ड-न्योते के। ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया से हो रहे मेरे मोहभंग को भी अखिलेंद्र ने ही तोड़ा। रात के ग्यारह बजे अचानक मेरी ढाई साल पुरानी एक पोस्ट को याद करते हुए फोन कर दिया तो मुझे लगा कि ब्लॉगिंग करते रहना चाहिए। ऐसा वो कई बार कर चुका है। आज उसका जन्मदिन है तो ये ब्लॉग पोस्ट उसके लिए। और भी कई दोस्तों के लिए जिनसे मिला ही नहीं, मगर लगता है कि कई-कई बार मिला हूं। शायद मिलता तो किसी न किसी बात को लेकर खटास आ जाती। वो मेरा 'ब्लॉगभाई' है, जैसे गुरुभाई या असली भाई होता है।



हैप्पी बर्थडे अखिलेंद्र
अखिलेंद्र के बहाने उन सबका शुक्रिया जो इस नई दुनिया से मेरी दुनिया का हिस्सा बने। किसी एक का नाम लेना ठीक नहीं। हमने एक-दूसरे को देखा नहीं है। मगर उन्होंने कई बार हथेली थामकर मुश्किलों में रास्ता पार कराया है और मुड़ गए। हम शुक्रिया नहीं कह पाए। ये पोस्ट उन्हीं के लिए, इस भरोसे के साथ कि लाख नाउम्मीदी के बीच नये अनजान रास्तों पर चलने का हौसला बचा है, बना रहेगा। बचपन में एक ख़ास दोस्त ने डायरी में कुछ लिखा था, अचानक याद आ गया -
'हैं कुछ ऐसी बातें,
हैं कुछ ऐसी यादें,
जो धुंधली न होंगी,
न होंगी पुरानी
हंसायेगी हमको, रुलायेगी हमको
कहीं बीच में जो रुकी है कहानी.
 
निखिल आनंद गिरि  

शनिवार, 9 अगस्त 2014

बर्थडे डायरी..

 पापा फेसबुक नहीं करते। इसीलिए उनके दिमाग से बर्थडे रखना निकल गया। मुझे ख़ुद ही फोन करना पड़ा। मां की नींद रात ढाई बजे खुली तो फोन किया। मां फोन करना भी मुश्किल से सीख पाई है। अखबार-किताब-फोन-फेसबुक-नोटबुक जैसे झमेले उसकी ज़िंदगी में नहीं हैं तो सब कुछ याद रख लेती है। सबके जन्मदिन। बस मां को अपना ही जन्मदिन नहीं पता है। किसी को नहीं पता घर में। कई बार पूछा मगर कुछ और बोल कर टाल गई। जब वो सब को फोन कर के विश करती है तो मन तो उसका भी करता होगा कि कोई उसे विश करे।


फर्स्ट फ्लोर के ऊपर तीन लोग रहते हैं। सुबह उठते ही फेसबुक का नोटिस दिखा होगा तो बर्थडे विश करने के लिए फोन किया। नीचे उतर कर आ नहीं सके। अगल-बगल तीन पड़ोसी रहते हैं। तीनों ने एसएमएस किया। फोन नहीं कर पाए। पड़ोस के घर तक चलकर आने में तो सचमुच बहुत वक्त लग जाता होगा। हर बीस मिनट के अंतराल पर एक कॉल या एसएमएस आता रहा। पूरा दिन मोबाइल फोन के आसपास बीता। अमेरिका, कनाडा, रांची, जमशेदपुर, बिहार उत्तरप्रदेश, भोपाल, नेपाल और पता नहीं कहां-कहां से। दिल्ली में तो रह ही रहा हूं। जिसे भी जैसे ही फेसबुक पर दिखा, फट से फोन किया। कुछ लोगों को घर आने के लिए कहा भी, मगर उन्होंने इतने ज़रूरी बहाने बताए कि कोई नहीं आया।

शुक्रिया फेसबुक। कई जाने-अनजाने लोगों को मेरा बर्थडे याद दिलाने के लिए। कई बड़े लोग (किसी एक का नाम लिया तो बाक़ी लोग छोटा महसूस करने लगेंगे) जो फ्रेंड लिस्ट में हैं, उन्होंने भी टाइमलाइन पर विश किया तो मन हरा हो गया। कई महिला मित्रों के भी फोन आते रहे। कई-कई साल पुरानी दोस्त। कुछ ने प्यार किया। कुछ से प्यार रहा। सबसे नई प्रेमिका ने सबसे पहले फोन किया। सबसे पुरानी प्रेमिका का अब तक फोन नहीं आया। आने की उम्मीद भी नहीं है। पहले अफसोस करूं या खुश हो लूं, पता नहीं। ये सब आपकी ज़िंदगी में भी होता होगा। 
शादी के बाद का ये जन्मदिन एकदम अकेले गुज़रा। दो अकेले लोगों ने एक साथ गुब्बारे लगाए, केक काटा, फोटो भी खींची। महसूस भी किया कि बड़े होने का मतलब और अकेला होते जाना होता है। मेरी पत्नी कभी-कभी प्रेमिका की तरह पेश आने लगी हैं। फिलहाल आप सबके लिए दो-चार तस्वीरें शेयर कर रहा हूं। अपना ब्लॉग है तो कभी-कभी कविता-कहानी से हटकर भी कुछ बांटा जा सकता है। बचपना ही सही। है ना?


निखिल आनंद गिरि  

सोमवार, 23 जून 2014

धरती के सबसे बुरे आदमी के बारे में..

जबकि हर सेकेंड हर कोई ख़ुद को अच्छा होने या साबित करने में जुटा हुआ है, दुनिया दिन ब दिन और बुरी होती जा रही है. क्या कमाल है कि कोई बुरा होना नहीं चाहता. बुरा आदमी चाहे कितना भी बुरा हो कभी न कभी तो अच्छा रहा होगा. मगर बुराई का वज़न कम ही सही कद बहुत बड़ा होता है. अच्छा है मैं बुरा होना चाहता हूं

एक कहानी सुनिए. एक बुरे आदमी को ये तो पता था कि उसने कुछ ग़लत किया है मगर जज के सामने वो क़ुबूल करने को तैयार ही नहीं था. दरअसल जज पहले ही ये मान कर आया था कि इसे सज़ा सुनानी है तो सफाई में उस बुरे आदमी को कुछ भी कहने का मौका ही नहीं मिला. तो उसे बहुत कड़ी सज़ा सुनाई गई. इतनी कड़ी कि जज भी अपना फैसला सुनाकर रो पड़ा. ये जज का रोना सिर्फ बुरा आदमी ही देख पाया क्योंकि बुरा होने में रोने को समझना होता है. ख़ैर, सज़ा सुनाने के बाद जज और मुजरिम आपस में कभी नहीं मिले. बुरे आदमी को यकीन था कि जज कभी न कभी छिप कर उसे देखने ज़रूर आएगा.

जज इतना अच्छा था कि उसे हर मुजरिम बहुत प्यार करता था. जज के लिए सभी बुरे लोग एक जैसे थे जिनमें ये बुरा आदमी भी था. यही बात बुरे आदमी को नागवार गुज़रती थी और वो सबसे बुरा आदमी बन जाना चाहता था. यही बात जज को नागवार गुज़रती थी कि वो जिसे सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था, वो सबसे बुरा होता जा रहा था. ये कहानी जज की नहीं उस बुरे आदमी की है इसीलिए जज के बारे में इतनी ही जानकारी दी जाएगी.

तो उस बुरे आदमी को अपनी सज़ा काटते कई बरस बीत गए. धीरे-धीरे वह भूलने लगा कि उसे किस बात की सज़ा मिली है. उसे लगा कि वह जब से जी रहा है, ऐसे ही जी रहा है. उसे अपने बुरे होने पर कोई मलाल नहीं था, कोई सज़ा उसे कतई परेशान नहीं करती थी. वह भूल गया था कि कोई था जो उसे धरती का सबसे अच्छा आदमी बनाना चाहता था. वह अपना चेहरा तक भूल गया था.

उसका आइना कहीं खो गया था और उसे यह भी याद नहीं था. वह धीरे-धीरे दुनिया का सबसे बुरा आदमी बनता जा रहा था. सारे मौसम, सारे फूल, सारे रंगों से उसे नफरत थी.उसके सपने सबसे बुरे थे. उसकी सुबहें बहुत बुरी थीं. अंधेरे में वह ज़ोर ज़ोर से चिल्लाता था. लोग उसके आसपास भी जाने से डरने लगे थे.
वह दरअसल दुनिया का सबसे अकेला आदमी होता जा रहा था.
(कहानी अभी ख़त्म नहीं होनी थी मगर बुरे आदमियों के बारे में किसी अच्छे दिन ज़्यादा नहीं पढ़ा जाना चाहिए)

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 27 मई 2012

वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...

मैंने सब जुर्म याद रखे हैं...
मैंने सब कटघरे सजाए हैं...
कोई तो आए, सज़ा दे मुझको...

लोग कहते हैं अजब पूनम है...
चांद सूजा हुआ-सा लगता है...
तुमने फिर नींद की गोली ली क्या?

मैंने दुनिया से कुछ कहा भी नहीं
जाने क्या उसने सुना, रुठ गया...
वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...

देखो ना रिस रहा है आंखो से
एक रिश्ता कोई हौले-हौले
कोई 'चश्मा' भी नहीं आखों में !!

मैंने हर खिड़की खुली रखी है..
कोई परवाज़ भरे, लौट आए...
कल से हड़ताल है उड़ानों की...

मैं बुरा हूं तो मैं बुरा ही सही
आप अच्छे हैं, मगर भूल गए...
हमने बदले थे आईने कभी...

सारे आंसू नए, मुस्कान नई
ज़िंदगी में नया-नया सब कुछ..
बस कि गुम हैं पुराने कंधे...

होंठ सिलकर ज़बान की तह में
मैंने एक सच छिपाए रखा था
रात उसने ली आखिरी सांसे...

एक दिन ऐसे टूट कर रोये,
गुमशुदा हो गया ख़ुदा मेरा...
हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे...

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह...



तस्वीर में मैं हूं और मेरे बचपन का साथी मेरा बैट....
ज भी उस मकान में रखा मिला,
जहां बचपन का बड़ा हिस्सा गुज़रा.
ऊपर की फोटो ईटीसी मैदान की है, मेरा फेवरेट मैदान
 मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

जहां पहाड़ के ऊपर बसा है एक मंदिर
एक पत्थर को दूध से नहलाती भली-सी लड़की
मैं उसकी कलाई पे हौले से हाथ रखता हूं
और पहुंच जाती है मेरी छुअन पत्थर तक !
मैं मुस्कुराता हूं उस अजनबी लड़की के साथ
जिसने पहुंचाए हैं पत्थर तक मेरे जज़्बात..

जहां पत्थरों से भी ख़ुदा का रिश्ता था...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

वो एक घर जहां पाये की ओट में अब भी
पड़े हैं बैट, विकेट मुद्दतों से, मुरझाए...
सफेद रंग की बूढ़ी-सी झड़ती दीवारें
ज़रा-सा छू भी दूं तो रंग हरा हो जाए
सभी के नाम फ़कत नाम नहीं, रिश्ते थे
दुआ की शक्ल में माथे पे कितने बोसे थे

जहां की छत भी गले लग के रोई बरसों...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

यहां शहर में कोई आदमी नहीं मिलता
वहां गली में कोई अजनबी नहीं मिलता
वो किसी और ही मिट्टी से तराशे गए लोग
ऐसी मिट्टी कि चढ़ता ही नहीं और कोई रंग
वो एक बोली जो मीठी थी बिना समझे भी
जहां बाक़ी है नज़रों में अब तलक ईमान

जहां महफूज़ है रूह मेरी बरसों से...
मैं उस शहर से लौटा हूं अजनबी की तरह....

(हाल ही में रांची से लौटकर लिखी गई नज़्म......)

बुधवार, 9 नवंबर 2011

वो उजालों के शहर, तुम को ही मुबारक हों...

सहरा-ए-शहर में खुशबू की तरह लगते थे...
किस्से माज़ी के वो जुगनू की तरह लगते थे

हमने उस दौरे-जुनूं में कभी उल्फत की थी ,
जब कि ज़ंजीर भी घुँघरू की तरह लगते थे.

हर तरफ लाशें थी ताहद्दे-नज़र फैली हुईं
ज़िंदा-से लोग तो जादू की तरह लगते थे

ऊंगलियां काट लीं उन सबने ज़मीं की ख़ातिर
बाप को बेटे जो बाज़ू की तरह लगते थे...

मुझ को खामोश बसर करना था बेहतर शायद
हंसते लब भी मेरे आंसू की तरह लगते थे...

वो उजालों के शहर, तुम को ही मुबारक हों,
रात में सब के सब उल्लू की तरह लगते थे

दिन ब दिन रहनुमा गढते थे रिसाले अक्सर
चेहरे सब कलजुगी, साधू की तरह लगते थे
 
आज बन बैठे अदू कैसे मोहब्बत के 'निखिल'
वो भी थे दिन कि वो मजनू की तरह लगते थे
माज़ी - बीता हुआ कल
अदू - दुश्मन
 
निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 8 मार्च 2011

प्यार क्या है, हवामिठाई है...

1) हमको ग़ैरों में कर लिया शामिल,

बस इसी बात पर दावत दे दी..

और सुना है कि सब दोस्त आए...


2) हर ज़ुबां पर इसी के चर्चे हैं,


इसकी क़ीमत भी चवन्नी जितनी

प्यार क्या है, हवामिठाई है...


3) एक वादा कभी किया भी नहीं,

एक रिश्ता कभी जिया भी नहीं..

आदमी आदमी का भी नहीं


4) साल गुज़रें तो ये ज़रूरी नहीं

हम भी दिन के हिसाब से गुज़रें

हमसे मत पूछिए कि उम्र क्या है...


5) थोड़ी-सी चाय गिरी तो ये मेहरबानी हुई...


सूखे कागज़ में भी स्वाद रहा, मीठा-सा...

वो भी नज़्मों को ज़रा देर तलक चखता रहा...


6) उनके होठों पे थीं, मांए-बहनें

अपने लब पर तो मुस्कुराहट थी,

शहर चिढ़ते हैं, गांव हंसते हैं...


7) ज़र्रे-ज़र्रे में बंदिशे-मज़हब,

जब कभी पेट में भी बल जो पड़े...

याद आता है जनेऊ पहले,


8) एक ही रात में क्या जादू हुआ,

दिन सलीके से उगे, बाद उसके

उफ्फ! अंधेरे हैं मेहरबान बहुत...


9) मेरी तहरीर में असर उसका,

ये तो बरसों से होता आया है...

सच भी इल्ज़ाम हो गया अब तो...

 
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कच्ची उम्र की लड़कियां...


ये कविता तीन साल पुरानी है...मन हुआ शेयर की जाए, तो कर दिया...

कभी-कभी होता है यूं भी,

कि घर से कच्ची उम्र में ही भाग जाती हैं लड़कियां,

और पिता कर देते हैं,

जीते-जी बेटी की अंत्येष्टि...

हो जाता है परिवार का बोझ हल्का..


और कभी यूं भी कि,

बेटियां करती हैं इश्क

और पिता देते हैं मौन सहमति

ताकि बच सके शादी का खर्च,

बेटियां मन ही मन देती हैं

पिता को धन्यवाद...

और पिता भी दब जाता है

बेटी के एहसान तले....


कच्ची उम्र में मर्ज़ी से

ब्याह रचाने वाली लड़कियां,

सदी का सबसे महान इतिहास लिख रही हैं

इतिहास जिसका रंग न लाल है न गेरुआ,

इतिहास जिनमें उनका प्रेमी एक है,

पति भी एक

और भविष्य भी एक ही है....

उनकी आंखों में सबके लिए प्यार है

आमंत्रण रहित..


आप चाहें तो आज़मा लें,

अंजुरी-भर प्यार का आचमन

सिखा देगा जीवन को

अपना शर्तों पर जीने का शऊर...


कच्ची उम्र की लड़कियां

जो पैदा होती हैं

दो-तीन कमरे वाले घरों में,

दूरदर्शन या विविध भारती के शोर में

नीम अंधेरे में,

लैंप की मीठी रौशनी में

पढ़ती हैं,

कुछ रूटीन किताबें

और पवित्र चिट्ठियां..

शादी कर उतारती हैं पिता का बोझ,

बनती हैं माएं...


सच कहूं,

उनकी छाती में दूध होता है अमृत-सा,

अपना बहाव ख़ुद तय कर सकने वाली ये लड़कियां,

मुझे लगती हैं गंगा मईया...

जो कभी दूषित नहीं हो सकती...


इतिहास उन्हें कभी नहीं भूल सकता,

जिन्होंने अपनी मजबूर मांओं के साथ,

एक ही तकिये पर सिर रखकर सोते हुए,

रचा है नयी सदी का नया इतिहास

धानी रंग में...

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

इक था भरम के वास्ते...

इतना तबाह कर कि तुझे भी यक़ीं न हो,

इक था भरम के वास्ते, वो दोस्त भी न हो....


महफिल से वो गया तो सभी रौनकें गईं..

ऐसा न हो वो आए, मगर ज़िंदगी न हो


ठिठुरे हैं जो नसीब, उनका अलाव बन...

सूरज ही क्या कि सबके लिए रौशनी न हो


मेरी ही नज़र छीन ले, कोई शख्स क्यूं गिरे...

मौला तेरे किरदार में कोई कमी न हो...


तौबा कभी न चांद पर, हरगिज़ करेंगे इश्क

उतरे कहीं खुमार, तो पग भर ज़मीं न हो...


साए थे, शोर था बहुत, इतना सुन सका...

कंक्रीट के जंगल में कोई आदमी न हो...

 
मंज़िल मिली तो कह गए, बाक़ी है कुछ सफ़र

वो उम्र क्या कि उम्र भर आवारगी न हो


ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक

रोने के वक्त हंसने की बेचारगी न हो...

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे...

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....


अभी वक्त की मारामारी है,

कुछ सपनों की लाचारी है,

जगती आंखों के सपने हैं...

राशन, पानी के, कुर्सी के...

पल कहां हैं मातमपुर्सी के....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....


अभी वक्त पे काई जमी हुई,

अपनों में लड़ाई जमी हुई,

पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,

ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,

इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे.....


उम्र का क्या है, बढ़नी है,

चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...

घर में मां अकेली पड़नी है,

बाबूजी का क़द घटना है,

सोचूं तो कलेजा फटना है,

इक दिन टूटेगा......


उसने हद तक गद्दारी की,

हमने भी बेहद यारी की,

हंस-हंस कर पीछे वार किया,

हम हाथ थाम कर चलते रहे,

जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,

सर्वस्व समर्पण करते रहे,

तुम मोल समझ पाए ही नहीं,

ख़ामोश इबादत जारी है,

हर सांस में याद तुम्हारी है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे...


अभी और बदलना है ख़ुद को,

दुनिया में बने रहने के लिए,

अभी जड़ तक खोदी जानी है,

पहचान न बचने पाए कहीं,

आईना सच न दिखाए कहीं!

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे....


अभी रोज़ चिता में जलना है,

सब उम्र हवाले करनी है,

चकमक बाज़ार के सेठों को,

नज़रों से टटोला जाना है,

सिक्कों में तोला जाना है...

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का रोएंगे....


इक दिन नीले आकाश तले,

हम घंटों साथ बिताएंगे,

बचपन की सूनी गलियों में,

हम मीलों चलते जाएंगे,

अभी वक्त की खिल्ली सहने दे...

जब बांध सब्र का टूटेगा तब रोएंगे..


मां की पथरायी आंखों में,

इक उम्र जो तन्हा गुज़री है,

मेरे आने की आस लिए..

उस उम्र का हर पल बोलेगा....


टूटे चावल को चुनती मां,

बिन बांह का स्वेटर बुनती मां,

दिन भर का सारा बोझ उठा,

सूना कमरा, सिर धुनती मां....


टूटे ऐनक की लौटेगी

रौनक, जिस दिन घर लौटूंगा...

मां तेरे आंचल में सिर रख,

मैं चैन से उस दिन सोऊंगा,

मैं जी भर कर तब रोऊंगा.....


तू चूमेगी, पुचकारेगी,

तू मुझको खूब दुलारेगी...

इस झूठी जगमग से रौशन,

उस बोझिल प्यार से भी पावन,

जन्नत होगी, आंचल होगा....

मां! कितना सुनहरा कल होगा.....


इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....

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मंगलवार, 28 सितंबर 2010

मैं ज़िंदा हूं अभी...

मुझे टटोलिए,
हिलाइए-डुलाइए,
झकझोरिए ज़रा...
लगता है कि मैं ज़िंदा हूं अभी...

चुप्पी मौत नहीं है,
चीख नहीं है जीवन,
मैं अंधेरे में चुप हूं ज़रा,
भूला नहीं हूं उजाला...
ये शहर कुछ भी भूलने नहीं देगा...

नौ घंटे की बेबसी,
दुम हिलाने की....
फिर चेहरा उतारकर
गुज़ारते रहिए घंटे...

फोन पर मिमियाते रहिए प्रेमिका से,
उसे हर वाक्य के खत्म होते खुश होना है...
मां से बतियाने में ओढ लीजिए हंसी,
कितनी भी...
पकड़े जाएंगे दुख...

कुछ चेहरे हैं
जिनसे बरतनी है सावधानी...
कुछ नज़रें हैं..
जिन्हें पलट कर घूरना नहीं है..
दिन एक थके-मांदे आदमी की तरह है..
हांफ रहा है आपके साथ..
रात के आखिरी पहर तक...
बिस्तर पर लेटकर निहारते रहिए दीवारें..
क्या पता शून्य का आविष्कार,
इन्हीं क्षणों में हुआ हो..

26 साल की बेबस  उम्र
नींद की गोली पर टिकी है...
गटक जाइए गोली,
विश्राम लेंगे दुख...
बदलते रहिए केंचुल,
शर्त है जीने की...

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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जो घर में सबसे छोटा होता है, असल में उसका क़द घर में सबसे बड़ा होता है। जैसे सबसे छोटा बच्चा पूरे घर की धुरी होता है। ये पोस्ट मेरे दो साल के...