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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

अच्छे दिनों की कविता

गांधी सिर्फ एक नाम नहीं थे,
जिनके नाम पर तीन बंदर हुए
या बहुत-से आंदोलन

एक दौर थे जिसमे हुमारे दादा हुए

दादाजी कहते रहे हमेशा
'गांधीजी ने ये किया वो किया
उनकी मौत पर नहीं जला चूल्हा पूरे गाँव में
कोई औरत भेस बदलकर बचाती रही भगत सिंह को'

या फिर पिताजी को ही ले लीजिये
वो सुनाते हैं जब अपने दौर के बारे में
तो कई अच्छी बातें हैं बताने को
जैसे जब बारिश होती थी हुमचकर
उनके समय में
तो हेलीकाप्टर से खाना आता था उनके लिए
महामारी में मरते थे बच्चे
तो सरकार एक भरोसे का नाम थी।

जैसे नेहरू के भाषणों में पुलिस नहीं होती थी
या फिर इन्दिरा गांधी हाथी पर सवार होकर चलती थीं कभी कभी
घरों में चोरियाँ कम थीं
या फिर किसी ने बकरी चुरा भी ली
तो दो दिन दूह कर
लौटा आता था बकरी ।

सबके अपने अपने दौर थे
जैसे एक हमारा भी
जिस पर लिखी जा सकती है एक मुकम्मल कविता
जैसे जब जन्म हुआ मेरा
तो पुलिस वाले
दौड़ा-दौड़ा कर मारते थे सिखों को
और इन्दिरा गांधी की हत्या उनके घर में ही हुई
जैसा कि बी बी सी ने बताया

जब किताबों का दौर आया तो
धनंजय चटर्जी को सरेआम फांसी हुई
एक स्कूली लड़की से बलात्कार के जुर्म में
गांधी हमारे दौर की किताबों में नहीं
नोटों पर थे
और औरतें मदद करना तो दूर,
मदद मांग भी नहीं सकती किसी मर्द से।

इस तरह जितना बड़े हुए
जोड़ी जा सकती है एक और बुरे दिन की तारीख
कहीं बारिश नहीं होती ऐसी
कि डूबकर लिखी जा सके कविता
जैसे टैगोर लिखते रहे बारिश के दिनों में।

जितना बदलना था बदल चुका समय
अब सिर्फ़ होता है क्रूर
जिसमें परछाईं भी भरोसे के लायक नहीं।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 जनवरी 2015

विलोम का अर्थ

जहां से शुरू होती है सड़क,
शरीफ लोगों की
मोहल्ला शरीफ लोगों का
उसी के भीतर एक हवादार पार्क में
एक काटे जा चुके पेड़ की
सूख चुकी डाली पर
दो गर्दनों को षटकोण बनाकर
सहलाती है गौरेया अपने साथी को
और उड़ जाती है आसमान में
लीक तोड़ कर उड़ जाने में
मूंगफली तक खर्च नहीं होती।



एक ऐसी बात जो कही नहीं किसी ने
लोहे के आसमान में सुराख जैसी बात
आप सुनकर सिर्फ गर्दन हिलाते हैं
जुगाली करते हैं फेसबुक पर
छपने भेज देते हैं किसी अखबार में
और चौड़े होकर घूमते हैं सड़कों पर
जो सचमुच लड़ रहे होते हैं आसमानों से
कलकत्ता या छतीसगढ़ की ज़मीनों पर
आपके शोर में चुपचाप मर जाते हैं।



आप जिन दीवारों पर करते रहे पेशाब,
कोई वहां लिखता रहा था क्रांति
उसी दीवार के सहारे करता रहा आंदोलन,
भूखे पेट सोता रहा महीनों
एक दिन उसे पुलिस उठाकर ले गई
और गोलियों का ज़ायका चखाया
दीवारों ने बुलडोज़र का स्वाद चखा
और आप घर बैठे आंदोलन देखते रहे टीवी पर,


इस सदी का सबसे घिसा-पिटा शब्द है आंदोलन
अमिताभ बच्चन की तरह



जिस दिन आपके कुर्ते का रंग सफेद हुआ,
हमें समझ लेना चाहिए था
शांति और सत्ता विलोम शब्द हैं।



निखिल आनंद गिरि
(पहल पत्रिका के 98वें अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

पसीने की गंध

मैं भीड़ में पसीने से तर खड़ा था
आपने अचानक कार का दरवाज़ा खोल दिया
मैं थोड़े वक्त आपके साथ हो लिया
जैसे धूल चिपकी होती है चमकीली कार के साथ
जैसे अचानक एसी बंद हो जाने पर
पसीना होता है कलफ वाली कमीज़ के साथ।
जैसे कोई बीमा पॉलिसी बेच रहा एजेंट होता है
आपके एकदम साथ होने का भरम बेचते।
आप खामखा भरम में फूल गए जिस वक्त
कि मैं भी हो जाऊंगा आप जैसा
मैं अपने पसीने की गंध में
परिचय खोज रहा था अपना
मैं जिस भाषा में बात करता हूं
आपके नौकर, ड्राइवर या बहुत हुआ तो
गालियों का ज़ायका बढ़ाने के लिए आप भी,
टिशू पेपर की तरह इस्तेमाल करते हैं।
मेरे साथ लंबा वक्त गुज़ारना मुनासिब नहीं
हालांकि दरकिनार भी नहीं किया जा सकता
जूते पर पालिश की तरह
आपके बंगले तक पहुंचने के लिए
कचरे वाली आखिरी गली की तरह
देश के नक्शे पर उत्तर-पूर्व की तरह
आप सड़क पर गंदगी देखकर उबकाते हैं
ग़रीबी देखकर मुंह बिचकाते हैं
दुख देखकर बुद्ध हुए जाते हैं
सड़क की चीख-पुकार सुनकर
कार का स्टीरियो तेज़ चलाते हैं
मिली के दर्द भरे गाने बजाते हैं।
आपने मेरा पता पूछा था हंसते हुए,
और मैं हंसते हुए टाल गया था
दरअसल, आप जिस दिल्ली में मेरा पता ढूंढेंगे
उस दिल्ली में नहीं मिलते हम जैसे लोग
धूप का चश्मा पहनकर सूरज नहीं ढूंढते
हम दोनों साथ हैं
या हो सकते हैं
ये एक राजनैतिक भ्रम है
समानांतर रेखाएं कभी साथ नहीं हो सकतीं
लेकिन ऐसी रेखाएं होती ज़रूर हैं
जो कभी-कभी आपके माथे पर नज़र आ जाती हैं।


निखिल आनंद गिरि
(कविताओं की पत्रिका 'सदानीरा', मार्च-अप्रैल-मई 2014 अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

गांधी जी के नाम पर

हाथी घोड़ा पालकी
जय जय मोहन'लाल' की

गांधी जी गुजरात में
मोदी की हर बात में

गांधी जी अमरीका
मोदी के आगे फीका

गांधी जी के चेले,
नोट-लोट कर खेले

गांधी जी की लाठी
गुंडों की सहपाठी

गांधी जी की झाड़ू
झूमे पीकर दारू

गांधी जी की खादी
पहिने सब फ़सादी

सत्य अहिंसा नारा
मुल्क चीख कर हारा

गांधी जी के बंदर
घोटाले में अंदर

गांधी जी के नाम पर
छोड़ तमाशा काम कर

हाथी घोड़ा पालकी
जय जय मोहन'लाल' की

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 17 जून 2014

देने दो मुझको गवाही, आई-विटनेस के खिलाफ

बहुत पुराने मित्र हैं मनु बेतख़ल्लुस..फेसबुक पर उनकी ये ग़जल पढ़ी तो मन हुआ अपने ब्लॉग पर पोस्ट की जाए.आप भी दाद दीजिए.

अपने पुरखों के, कभी अपने ही वारिस के ख़िलाफ़
ये तो क्लीयर हो कि आखिर तुम हो किस-किस के ख़िलाफ़

इस हवा को कौन उकसाता है, जिस-तिस के ख़िलाफ़
फिर तेरा वो दैट आया है, मेरे दिस के ख़िलाफ़

मैंने कुछ देखा नहीं है, जानता हूँ सब मगर
देने दो मुझको गवाही, आई-विटनस के ख़िलाफ़

जब भी दिखलाते हैं वो, तस्वीर जलते मुल्क की
दीये-चूल्हे तक निकल आते हैं, माचिस के ख़िलाफ़

उस चमन में बेगुनाह होगी, मगर इस बाग़ में
हो चुके हैं दर्ज़ कितने केस, नर्गिस के ख़िलाफ़

कोई ऐसा दिन भी हो, जब इक अकेला आदमी
कर सके जारी कोई फरमान, मज़लिस के ख़िलाफ़

कितने दिन परहेज़ रखें, तौबा किस-किस से करें
दिलनशीं हर चीज़ ठहरी, अपनी फिटनस के ख़िलाफ़ 

हर जगह चलती है उसकी, आप गलती से कभी
दाल अपनी मत गला देना, कहीं उसके ख़िलाफ़

मनु बेतखल्लुस

रविवार, 8 जून 2014

दुनिया की आंखो से उसने सच देखा

दरवाज़े पर आया, आकर चला गया
सांसे मेरी सभी चुराकर चला गया.
मेरा मुंसिफ भी कैसा दरियादिल था,
सज़ा सुनाई, सज़ा सुनाकर चला गया.
दुनिया की आंखो से उसने सच देखा,
मुझ पे सौ इल्ज़ाम लगाकर चला गया.
अच्छे दिन आएंगे तो बुझ जाएगी,
बस्ती सारी यूं सुलगाकर चला गया.
उम्मीदों की लहरों पर वो आया था,
बची-खुची उम्मीद बहाकर चला गया.
ये मौसम भी पिछले मौसम जैसा था,
दर्द को थोड़ा और बढ़ाकर चला गया.

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 23 मार्च 2014

कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..

वोदका हाथों में है, योयो हमारे दिल में है,
कौन कहता है कि साला मुल्क ये मुश्किल में है..
गोलियां सीने पे खाने का ज़माना लद गया,
गोलियां खाने-खिलाने का मज़ा आई-पिल में है..
झोंपड़ी में रात काटें, बेघरों के रहनुमा,
कोठियां जिनकी मनाली या कि पाली हिल में है..
एक ही झंडे तले 'अकबर' की सेना, 'राम' की,
रंगे शेरों का तमाशा, अब तो मुस्तकबिल में है.
वक्त आया है मगर हम क्या बताएं आसमां,
कौन सुनता है हमारी, क्या हमारे दिल है..

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

नई पीढ़ी



हम पूर्णविराम के बाद अपनी बात शुरू करेंगे

चुटकुलों में कहेंगे सबसे गंभीर बातें,

एक कटिंग चाय के सहारे

हमें सुनने का हुनर ख़रीद लीजिए कहीं से।

 

हम कहेंगे कद्दू

तो आप समझ लीजिएगा

यह भी व्यवस्था के लिए एक लोकतांत्रिक मुहावरा है।

हम कहेंगे सियारों की राजधानी है कहीं

जंगल से बहुत दूर।

जहां लोग हेडफोन लगाते हैं,

मूंछें मुंडवाते हैं

और हुआं-हुआं करते हैं।

 

सिगरेट के धुएं में उड़ती फिक्र पढ़िए हमारी,

हमारी प्रेमिकाओं से बातें कीजिए थोड़ी देर

अंग्रेज़ी को हिंदी की तरह समझिए।

 

सत्ता सिर्फ आपको नहीं कचोटती,

मेट्रो की पीली लाइन के उस तरफ अनुशासित खड़ी हैं कुछ गालियां

उन्हें दरवाज़े के भीतर लाद नहीं पाए हम।

 

आपको ऐतराज़ है कि हमारे सपने रंगीन हैं,

मगर सच हो जाते हैं यूं भी सपने कभी।

ये मज़ाक में ही कही थी सपने वाली बात

कि संविधान की किताब को कुतरने लगे हैं चूहे

और खालीपन आ गया है कहीं।

 

जहां-जहां खालीपन है,

वहां संभावना थी कभी

संभावनाएं होती हैं खालीपन में भी,

देखिए कौन कर रहा हत्याएं

संभावनाओं की।
(यह कविता 'आउटलुक' के फरवरी 2014 अंक में प्रकाशित हुई है)
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 25 जनवरी 2014

ये मुल्क 'मॉकरी' है..छब्बीस जनवरी है..

छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

कहीं मूंछ की लड़ाई,
कहीं भेड़िया है भाई,
दुबकी-सी गिलहरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सच मारता है फांकी,
ये राजपथ की झांकी,
बस झूठ से भरी है..
छब्बीस जनवरी है..

हर सिम्त मातमपुर्सी,
फिर भी उन्हें है कुर्सी,
अपने लिए दरी है..
छब्बीस जनवरी है..

दाता मुझे बचा ले
मौला मुझे बचा ले..
इतनी पुलिस खड़ी है,
छब्बीस जनवरी है..

छप्पन किसी की छाती,
कोई नेहरू के नाती,
बापू की किरकिरी है..
छब्बीस जनवरी है..

सब 'आम' हो खड़े हैं..
बहुरूपिये बड़े हैं..
वोटों की लॉटरी है..
छब्बीस जनवरी है..

आए अगस्त जब तक,
सब मस्त फिर से तब तक,
ये मुल्क 'मॉकरी' है..
छब्बीस जनवरी है..
छब्बीस जनवरी है..

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 22 जनवरी 2012

पांड़े जी की प्रेमकथा और गांधी जी से सहानुभूति

कुछ लोग कहते हैं कि घर चलाना देश चलाने से भी ज़्यादा मुश्किल है। देश में आजकल कुछ भी अच्छा चल नहीं रहा। मां घर बहुत अच्छा चला लेती है। अगर मेरी मां के पास डिग्रियां होतीं तो वो शायद देश की राष्ट्रपति भी बन सकती थीं। अगर स्कूल में बच्चे बढ़ने लगें तो टीचर बढ़ा दिए जाते हैं। ज़्यादा टीचर ही नहीं, क्लास के भीतर भी दो-तीन मॉनिटर होते हैं। फिर देश तो इतना बड़ा है। जब मुल्क की आबादी तीस करोड़ थी तब भी देश में एक ही प्रधानमंत्री था। अब जब आबादी चार गुना बढ़ी है तो प्रधानमंत्री चार क्यों नहीं हुए। इतने बड़े देश में क्या आपको एक प्रधानमंत्री एक-चौथाई प्रधानमंत्री की तरह नहीं लगता। आप इसे किसी पार्टी के खिलाफ या पक्ष में चुनाव प्रचार का हिस्सा मत समझिए। इससे पहले कि चुनाव आयोग कोई कार्रवाई करे, मैं हाथ को दस्ताने से ढंककर घूमता हूं। भला हो दिल्ली की इस सर्दी का। वैसे, मेरा विचार है कि हाथी-बैल की मूर्तियां ढंकने से अच्छा, गांधीजी की ही मूर्तियां ढंक दी जाएं। सब प्रचार-दुष्प्रचार तो उन्हीं के नाम पर होता है और इतनी ठंड में भी उघाड़े बदन खड़े रहते हैं चौक-चौराहे पर।


मेरे एक दोस्त हैं। पांड़े जी। बड़े उदास, अकेले और अलग-थलग रहने वाले इंसान। इंटरनेट की दुनिया से कोसों दूर थे। हमने एक दिन चिकेन के लालच में उनके यहां वक्त गुज़ारा और फेसबुक का नया नया चस्का लगा दिया। तीन दिन बाद पूछा कि कैसे हैं पांड़े जी। तो बोले कि भाई आप महान हैं। इतने सारे दोस्त मिल गए हैं कि और कुछ सोचने का टाइम ही नहीं बचता। फिर शरमाते हुए बोले कि एक कन्या भी मिल गईं हैं फेसबुक पर। बस बात बढी ही है। मैंने कहा, मिल भी आइए। बोले, नहीं मिलने का कोई चांस नहीं। पासपोर्ट बनाना होगा। दो दिन बाद फिर फोन किया तो पता चला पासपोर्ट ऑफिस के पास खड़े हैं। फटाफट पासपोर्ट वाला जुगाड़ ढूंढ रहे हैं। सात दिन में पासपोर्ट हाथ में और फिर विदेश। हमने कहा कि विदेश जाने से पहले हमारे नाम पर एक मुर्गी की कुर्बानी तो बनती है। संडे को मुर्गी खाने पहुंचे तो देखा न मुर्गी है न पांड़े जी का रोमांटिक मूड। हमने पूछा क्या हुआ तो बोले कि अरे यार, ई फेसबुक अकाउंट डिलीट कर दीजिए हमारा। साला, बहुत गड़बड़ चीज़ है। एक हफ्ता टाइम बरबाद हो गया। जैसे ही प्रोपोज किए, ब्लॉक कर दिया हमको। हद्द है, बताइए, हम कोई ऐसा-वैसा आदमी हैं क्या। अगर कोई और है तो बता देती। हमको रोज़ चैट पर एतना टाइम क्यों देती थी। चूंकि पांड़े जी मुर्गी अच्छी पकाते थे, तो हमने उनका हौसला बढ़ाया और कहा, ‘’पांड़े जी, फेसबुक के आगे जहां और भी है...’’..

बहरहाल, पांड़े जी ने ठान लिया है कि अब इस फेसबुक पर अपनी प्रेम कथा की हैप्पी एंडिंग ढूंढ कर ही रहेंगे। हिंदुस्तान न सही, पाकिस्तान में ही सही। फेसबुक पर क्या पंडित, क्या मौलवी, सब एक ही स्टेटस के चट्टे-बट्टे हैं। यूं भी इस देश में धर्मनिरपेक्षता का आलम ये है कि 22 कैरेट पंडित के घर में भी बच्चे सलमान, आमिर या शाहरुख ख़ान बनने का सपना देखते हैं और मांएं फिर भी खुश होती हैं।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्ना का आंदोलन और साइड इफेक्ट्स...

वो बहुत दिनों से पब्लिसिटी के भूखे थे। दिल्ली के एक होटल में कमरा बुक कराकर रहते थे कि किसी एक दिन पार्टी का टिकट मिल जाए तो मशहूर हो जाएं। अन्ना ने दिल्ली आकर आंदोलन शुरू कर दिया तो उन्हें लगा कि उम्र भर की साध पूरी हो गई। इस एक आंदोलन में कूदने का मतलब उम्र भर की टीआरपी मुफ्त में मिल जानी थी। फिर क्या था, अन्ना अन्ना करते जा कूदे भीड़ में। मीडिया पहले से थी ही, तो कैमरे के आगे भी अन्ना अन्ना शुरू कर दिया। गलत-सलत उच्चारण के साथ एकाध कविताएं भी सुना डालीं। मीडिया को ऐसी कविताएं बहुत पसंद थीं, उन्होंने कवि महोदय को हाथों हाथ लिया और लगे हाथ स्टूडियो बुला लिया। अन्ना पड़े हैं आमरण अनशन पर। जिन्हें पब्लिसिटी चाहिए, उन्हें स्टूडियो मिल रहे हैं। एसी में पीने का पानी और खाने को स्नैक्स भी उपलब्ध हैं। किरण बेदी तो तीन बार कपड़े बदल चुकी हैं और आमरण अनशन में शामिल होकर इतनी खुश हैं कि पूछिए मत। मीडिया ज़िंदाबाद का नारा भी लगा चुकी हैं।


हमारी कॉलोनी में एक मजबूर पतिदेव रहते हैं। शिफ्ट खत्म करने के बाद वो घर लौटे तो पत्नी बिफर पड़ीं। पति महोदय को याद आया कि अरे, आज तो चिड़ियाघर ले जाना था बच्चों को। सॉरी सॉरी कहते रहे मगर पत्नी मानने को तैयार ही नहीं। अचानक टीवी पर जंतर मंतर की तस्वीरें दिखीं कि कोई बूढा आदमी अनशन पर है और वहां फिल्म से लेकर मीडिया की बड़ी बड़ी हस्तियां उपलब्ध हैं। पति ने फटाफट मुंह धोया और बच्चों को तैयार हो जाने का आदेश दिया। पत्नी को लगा कि पतिदेव का माथा खिसक गया है, मगर फिर भी तैयार हो ही गईं। बच्चों ने पूछा कि कहां जा रहे हैं तो पति ने कहा जंतर मंतर। बच्चे खुश हुए मगर पत्नी ने पूछा वहां क्यों। पतिदेव ने गियर तेज़ करते हुए कहा कि कोई अन्ना हैं वहां जिनको मरता हुआ देखने के लिए सब जा रहे हैं। थोड़ी देर रुकने पर मीडिया कवरेज के लिए पहुंच जाती है। बच्चों को ये सब समझ नहीं आया मगर कैमरे पर आने का सुख सोचकर वो चुप रह गए। पत्नी ने भी टाइमपास के लिए आंदोलन का हिस्सा बनना बुरा नहीं समझा। वो बहुत दिनों से चिड़ियाघर भी नहीं गई थी।

इधर फेसबुक पर वर्ल्ड कप के फाइनल की तस्वीरें अब तक टीआरपी बनाए हुए थीं। देशभक्ति के स्लोगन और पाकिस्तान-श्रीलंका को गालियां देकर एक से बढ़कर एक हिंदुस्तानी महान बनने की जुगत में थे। अचानक मुंबई से फेसबुक का ध्यान दिल्ली की ओर शिफ्ट हो गया। कोई अन्ना थे जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में मरने को तैयार थे। देश में भूख से मरने वालों की रिपोर्ट कई दिनों से टीवी पर चली नहीं थी, मगर अन्ना ने उन्हें सद्बुद्धि दी थी। फेसबुक पर फिर से देशभक्ति का बाज़ार गर्म है। अन्ना पर स्टेटस अपडेट करना फैशन है। हर कोई बहती गंगा में हाथ धोना चाहता है। कुछ न कुछ लाइफ में होते रहना चाहिए। साले एफएम वाले बोर करते हैं अब। एक ही जैसे चुटकुले सुनकर ज़िंदगी भर हंसा तो नहीं जा सकता। टीवी पर बड़े बड़े फांट में अखबार पढ़पढ़कर आंखे बाहर होने लगी हैं। दिल्ली को कुछ नया चाहिए। रंग दे बसंती टाइप। तो अन्ना हैं ना। अंग्रेज़ी में कहें तो ऑसम (AWESOME) माहौल है जंतर-मंतर पर। मनमोहन सरकार का इससे कुछ उखड़ेगा या नहीं, ये कहना जल्दबाज़ी होगी, मगर दिल्ली के लिए अन्ना किसी सुड या लव गुरू से ज़्यादा बेहतर टाइमपास हैं। कम से कम वहां जाने पर लगता है कि कुछ किया है। गर्लफ्रेंड के साथ वहीं बैठ लिए थोड़ी देर तो इंप्रेशन भी अच्छा जमता है। फेसबुक पर अपील हो रही है कि अन्ना के लिए चले आइए। उस एक नेक बूढे आदमी के लिए चले आइए। प्लीज़ चले आइए। क्योंकि एक अन्ना मरे तो हज़ार अन्ना पैदा नहीं होने वाले। कम से कम दिल्ली में स्वार्थ की गुटबाज़ी के सिवा कोई जमात नहीं बनती, इतना तो सबको पता है। मुझे भी...

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 5 जनवरी 2011

ठूंठ पीढ़ियां, बेबस माली...

जिन पेड़ों ने फल नहीं दिए,

उन्हें भी सींचा गया था सलीके से

भरपूर खाद-पानी और देखभाल के साथ..

हवा भी उतनी ही मिली थी उन्हें,

जितनी बाक़ी पेड़ों के नसीब में थी....

उम्मीद के लंबे अंतराल ने दिया

माली को ठूँठ पेड़ों का दुख..


ये दुख नहीं बना चर्चा का विषय

बुद्धू बक्से के बुद्धिजीवियों के बीच

या किसी भी अखबार के पन्ने पर,


पीढ़ी दर पीढ़ी उगते रहे ठूंठ

और घेरते रहे जगह,

फलदार पेड़ों के बरक्स....


फलदार पेड़ों को क्या था..

झूमकर लहराते रहे अपनी किस्मत पर....

ठूंठ पेड़ों से बिना उलझे,

मुंह घुमाकर समझते रहे,

कि हर ओर हरी है दुनिया....


उधर मालियों ने फिर भी सींचा,

नए बीजों को, नई उम्मीद से...

जब तक नीरस नहीं हुई पूरी पीढ़ी...


फिर बेबस मालियों ने सोचा उपाय

ठूंठ पेड़ों से कुछ काम निकाला जाये..

गर्दन में फंसाकर फंदे,

वो झूल गए इन्हीं पेड़ों पर...

और थोड़े-से फलदार पेड़ देखते रहे

अपनी तयशुदा मौत का पहला भाग...


काश! फलदार पेड़ों ने किया होता प्रतिरोध

ज़रा-सा भी,

तो ठूंठ पेड़ों में फल तो नहीं आते,

मगर वो समय रहते शर्म से

टूटकर गिर ज़रूर जाते,


ज़िंदा रहते माली

ताकि,

फलदार पेड़ों की भी हरी रहती डाली....


निखिल आनंद गिरि

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सोमवार, 3 जनवरी 2011

कंपकंपाती ठंड में मल्टीप्लेक्स की 'मिर्च' का मज़ा...

फिल्म की शुरुआत में ही रिलायंस ग्रुप का बोर्ड लगा दिखे तो ये चिंता दूर हो जाती है कि आप जिस फिल्म को देखने जा रहे हैं, वो बेहद तंगहाली में बनाई गई होगी, इसलिए अच्छी हो या बुरी, निर्देशक के साथ सहानुभूति ज़रूर रखी जानी चाहिए। विनय शुक्ला कोई नए डायरेक्टर नहीं हैं...अवार्ड विनिंग फिल्में बनाना उनका मकसद रहा है और इस लिहाज से ये फिल्म भी सफल करार दी जानी चाहिए। ये अलग बात है कि मेरे साथ हॉल में फिल्म देखने वाले सिर्फ चार लोग ही और थे। चार से याद आया, फिल्म का नाम चार कहानियां भी रखा जा सकता था, क्योंकि इसमें क्रेडिट्स आने तक चार अलग-अलग मगर एक जैसी कहानियां चलती हैं।

मुंबई में संघर्षरत एक फिल्म राइटर अपनी गर्लफ्रेंड के संपर्क से एक प्रोड्यूसर से मिलता है और उसे अपनी वो कहानी सुनाता है, जिस पर दो सालों से वो फिल्म बनाने की सोच रहा है....फिल्म में संघर्ष आगे बढ़ना है इसलिए कहानी रिजेक्ट हो जाती है...खैर, वो दूसरी कहानी ढूंढता है, जिसमें प्रोड्यूसर के मनमाफिक बिकाऊ सेक्स भी होता है। इस दूसरी कहानी में चार कहानियां हैं, कुछ औरतें हैं, मर्द हैं और शरीर की हेराफेरी है। जो आदर्शवादी कहानी रिजेक्ट होती है, वो क्या थी, इसका पता ग्यारह मुल्कों की पुलिस भी नहीं लगा सकती। बस, वो अज्ञात कहानी हज़ारों-लाखों फिल्म लेखकों के ज़ख्मों को सहलाने का काम कर जाती है, जो बिहार से लेकर बंबई (वाया दिल्ली) तक एकाध स्क्रिप्ट लिए गुलज़ार बनने का ख्वाब पाले बैठे हुए हैं।

फिल्म में पंचतंत्र से लेकर इटालियन लोककथाओं तक के तमाम रेफरेंसेज़ हैं। यही फिल्म की जान भी हैं। कहानी आगे बढ़ाने का तरीका कहीं से कमज़ोर नहीं है। कहानी के भीतर कई कहानियां चलती हैं और इस तरह से ग्रिप बना रहता है। बेहद खूबसूरत लोकेशन्स और कसे हुए संवादों के बीच कहानी कहीं छूटती नहीं और नारी-विमर्श का सबसे प्रचलित रूप भी ठीकठाक आगे बढ़ता है। जैसा कि विनय कई जगह दावा करते हैं कि ये वुमैनहुड (नारीत्व) का उत्सव है, लगभग सही ही लगती है। मगर, ये उत्सव बौद्धिकता की आड़ में मसाला फिल्म ही बनकर रह जाता है। पंचतंत्र से लेकर राजा-रजवाड़ों और फिर मुंबई की अफरातफरी वाली ज़िंदगी में लड़की के लिए शरीर का जुगाड़ कभी मुश्किल नहीं रहा। ये फिल्म शक, अफवाहों और साज़िशों के बीच हर बार यही बात साबित करती दिखती है। एक कमज़ोर दिल का दर्शक अगर ढंग से ये फिल्म देखना शुरू करें तो बगल में बैठी प्रेमिका उसे मांस के टुकड़ों वाली लड़की से ज़्यादा कुछ नहीं लगेगी, ‘वेश्या’ तक लग सकती है। हर औरत इतनी चालू, चालबाज़ और चालाक लगने लगे कि भोलाभाला दर्शक मान बैठे कि सिर्फ शरीर के उत्सव का जुगाड़ ढूंढने में ही औरत कितनी ओवरस्मार्ट हो सकती है। कम से कम नारी की आज़ादी का उत्सव मनाने का ये मकसद तो नहीं ही होना चाहिए कि हर मर्द को मानसिक रूप से इतना बीमार दिखाया जाए कि उसे अपने होने पर शर्म आने लगे। विभूति नारायण राय को फिल्म दिखाकर नए साल में पूछा जाना चाहिए कि नारी को लेकर उनका संकल्प कुछ बदला कि नहीं।

आखिर तक आते-आते फिल्म थोड़ी लंबी और उबाऊ लगने लगती है। आखिरी कहानी तो बेहद चलताऊ किस्म की है, जिसमें एक अधेड़ पति होटल बुक करता है और लड़की की डिमांड करता है तो उसकी बीवी ही परोस दी जाती है। यहां तक की मजबूर औरतें तो हम पहले भी देख चुके हैं मगर कॉमिक ट्विस्ट ये है कि बीवी एक पेड सेक्स वर्कर होती है और रूमसर्विस वाले लड़के पर झल्लाती है कि साले, क्लाइंट देखने से पहले दिमाग तो लगा लिया कर। बोमन इरानी और कोंकणा सेन के नाम पर ये सीन बिना उल्टी किए हजम कर सकते हैं, वरना सड़क पर बीसियों रसीली कहानियों वाली किताबें पड़ी मिलती हैं।

गाने और एक्टिंग के मामले में पूरी फिल्म में कोई दिक्कत नज़र नहीं आती। जावेद अख्तर आखिर तक अपने लिए गुजाइश निकाल जाते हैं। ये हिंदुस्तानी गीत ही हैं जो तमाम तरह के नकल और इंस्पिरेशन से बनी हुई फिल्मों के दौर में देसी और ओरिजिनल लगते हैं। मंजे हुए एक्टर्स के दम पर ही फिल्म वैसे दृश्य भी आसानी से निकाल ले जाती है जो किसी दबंग या तीसमारखां टाइप निर्देशक के हाथ में पड़कर सचित्र सेक्स कहानी बन सकती थी।

अभिनेत्री इला अरुण यहां भी हैं...उनकी आवाज में गाए गीत नारी मुक्ति के बिंदास स्लोगन की तरह लगते है। फिल्म में इला अरुण के संवाद और गीत से न जाने क्यों खलनायक का वो गीत चोली के पीछे क्या है...याद हो आता है जब माधुरी दीक्षित पहली बार लेडी महानायिका बनकर उभरी थी और सचमुच मर्दप्रधान बॉलीवुड में नारी उत्सव मनाया जाना चाहिए था। खैर, वो उत्सव तो गाने को लेकर मची तोड़फोड़ में भंग हो गया।

बतौर फिल्मकार, विनय शुक्ला का चिंतन सीरियस है। फिल्म में कोई आमिर, शाहरूख या सलमान तक होते तो शर्तिया लाखों दर्शक टूट पड़ते क्योंकि उनके लिए बहुत कुछ तीखा है पूरी फिल्म में। इस तरह कह सकते हैं कि ये अपने दौर से काफी आगे की फिल्म है। ऐसी फिल्में बार-बार बनाई जानी चाहिए कि फैमिली ड्रामा के नाम पर फूहड़ फिल्में देखने का आदी हो चुका हिंदुस्तानी दर्शक अपने भीतर छिपे एक बुद्धिमान दिमाग को ढूंढ निकाले। हिंदुस्तान में मल्टीप्लेक्स तो आ गया है, मगर उस माइंडसेट वाले दर्शक अब भी आने बाक़ी हैं। कम से कम पूरी फैमिली के साथ तो नहीं ही आ सकते। अभी तक तो मल्टीप्लेक्स का दर्शक उसी घिसे-पिटे मर्दाना डायलॉग्स पर तालियां पीटता है, जब बड़े पर्दे का सुपरस्टार और छोटे पर्दे का शेफ ये कहता हुआ ‘तीसमारखां’ बनता है कि उसे पकड़ना और तवायफ की लुटती हुई इज़्ज़त बचाना नामुमकिन है।

निखिल आनंद गिरि
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