सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

जिस्म की गिरहें....

कुछ लम्हे बेहद शातिर थे,
रिश्तों में दरारें कर डाली...
छीन ली नज़रों की नरमी,
मुस्कान वही पहले वाली....

मैं लाख छिपाता फिरता हूं,
इक सच का लम्हा आंखों में..
सब पढ़ लेते हैं चुपके से
इक गुस्ताखी तारीखों की...
मैं रुह समेटे लौटा था

वो आंसू का सैलाब ही था,
मैं जैसे-तैसे बच निकला,
इक सिलवट तब भी चुपके से,
मैं साथ ही लाया था....
चांद-सितारे सब चुप थे...
उन लम्हों की खामोशी में,,,

वो लम्हे चीख रहे हैं अब,
वो सिलवट तड़प रही है अब....
शातिर लम्हे, नटखट सिलवट...
रिश्तों में घुटन फैलाने लगे...

मैं बेबस आखिर क्या करता,
रोया, चीखा, चिल्लाने लगा...
मजबूरी थी, गुस्ताखी नहीं...
तुम इक ना इक दिन समझोगे,
उस लम्हे की सच्चाई को...
मैं रुह उठाकर ले आया....
पर जिस्म की गिरहें खुल न सकीं...

इस उम्र के रस्ते पर साथी,
ये जिस्म ही मील का पत्थर है...
आओ न मिटा दें सब दूरी,
है रूह की मंज़िल दूर बहुत...

निखिल आनंद गिरि

7 टिप्‍पणियां:

  1. निखिल जी किस किस पँक्ति की दाद दूँ । दिल को छू गयी दिल से निकली हुयी संवेदनायें।
    मैं लाख छिपाता फिरता हूं,
    इक सच का लम्हा आंखों में..
    सब पढ़ लेते हैं चुपके से
    इक गुस्ताखी तारीखों की...
    मैं रुह समेटे लौटा था
    बहुत खूब। शुभकामनायें

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. Bhai , i just loved each word of it .


    Please dont mind , i am making it the status of my fb account ..

    bahut bahut umda...

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