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शनिवार, 16 जून 2012

फादर्स डे पर 'फरारी का सवारी' कर आइए...

अगर आप मेरी उम्र में हैं तो मुझे पक्का यक़ीन है कि आपको याद नहीं आपने आख़िरी बार अपने पिता से ज़िद करके अपनी कोई डिमांड कब पूरी की है। कई बार कहते-कहते ज़ुबान लड़खड़ा जाती है क्योंकि हमें लगने लगता है कि हम बड़े हो गए हैं और पिता बूढ़े। हालांकि, ये अंतर पहले भी था लेकिन पहले आप बचपन में थे और पिता युवा। तो ये बचपन बड़ा निर्दोष होता है, जो आपसे ज़िद करवाता है, आपके युवा पिता को लंबी उम्र देता है और हमें भूलने की आदत।

शहरों में कमाने-खाने (नाम कमाना भी शामिल) आए हम जैसों के लिए पिता को तीन घंटे लगातार याद करना पसंदीदा हॉबी नहीं रही। इससे बेहतर हम कहीं फोन या फेसबुक या किसी मॉल में वक्त गुज़ार  देना चाहते हैं। ऐसे ही दर्शकों के लिए विधु विनोद चोपड़ा उन्हीं मॉल्स के भीतर 'फरारी की सवारी' लेकर आए हैं।निर्देशन उनका नहीं है, मगर छाप पूरी है। फिल्म की कहानी से लेकर किरदार 'फादर्स डे' वाली पीढ़ी के लिए ही गढ़े गए लगते हैं। मगर, हर तरह का दर्शक एक बार ये फिल्म ज़रूर देख सकता है।

आपको ताज्जुब हो सकता है कि फिल्म में कोई हीरोइन नहीं है, मगर इसमें ताज्जुब जैसी कोई बात होनी नहीं चाहिए। 'उड़ान' को अब तक आप भूले नहीं होंगे। वो भी बिना हीरोइन के, एक बाप-बेटे वाली ही कहानी थी, मगर इस वाली कहानी से बिल्कुल अलग। वहां बेटा बाप से पीछा छुड़ाकर भाग रहा होता है और यहां बाप बेटे की हर खुशी के लिए भाग रहा होता है। हालांकि, उड़ान का स्तर इस फिल्म से बहुत आगे का था। वो एक चुप-सी गंभीर कविता थी और ये किसी बच्चे की ज़ुबान से बोलती हुई भोली कविता।

'फरारी की सवारी' देखना इसीलिए ज़रूरी है क्योंकि इस फिल्म के पास हमारे समाज ढेरों उम्मीदें हैं। वो चाहती है कि हम किसी के देखे बगैर भी ट्रैफिक सिग्नल तोड़ें, तो जुर्माना ज़रूर भरें। वो चाहती है कि कर्ज़ का इंतज़ाम  उनके लिए सबसे ज़्यादा होने चाहिए जिन्हें सचमुच इसकी ज़रूरत है। जिनकी सैलरी पहले ही ज़्यादा है, उसे कर्ज़ की क्या ज़रूरत। हमारे आदर्शों को ऐसे भोलेपन के साथ फिल्म में रखा गया है कि आपको ये बच्चों की फिल्म लग सकती है। ऐसी आदर्श दुनिया का ख़याल भी सचमुच बचपना ही लगता है, मगर थ्री इडियट्स जैसी स्टारकास्ट के साथ फिल्म बना चुके विधु एक नए निर्देशक राजेश मपुस्कर के साथ अगर भोली फिल्मों पर पैसा लगाने को तैयार हैं, तो उन्हें दाद देने हॉल ज़रूर जाना चाहिए। असली दुनिया में इस आइडियलिज़्म और फीलगुड की तलाश एक बेहतर सिनेमा ही कर सकता है। क्रेडिट कार्ड और नेटबैंकिग के ज़माने में गुल्लक फोड़कर बेटे की खुशी के लिए पैसे इकट्ठा करता मुंबई का एक पिता एक फिल्म की कल्पना में ही मिल सकता है।

क्रिकेट और इससे जुड़े तमाम सपनों को लेकर 'फरारी की सवारी' उतनी ही चंचल फिल्म है, जितना एक बच्चे की नज़र से हो सकती है। शरमन जोशी, बोमन इरानी और नन्हें कलाकार ऋत्विक की तिकड़ी ने इतना इमानदार अभिनय किया है कि आप थोड़े वक्त के लिए बिना किसी अन्ना इफेक्ट के लिए इमानदार होना चाहेंगे। विद्या बालन के नाम एक मराठी लावणी आइटम सांग है, जिसे आप देखना चाहेंगे। लगभग सवा दो घंटे की फिल्म होशियार हो चुके दर्शकों के लिए थोड़ा बोरिंग ज़रूर हो सकती है, मगर बाप-बेटे की दो जोड़ियों (शरमन और ऋत्विक, बोमन और शरमन) के बीच आपको एक न एक बार अपने पिता ज़रूर याद आएंगे। अगले हफ्ते आ रही 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' जैसी लाउड फिल्म से पहले मन के भीतर का शोर कम करना बेहद ज़रूरी है।

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 4 दिसंबर 2011

हर शरीफ आदमी को 'डर्टी पिक्चर' ज़रूर देखनी चाहिए...

क्या इत्तेफाक है कि 'रॉकस्टार' और 'द डर्टी पिक्चर' के रिलीज़ होने की तारीखें लगभग अगल-बगल थीं। रॉकस्टॉर जहां छूटती है, 'डर्टी पिक्चर' उसी दर्शन (फिलॉसफी) को ठीक से पकड़ लेती है। रॉकस्टार के जनार्दन (रणबीर) को ज्ञान मिलता है कि ज़िंदगी में रॉकस्टार बनना है, बड़ा बनना है तो दर्द पैदा करो, ट्रैजडी से ही मिलेगी कामयाबी। फिर रणबीर जैसे-तैसे एक ट्रैजडी ढूंढ पाते हैं और रॉकस्टॉर बनते हैं। इधर डर्टी पिक्चर में रेशमा (विद्या बालन) को ट्रैजडी ढूंढनी नहीं पड़ती। वो ख़ुद ही एक ट्रैजडी है क्योंकि वो एक औरत है। ग़रीब है, ख़ूबसूरत भी नहीं है और सपने बड़े हैं। रेशमा को मालूम है कि इस 'मर्दाना' समाज की जन्नत अगर है तो औरत के कपड़ों के भीतर है तो वो अपनी ट्रैजडी का जश्न कपड़े उतारकर मनाना शुरू करती है। वो फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े सुपरस्टार(नसीरुद्दीन शाह) को साफ कहती है कि अब तक आपने 500 लड़कियों के साथ 'ट्यूनिंग' की होगी, मैं अकेली आपके साथ पांच सौ बार 'ट्यूनिंग' करने को तैयार हूं। फिर रेशमा को सिल्क बनने से कौन रोक सकता है। सिल्क यानी फिल्मी पर्दे पर 'सेक्स की देवी' जिसके दर्शन करने के लिए लोग टिकट ख़रीदते हैं और बाकी फिल्म को उसके हाल पर छोड़ जाते हैं। इंटरवल से पहले तक फिल्म एक तरह से देह का उत्सव है। बगावत का वो फॉर्मूला जो पूरी दुनिया हर दौर में अलग-अलग तरीकों से अपनाती रही है।
इंटरवल से पहले आप उस रेशमा को सिल्क बनते बार-बार देखना चाहेंगे क्योंकि वो एक गहरे दलदल में धंसकर भी कमल की तरह साफ लगती है। वो जो करती है, पूरी ठसक के साथ। मर्दानगी को मुंह चिढ़ाती हुई। जब फिल्म कहती है कि बड़े-बड़ों ने मुंह काला कर के ही नाम कमाया है, तो लगता है ये सिर्फ 80 के किसी संघर्ष की ग्लैमरस दास्तान नहीं, हर दौर का सच है। नैतिकता (MORALITY)के मुंह पर कालिख पोतती हुई फिल्म आगे बढती रहती है। नैतिकता का नारा बुलंद करते एक जुलूस का हिस्सा बनी एक औरत के हाथ में पोस्टर है CINEMA'S LOWEST LOW..और इसका इल्जाम भी एक औरत सिल्क पर! फिल्म का बेहतरीन दृश्य। ऐसे कई सीन हैं, जहां आप लंबी सांसे भरकर फिल्म को आगे बढ़ने देते हैं और यकीन मानिए वो सीन बिस्तर पर फिल्माए नहीं गए।


नसीरुद्दीन साहब जैसे बेहतरीन अभिनेता के लिए एक साधारण फिल्म में भी हमेशा कुछ न कुछ बचा ही रहता है। वो न होते तो विद्या बालन अकेले ही फिल्म की सारी वाहवाही लूट जातीं। विद्या बालन इस दौर की एक ऐसी खोज हैं जिसे हिंदी सिनेमा कई बार इस्तेमाल करना चाहेगा। क्या कमाल की एक्टिंग है। बेशक आप इंटरवल के बाद उठकर चले आइएगा, लेकिन विद्या के लिए ये फिल्म ज़रूर देखें। बिस्तर पर पड़ी सिल्क नसीरुद्दीन शाह के साथ 'ट्यूनिंग' कर रही है और अचानक दरवाज़े पर उनकी बीवी दस्तक देती है। नसीर सिल्क को छिप जाने के लिए कहते हैं। फिर बीवी अंदर आती है। फिर बाथरूम में छिपी सिल्क दरवाज़े के सुराख से झांककर देखती है कि कैसे एक मर्द तुरंत पति बन जाता है और नैतिकता (morality) भोलेपन से बिस्तर पर पड़ी रहती है। 'गंदी' सिल्क के पास अब दुनिया में वापस दाखिल होने के लिए बस एक चोर दरवाज़ा ही होता है। ख़ुद की 'असलियत' पहली बार उस छोटी सी रोशनी से साफ दिखती है और फिर आखिर तक दिखती है। उस अमीर कार के काले शीशे पर भी जब वो एक पॉर्न फिल्म से  बचते-बचाते भाग रही होती है या या फिर जब एक तरफ सिल्क के पीछे पूरा हुजूम होता है और दूसरी तरफ आधे खुले दरवाज़े पर खड़ी मां। सिल्क को भीड़ नहीं मां का प्यार चाहिए, मगर उसे मां नहीं मिलती, सिर्फ भीड़ मिलती है।
ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक
रोने के वक्त, हंसने की बेचारगी न हो....
इंटरवल के बाद फिल्म में इमरान हाशमी एक साफ-सुथरे कुएं में भांग की तरह हैं। पूरी फिल्म का ज़ायका ख़राब कर देते हैं। फिर अचानक आपको होश आता है कि धत तेरे की, हम एकता कपूर से किसी मास्टरपीस की उम्मीद कैसे करने लगे थे। इमरान हाशमी 'अच्छी, साफ-सुथरी' फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर की भूमिका में वैसे ही लगते हैं जैसे कोई आपसे सरदारों वाला मज़ाक करे और आपको हंसी भी न आए। ऐसा लगता है जैसे इंटरवल के बाद और पहले की फिल्में दो अलग-अलग फिल्में हैं। जैसे फिल्म बनाने वालों को अब भी ये भरोसा नहीं था विद्या और नसीर जो जादू कर चुके हैं, उतना एक फिल्म को हिट करने के लिए काफी होगा। उन्हें अब भी विद्या से ज़्यादा इमरान पर भरोसा है। इस भरोसे से हिंदी सिनेमा जितनी जल्दी उबरेगा, हम एक मुकम्मल फिल्म की उम्मीद कर सकेंगे।

रजत अरोड़ा को आप ONCE UPON A TIME IN MUMBAI में सुन चुके हैं। डायलॉग्स का वही जादू यहां भी होलसेल में मिलता है। आप कौन सा डायलॉग अपने साथ घर लेकर जाएं, समझ नहीं आता। ''जब शराफत अपने कपड़े उतारती है तो सबसे ज़्यादा मज़ा शरीफों को ही आता है।'' हालांकि, रजत को भी अपनी अच्छी कलम पर भरोसा नहीं है, इसीलिए वो 'अगर सिल्क दुनिया की आखिरी लड़की होती, तो मैं नसबंदी करा लेता' जैसे फूहड़ डायलॉग्स का भी सहारा लेते हैं।

पता नहीं हाल की कुछ फिल्मों को क्या हो गया है। वो शुरु होते-होते बहुत ठीकठाक लगती हैं और फिर ख़ुद में ऐसे उलझ जाती हैं कि आखिरी घंटा झेलना मुश्किल हो जाता है। हम सिल्क को 'जीतते' हुए देखना ज़्यादा पसंद करते। ठीक है कि फिल्म किसी पुरानी एक्ट्रेस 'सिल्क स्मिता' की कहानी पर आधारित है जिसने आखिर में खुदकुशी ही की थी। लेकिन क्या हम फिल्म की आज़ादी का इस्तेमाल कर सिल्क को एक औरत की तरह नहीं देख सकते, जिसके लिए खुदकुशी से भी बेहतर रास्ते होते। ग्लैमर क्या हर बार ग्लानि पर ही ख़त्म होता है। क्या सचमुच ये चमचमाती रौशनियां उसी मोड़ पर ले जाकर छोड़ती है जहां सिर्फ मायूसी है और ज़िंदगी महसूसने का आखिरी मौका। सिल्क को फिल्म के ज़रिए एक बेहतर ज़िंदगी मिलती तो शायद ज़्यादा अच्छा लगता। शायद मर्लिन मुनरो, मीना कुमारी, परवीन बाबी, विवेका बाबाजी जैसी कई दर्द भरी कहानियों पर मरहम जैसा असर करतीं।

मगर नही, फिल्म बनाने के लिए जिन तीन चीज़ों की ज़रूरत है, वो ज़रूरत पूरी की जा चुकी है। और वो ज़रूरत है Entertainment, Entertainment और Entertainment। फिल्म बनाने वालों को लगता है कि सिल्क की कहानी में इतना दिमाग खुजाने की ज़रूरत ही क्या है, जब पब्लिक कहीं और खुजाना चाहती है।

निखिल आनंद गिरि

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