जब सो रहा होता है आसमान,
धरती ओढ़ लेती है आसमान की चादर..
जाग रहे होते हैं तारे,
बतिया रहे होते हैं चुपचाप
मौन के सहारे |
चिड़िया ओढ़ लेती है पंख
और बतियाती है सूनेपन के साथ..
समंदर ओढ़ लेता है गहराई,
और बतियाता है शून्य से..
दीवारें ओढ लेती हैं अकेलापन,
और बतियाती हैं खालीपन से..
एक उम्र ओढ लेती है चिड़चिड़ापन..
और बतियाती है पुरानी आवाज़ों से
अथाह वीरानों में |
रिश्ते ओढ लेते हैं चेहरे,
और बतियाते हैं तारों की भाषा में..
कभी अचानक भीड़ बन जाते हैं चेहरे,
और फूलने लगती है मौन की सांसें..
रिश्ते उतारकर भागने लगते हैं लोग..
क्या बचता है उन रिश्तों के बीच
जहां होता है सिर्फ निर्वात..
जहां ज़िंदा आवाज़ें गुज़र नहीं पातीं,
और सड़ांध की तरह फैलता जाता है मौन..
निखिल आनंद गिरि
धरती ओढ़ लेती है आसमान की चादर..
जाग रहे होते हैं तारे,
बतिया रहे होते हैं चुपचाप
मौन के सहारे |
चिड़िया ओढ़ लेती है पंख
और बतियाती है सूनेपन के साथ..
समंदर ओढ़ लेता है गहराई,
और बतियाता है शून्य से..
दीवारें ओढ लेती हैं अकेलापन,
और बतियाती हैं खालीपन से..
एक उम्र ओढ लेती है चिड़चिड़ापन..
और बतियाती है पुरानी आवाज़ों से
अथाह वीरानों में |
रिश्ते ओढ लेते हैं चेहरे,
और बतियाते हैं तारों की भाषा में..
कभी अचानक भीड़ बन जाते हैं चेहरे,
और फूलने लगती है मौन की सांसें..
रिश्ते उतारकर भागने लगते हैं लोग..
क्या बचता है उन रिश्तों के बीच
जहां होता है सिर्फ निर्वात..
जहां ज़िंदा आवाज़ें गुज़र नहीं पातीं,
और सड़ांध की तरह फैलता जाता है मौन..
निखिल आनंद गिरि