रविवार, 24 अक्टूबर 2010

शोकगीत...

तुम्हारी देह,

पोंछ सकता मेरी आस्तीन से

तो पोंछ देता...


सर्पिल-सी बांहों के स्पर्श में,

दम घुटने लगा है....

सच जैसा कुछ भी सुनने पर

बेचैन हो जाता है भीतर का आदमी....


जानता हूँ,

कि मेरी उपलब्धियों पर खुश दिखने वाला....

मेरे मुड़ते ही रच देगा नई साजिश...

मैं सब जानता हूँ कि,

आईने के उस तरफ़ का शख्स,

मेरा कभी नही हो सकता....


रात के सन्नाटे में,

कुछ बीती हुई साँसों की गर्माहट,

मुझे पिघलाने लगती है....

मेरे होठों पर एक मैली-सी छुअन,

मेरी नसों में एक बोझिल-सा उन्माद,

तैरने लगता है...


तुम, जिसे मैं दुनिया का

इकलौता सच समझता था,

उस एक पल सबसे बड़ा छल लगती हो....


मुझे सबसे घिन्न आती है,

अपने चेहरे से भी.....

धो रहा हूँ अपना चेहरा,

रिस रहे हैं मेरे गुनाह...


चेहरा सूखे तो,

बैठूं कहीं कोने में...

और लिख डालूँ,

अपनी सबसे उदास कविता....


निखिल आनंद गिरि


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6 टिप्‍पणियां:

  1. निशब्द हूँ।


    आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (25/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  2. तुम, जिसे मैं दुनिया का

    इकलौता सच समझता था,

    उस एक पल सबसे बड़ा छल लगती हो....


    killer...!!!!

    haan, baaqi nazm kaafi udaas hai...thik to ho na dost?
    likha bohot hi kamaal ka hai...opening to bohot bohot acchi lagi...aur closing aur bhi kamaal awesome

    जवाब देंहटाएं
  3. शुक्रिया वंदना जी...ब्लॉग पर आती रहें....
    सांझ, मैं ठीक हूं....शुक्रिया..

    जवाब देंहटाएं
  4. sabse udaas kavita!
    our sweetest songs are those that tell us of our saddest thoughts.....
    yah to shashwat satya hai...
    bahut sundar rachna hai... udasi ke tahon ko ukerti hui si!!!
    regards,

    जवाब देंहटाएं
  5. इतनी घृणा ,इतना आक्रोश....
    बड़ा अजीब सा लगा...

    जवाब देंहटाएं

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