शनिवार, 19 दिसंबर 2009

देखना तुम...

ये बदहवासी से ठीक पहले के क्षण हैं,

मेरी पीठ पर पटके जा रहे हैं कोड़े

कि मेरी रीढ़ टूट जाए...

वो मुझे सांप बना देना चाहते हैं,

कि मैं रेंगता रहूं उम्र भर...

उनकी बजाई बीन पर...

ये बदहवासी से ठीक पहले की घड़ी है..

मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने वाला है...

इस एक पल को जीना चाहता हूं मैं...

करना चाहता हूं सौ तरह की बातें तुमसे...

खोलना चहता हूं मौन की मोटी गठरी..

तुम कहां हो??

मैं चीख रहा हूं ज़ोर-ज़ोर से...

शायद आवाज़ कहीं पहुंचेगी...

कोड़े खाने के फायदे हैं बहुत..

ये चीख मुझे गूंगा कर देगी देखना.....

मेरे पांवों में बांध रखी हैं,

समय ने कस कर बेड़ियां...

मैं भूलने लगा हूं

अपने बूढ़े पिता का चेहरा...

ये बदहवासी के पहले की आखिरी घड़ी है....

मां याद है मुझे,

पसीना पोंछती मां,

बेटों की डांट खाती मां...

तुम कहां हो,

तुम्हें छूना चाहता हूं एक बार..

हाथ भूल गए हैं स्पर्श का स्वाद...

मैं पीछे मुड़कर दबोच लेना चाहता हूं कोड़ा,

मगर ऐसा कर नहीं सकता..

मैं बदहवास होने लगा हूं अब...

मुझ पर और कोड़े बरसाए जाएं..

मुझे प्यास लग रही है,

मैं चखना चाहता हूं आंसू का स्वाद..

ये बदहवासी के आंसू हैं...

रोप दिए जाएं सौ करोड़ लोगों की छाती में..

कि झुकने न पाए उनकी रीढ़

बीन बजाते संपेरों के आगे...

कहां-कहां ढूंढोगे मुझे..

मैं हर सीने में हूं..

दुआ करो कि खाद-पानी मिले मेरे आंसूओ को,

याद रखना संपेरों,

मेरे आंसू उग आए

तो निर्मूल हो जाओगे तुम....

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