शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

लाशों के शहर में...

कभी-कभी लगता है
फट जाएंगी नसें...
सिकुड़ जाएगा शरीर,
खून उतर आएगा आंखों में...

हम पड़े होंगे निढ़ाल,
अपने-अपने कमरों में...
कोई नहीं आएगा रोने,
हमारे लाशों की सड़ांध पर,
अगल-बगल पड़ी होंगी
अनगिनत लाशें....

शहरों के नाम नहीं होंगे तब,
लाशों के शहर होंगे सब
फिर हम बिकेंगे महंगे दामों पर,
हम माने, हमारी लाशें...
नंगे, निढ़ाल  शरीर की
लगेंगी बोलियां...

हमारी चमड़ी से अमेरिका पहनेगा जूते..
हमारी आंखों से दुनिया देखेगा चीन...
किसी प्रयोगशाला में पड़े होंगे अंग
वैज्ञानिक की जिज्ञासा बनकर...
तुम देखना,
कितनी महंगी होगी मौत...
इस ज़िंदगी से कहीं बेहतर...
दो कौड़ी की ज़िंदगी....
तुम्हारे बिन.....

निखिल आनंद गिरि

5 टिप्‍पणियां:

  1. अज की राजनिती पर मन का आक्रोश खूब झलक रहा हैांच्छी लगी रचना। शुभकामनायें।

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  2. ऐसी पोस्ट पर आने वालों की संख्यां कुछ कम ही होती है, यहां भी वही हाल है। उस्ताद जी, ज़रा एक फेरा लगा आइए…
    "लाशों के शहर में..." भी।
    १० से कम दिया तो … ! आप जो भी दें, मैं तो १० में १० देता हूं।

    जवाब देंहटाएं
  3. poori kavita padh kar aisa lagta hai koi bahut stron social nazm hai
    दो कौड़ी की ज़िंदगी....
    तुम्हारे बिन.....
    par ye alfaaz padh kar kavita ka rukh palat diya apne..
    kafi uljhi hui mane behtareen kavita kahi hai. ek dum khanti.

    जवाब देंहटाएं
  4. is'se pehle ke mujhe copy cat kaha jaaye...ek baat keh doon...deepali aur main bohot bohot bohot acche dost hain, aur ek hi jamaat ke shayar hain...hamaara nazm dekhne ka nazariya na jaane kyun bohot milta hai....bas ye ke vo hamesha mujhse pehle yaha aa jaati hai ;) hihi...deep if ur reading this...well, whatever ;)

    par wahi laga mujhe bhi...nazm bohot bohot 'dardful' hai...mere liye thodi strong dose ho jaati hain ;) par haan,kabhi kabhi itna aakrosh aata hai mann mein, bas main use likh nahin paati. aap likh paate hain...its really great ! aur last line to bas...bohot bohot acchi thi...bilkul qaatil

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