कोई जगह थी बहुत बंजर या निर्वात
जहाँ गिरा मैं
एक भरा पूरा जीवन लिए मनुष्य
अकस्मात्
मैं जिस ऊंचाई से गिरा
टूटा
टूटने की आवाज़ गिरने से पहले खत्म हुई
रोना भी गिरने गिरने तक सूख चुका
अंतिम सांस से पहले
पृथ्वी भर का दुःख
तुम्हारी नरम हथेलियों ने थाम लिया
मेरी चुप्पियों की भाषा पढ़ी तुमने
और मैं एक नयी भाषा में रोया
चीखा, चिल्लाया
तुम्हारे क़रीब आया
तुम्हारा एक स्पर्श
समर्पण से भरा हुआ
मेरा जीवन- छलनी, आहत
फिर से हरा हुआ
मेरा सारा वजूद
तुम्हारे सीने में दुबका दिया है मैंने
तुम उसे महफूज़ रखना
फिर-फिर आऊंगा
और शिखर लांघकर
और अधिक ऊंचाइयों से
और भयावह अंधेरी अकेली रातों में
थर थर काँपता हुआ
तुम्हें पुकारता
हाँफ़ता हुआ ..