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गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

‘डियर 2016’ के ‘दंगल’ में ‘उड़ता’ बॉलीवुड

साल 2016 में मेरे सिनेमा देखने की शुरुआत एक ऐसी फिल्म से हुई जिसका पहला शो देखने लगभग पांच-छह लोग आए थे। ये फिल्म थी चौरंगाजिसे मेरे कॉलेज के डबल सीनियर (जमशेदपुर और जामिया) बिकास रंजन मिश्रा ने बनाई थी। फिल्म में नाम बड़ा नहीं था, इसीलिए एक बेहतरीन कहानी भी एकाध शो बाद ही भुला दी गई। समाज की लगभग हर समस्या का कॉपीबुक ट्रीटमेंट थी चौरंगाजैसे आप कोई फीचर फिल्म नहीं, किसी फिल्म स्कूल के स्टूडेंट की डिप्लोमा फिल्म देख रहे हों। फिल्म के शुरुआती क्रेडिट्स में ये बताया जाना कि ये एक हिंदी नहीं खोरठा फिल्म है, मेरे लिए पहला अनुभव था।
वज़ीरअमिताभ बच्चन के लिए एक और शानदार फिल्म रही। कोरियन फिल्म मोंटाजमैं देख चुका था इसीलिए इसकी हिंदुस्तानी नकल में मेरी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। फिर भी महिला मित्र के साथ हॉल जाने का सुख मैं कभी मिस नहीं करता।
साला खड़ूसऔर मस्तीज़ादेएक ही भाषा में अच्छी-वाहियात फिल्मों के विलोम की तरह एक ही हफ्ते में रिलीज़ हुए। मैंने दोनों देखी और अपना विश्वास मज़बूत किया कि राजनीति से लेकर नई हिंदीके लेखक हों या हिंदी फिल्में, सनसनी हो तो दर्शक, पाठक या मतदाता सब जेब में होते हैं। फितूरएक ओवररेटेड फिल्म साबित हुई और अगर ये 1990’s के दौर में आती तो कुमार सानू जैसा कोई सिंगर इसे हिट करा सकता था। नीरजाएक शहीद एयर होस्टेस की सच्ची घटना पर आधारित फिल्म थी और ठीकठाक बनी थी।
हंसल मेहता की अलीगढ़साल की सबसे अलग फिल्म रही मगर दर्शक इसे भी नहीं मिले। ऐसी फिल्मों से बॉलीवुड का क़द पता चलता है। की एंड कामुझे एक मैच्योर फिल्म लगी और मुझे फिर लगा कि मल्टीप्लेक्स का दर्शक ही आने वाले वक्त का सिनेमा तय करता रहेगा। शाहरूख की फैनएक अलग कोशिश तो थी मगर अंत तक आते-आते आप शाहरुख के फैन होने की बजाय किसी पंखे से लटक जाना पसंद करेंगे।
अश्विनी तिवारी की नील बट्टे सन्नाटाने इस साल सबसे अधिक चौंकाया। एक मां और बेटी एक ही स्कूल की एक ही क्लास में पढ़ने जाते हैं। ये सोच कर ही फिल्म देखने का मन कर जाएगा। एक शानदार फिल्म को बार-बार देखा जाना चाहिए। ऐसी गंभीर फिल्म उसी वक्त में हिट होती है जब सनी लियोनी की वन नाइट स्टैंडको भी ठीकठाक दर्शक मिलते हैं। इमरान हाशमी अज़हरमें कॉलर तो सही उठाते रहे मगर फिल्म मीठा-मीठा सच का जाल बनाती रही और उलझ कर रह गई। एक और भारतीय कप्तान धोनीभी इसी साल पर्दे पर उतारे गए और अज़हर से ज़्यादा इमानदारी से उतारे गए।   
धनकनागेश कुकनूर स्टाइल की एक और बेहतरीन फिल्म थी। हालांकि मैं अपने परिवार के जिन बच्चों के साथ फिल्म देखने गया था उन्हें बजरंगी भाईजान भी बच्चों की ही फिल्म लगती है, इसीलिए इस फिल्म का पसंद न आना लाज़मी था। तीन’, ‘रमन राघव-2’ एक्टिंग पर आधारित फिल्में रहीं जिन्हें देखने में पैसे बर्बाद नहीं हुए।
इन सबसे अलग 2016 को याद रखा जाना चाहिए उड़ता पंजाबके लिए। भविष्य में हम किस तरह का सिनेमा चाहते हैं, ये फिल्म उस का एक बयान समझा जाना चाहिए। फिल्म की बहादुरी इसी में समझ आनी चाहिए कि सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म पर तलवार जितनी कैंची चलाई, एक दिन पहले फिल्म लीक भी कर दी गई और फिर भी लोग सिनेमा हॉल तक देखने पहुंचे।
आशुतोष गोवारिकर की मोहनजोदड़ोउनके फिल्मी करियर का बड़ा रिस्क थी। एक तरह की चेतावनी भी कि हर बार एक ही फॉर्मूला लगाने से लगाननहीं बनती। फिल्म में ग्लैमर ज़्यादा था और इतिहास कम इसीलिए वर्तमान के दर्शक उसे ज़्यादा पचा नहीं पाए। मुदस्सर अज़ीज़ की फिल्म हैप्पी भाग जाएगीएक नई तरह की कॉमेडी थी। लड़की अपनी शादी से भागकर जिस ट्रक में कूदती है, उसे सीधा पाकिस्तान पहुंचना होता है। इस तरह पाकिस्तान से रिश्ते तीन घंटे मीठा बनाए रखने के लिए फिल्म का योगदान नहीं भुलाया जा सकता।
साल 2016 के सितंबर का महीना बॉलीवुड के लिए सबसे अच्छा रहा जब पिंक और पार्च्ड जैसी दो साहसी फिल्में पर्दे पर आईं।आने वाले समय में इन फिल्मों को पूरे दशक की सबसे अच्छी फिल्मों में भी गिना जाए तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा।
डियर ज़िंदगीइस साल की उपलब्धि कही जा सकती है। सिर्फ इसीलिए नहीं कि फिल्म अच्छी है, मगर इसीलिए भी भी कि शाहरूख अपनी उम्र के हिसाब से रोल करने लगे हैं। आप आलिया भट्ट की तारीफ में इस फिल्म पर बहुत कुछ पढ़ चुके हैं। मगर ये कहानी अकेलेपन के डॉक्टर जहांगीर खान की भी थी। जिनके पास दुनिया को ठीक करने की दवा तो होती है, उनकी अपनी दुनिया बहुत बीमार होती है। क्या हम सब ऐसे ही नहीं होते जा रहे। अकेले लोगों का ऐसा समाज जिनका इलाज किसी छप्पन इंच के डॉक्टर के पास नहीं।

दंगल इस साल की आखिरी बड़ी हिट थी। हिट नहीं भी होती तो भी इस फिल्म का चर्चा में आना तय था। ये फिल्म हमें आश्वस्त करती है कि 16 दिसंबर वाली भयानक राजधानी दिल्ली के बहुत पास लड़कियां समाज के अखाड़े में ख़ुद को बारीकी से तैयार भी कर रही हैं। इसीलिए समाज को थोड़ा विनम्र और महिलाओं के प्रति थोड़ा भावुक हो जाना चाहिए। 

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 21 जनवरी 2015

विलोम का अर्थ

जहां से शुरू होती है सड़क,
शरीफ लोगों की
मोहल्ला शरीफ लोगों का
उसी के भीतर एक हवादार पार्क में
एक काटे जा चुके पेड़ की
सूख चुकी डाली पर
दो गर्दनों को षटकोण बनाकर
सहलाती है गौरेया अपने साथी को
और उड़ जाती है आसमान में
लीक तोड़ कर उड़ जाने में
मूंगफली तक खर्च नहीं होती।



एक ऐसी बात जो कही नहीं किसी ने
लोहे के आसमान में सुराख जैसी बात
आप सुनकर सिर्फ गर्दन हिलाते हैं
जुगाली करते हैं फेसबुक पर
छपने भेज देते हैं किसी अखबार में
और चौड़े होकर घूमते हैं सड़कों पर
जो सचमुच लड़ रहे होते हैं आसमानों से
कलकत्ता या छतीसगढ़ की ज़मीनों पर
आपके शोर में चुपचाप मर जाते हैं।



आप जिन दीवारों पर करते रहे पेशाब,
कोई वहां लिखता रहा था क्रांति
उसी दीवार के सहारे करता रहा आंदोलन,
भूखे पेट सोता रहा महीनों
एक दिन उसे पुलिस उठाकर ले गई
और गोलियों का ज़ायका चखाया
दीवारों ने बुलडोज़र का स्वाद चखा
और आप घर बैठे आंदोलन देखते रहे टीवी पर,


इस सदी का सबसे घिसा-पिटा शब्द है आंदोलन
अमिताभ बच्चन की तरह



जिस दिन आपके कुर्ते का रंग सफेद हुआ,
हमें समझ लेना चाहिए था
शांति और सत्ता विलोम शब्द हैं।



निखिल आनंद गिरि
(पहल पत्रिका के 98वें अंक में प्रकाशित)

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014

कैसे-कैसे महानायक !

लेखक-पत्रकार अनिल यादव उत्तर-पूर्व पर लिखे गए अपने यात्रा संस्मरण वह भी कोई देस है महराज में असम के एक आदिवासी समुदाय का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि साल 2000 के दौरान जब कौन बनेगा करोड़पति लांच हुआ था तो इस प्रोग्राम में शामिल होने के लिए वहां के पीसीओ बूथ पर लंबी-लंबी लाइनें लगती थीं। उन लाइनों में गांवबूढ़ा (आदिवासी गांव का मुखिया) से लेकर पीठ पर बस्ते लटकाए स्कूली बच्चे भी किस्मत आज़माने के लिए शामिल रहते थे। उन्हीं लाइनों में अपने बेटे को खोजते साइकिल पर बांस की लंबी टहनियां (कईन) लादे एक आदिवासी ने अपने बेटे को वहां पाकर खीझते हुए विलाप किया जो अपने घर में लगी आग बुझाने के बजाय उस घोड़मुंहे अजनबी (अमिताभ) के साथ जुआ खेलने जा रहा हो उसके बाल-बच्चों के मुंह में तो भगवान भी दाना नहीं डालेगा। उस आदिवासी का गुस्सा सिर्फ अपने बेटे पर नहीं था बल्कि उस घोड़मुंहे अजनबी पर भी था जो अपने जादुई आकर्षण के नाम पर सुदूर असम के ग़रीब नौजवानों को भी भरमाए जा रहा था। ये सिलसिला आज भी जारी है। एक करोड़ की इनाम राशि से शुरु हुआ ये कार्यक्रम अब सात करोड़ का महाकरोड़पति बना रहा है। बीसवीं सदी का महानायक अब इक्कीसवीं सदी में भी उसी तमगे को ढो रहा है और उन पर दांव खेलने वालों को अरबपति बनाए जा रहा है। ठीक से याद नहीं कब दीमापुर के किसी आदिवासी ने इस खेल से अपनी किस्मत संवारी हो। चौदह सवालों के खेल में आलिया भट्ट को इन विकल्पों में किसने चुंबन लिया जैसे सवाल भी शामिल होते हैं। अमिताभ बच्चन अपनी अदायगी, अपनी चुप्पी में इतने प्रेडिक्टेबल होते जा रहे हैं कि उनका हर अंदाज़ एक दोहराव जैसा लगता है। हर हफ्ते इस शो का एक एपिसोड किसी नयी रिलीज़ होने वाली फिल्म से लेकर कॉमेडी शो, कपिल शर्मा, हनी सिंह जैसों के लिए प्रोमोशन का काम भी करता है जिसमें महानायक इनके साथ ठुमके लगाते हैं, टी.वी. देखने वाली आबादी का एक घंटे तक रसरंजन करते हैं और ख़ूब पैसे कमाते हैं।
मीडिया और बाज़ार ने महानायकों की परिभाषा इतनी विकृत और आसान कर दी है कि राह चलता कोई भी महानायक बन सकता है। इन छवियों को वो गले में लटकाए घूमते हैं और हम उन पर आंख मूंदे अपना  भरोसा करते हैं। इमेज यानी छवियों का यही खेल राजनीति से लेकर मीडिया, यहां तक कि अपराध जगत में भी महानायक बनाता है जिससे समाज का फायदा कम नुकसान ज़्यादा होता है। पप्पू यादव से लेकर डीपी यादव तक सब इसी इमेज के सहारे आज भी महापुरुष बनने की फिराक में लगे हुए हैं। ये मज़ाक नहीं तो और क्या है कि इलाज के नाम पर जेल से निकलकर कोई रसूख वाला आदमी हरियाणा में चुनाव प्रचार करे और कोई उफ्फ तक न करे।

अमिताभ बच्चन की अभिनय क्षमता पर शायद ही किसी को शक हो, मगर इतने लंबे सामाजिक जीवन के बाद उम्र के सातवें दशक उन्हें इस बात का हिसाब ज़रूर करना चाहिए कि उन्होंने अपनी आड़ में कितने अघोषित अपराध किए या करवाए हैं। एक ज़िम्मेदार वरिष्ठ नागरिक के तौर पर उन्हें उन सभी दुष्प्रचारों के लिए माफी मांगनी चाहिए जिससे जनता दिग्भ्रमित होती रही है। देश उनके लिए दुआएं करता है तो देश के प्रति इतनी ज़िम्मेदारी तो बनती ही है। ऐसा किसी किताब में लिखा भी नहीं कि महानायकों का आत्मचिंतन करना मना हो।


निखिल आनंद गिरि
(11 अक्टूबर को अमिताभ के बर्थडे का एडवांस गिफ्ट)

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

पान की पीक से पॉपकॉर्न तक...सिनेमा ही सिनेमा

फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर सिर्फ जहाज में ही नहीं जाते...
मेरा बचपन बिहार (और झारखण्ड) के अलग-अलग कस्बों में बीता। पिताजी पुलिस अधिकारी रहे हैं तो अलग-अलग थानों में तबादले होते रहे और हम उनके साथ घूमते रहे। इन्हीं में से किसी इलाके में पहली फिल्म देखी होगी, मगर मुझे ठीक से याद नहीं। हाँ, फिल्म देखने जाने के कई खट्टे-मीठे अनुभव याद हैं, जिन्हें बताना पहला अनुभव जानने से कम ज़रूरी नहीं। क्योंकि सिनेमा के सौ साल का सफर उन्हीं सिनेमाघरों में हम और आप जैसे तमाम दर्शकों के होते हुए गुज़रा है।


मैं शायद छह या सात साल का रहा होऊंगा जब पिताजी के किसी 'इलाके' में 'सूरज' फिल्म लगी थी। हमारे परिवार के लिए फिल्म देखने का मतलब ये होता था कि टिकट पिताजी से लें। मतलब, एक सादी पर्ची (पान के साथ चूना दिये जाने जैसी) पर पिता जी कुछ लिख भर देते थे और हम आराम से हॉल में जाते और हॉल का मैनेजर पर्ची देखते ही पूरे 'सम्मान' से सीट देकर हमें फिल्म देखने देता। मैं तब न तो फिल्म समझता था, न फिल्म देखने के लिए फिल्म देखने जाता था। घर में सबसे छोटा था, तो जो सब करते वही करना ही होता था। ऐसे ही पर्चियों वाली हमने कई फिल्में देखीं। गाइड, मर्दों वाली बात, गंगा-जमुना, गंगा किनारे मोरा गाँव और फिर बाद में मोहरा तक। ये सब वैसे ही पर्ची लिखा-लिखा कर सीधा हॉल में प्रवेश करने वाली फिल्में थीं। हमारी तरफ भोजपुरी फिल्में ख़ूब लगती थीं, और उन फिल्मों के बारे में जानने के लिए हमें किसी ब्लॉग, रिसर्च पेपर या समीक्षा नहीं देखनी पड़ती थी। गाँव भर की बुआ, चाची, दीदी को हर फिल्म में नाम के साथ सब कुछ याद रहता था। भोजपुरी स्टार कुणाल सिंह हमारे बचपन के महानायक थे। वो जितेंद्र से मिलते-जुलते लगते थे तो मुझे जितेंद्र की फिल्में भी अच्छी लगती थीं। लखीसराय का अनुभव सबसे यादगार था, जहाँ एक बार पिक्चर शुरू हो गई और हम बाहर से एक बेंच लाए और फिर पिक्चर देखने बैठे।

तब हमारे घर टीवी नहीं हुआ करता था। रविवार को चार बजे शाम में फिल्म आती थी और हम देखने के लिए पड़ोस में जाते थे। ऐसे देखी गई पहली फिल्मों में से थी 'एक चादर मैली सी', 'एक दिन अचानक' और 'पार्टी'। आप समझ सकते हैं कि 'गंगा किनारे मोरा गाँव' तक से 'पार्टी' तक एक ही बचपन में देखने से सिनेमा कितनी गहराई से भीतर घुस रहा था।

जब राँची में स्कूल के दोस्तों के साथ पहली बार टिकट के पैसे चुकाकर फिल्म देखनी पड़ी तो लगा जैसे कोई गुनाह कर रहे हैं। तब तक 'पुलिसिया पहचान के नाम पर फिल्म देखना बुरा है', समझ आने लगा था। तब शायद पहली देखी फिल्म 'गॉडजिला' थी। बाद में एनाकान्डा, मोहब्बतें, गदर वगैरह-वगैरह। फिर जमशेदपुर गए तो वहाँ बैचलर लाइफ शुरु हुई। एक दोस्त ने पहली बार सुबह वाला 'शो' दिखाया। फिर तो सिनेमा आदत बन गया। हर नई रिलीज़ देखना ही देखना था। जमशेदपुर के बसन्त टॉकीज़ (जो अब नहीं रहा) में पाँच रुपये और ग्यारह रुपये के टिकट हुआ करते थे। पाँच रुपये की टिकट के हिसाब से साल में सौ शो देखने के भी लगभग पाँच सौ रुपये ही खर्च होते थे। इसीलिए सभी 'तरह' की फिल्में अफॉर्ड हो जाती थीं। कला के लिए जागरुक शहर जमशेदपुर में फिल्म महोत्सवों का चस्का लगा, जो अब तक कायम है।

फिर, दिल्ली आए तो पहली फिल्म देखी 'ओंकारा'। जामिया से नेहरु प्लेस तक पैदल चलकर तीस रुपये की टिकट पर। फिर एक महिला-मित्र के साथ मॉल गए, कोई फालतू सी फिल्म देखने। इतना महँगा पड़ा कि साथ देखने से जी भर गया। जमशेदपुर और बचपन बहुत याद आया। फिर देखा कि उन्हीं फिल्मों के 12 बजे से पहले वाले शो सस्ते होते हैं। तो आज तक दिल्ली में सुबह जल्दी उठने का सिर्फ यही मकसद होता है। कभी-कभी जान-बूझ कर देर से उठता हूँ, जब किसी ख़ास के साथ पिक्चर हॉल जाना हो और पॉपकॉर्न खाते हुए पिक्चर देखनी हो।

(ये लेख रेडियोप्लेबैक इंडिया वेब पोर्टल के लिए लिखा गया था..वहां जाकर भी पढ़ सकते हैं..इस पोस्ट के साथ लगाई गई दो तस्वीरें मेरे कैमरे से ली गई हैं..)

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

वो कल भी पास-पास थे, वो आज भी क़रीब हैं..


मेरी मां ने आज तक कोई फिल्म पूरी नहीं देखी होगी। सती अनुसुईया, गंगा किनारे मोरा गांव जैसी अमर भोजपुरी फिल्में पूरी देखने के दौरान भी दो-तीन बार झपकी ज़रूर मार ली होगी। आप उसके सामने किसी भी दौर की अच्छी से अच्छी फिल्म लाकर रख दीजिए, फिर कुर्सी पर उसे बिठा दीजिए, फिल्म का ख़ूब बखान कीजिए कि ये सिनेमा के फलां तीसमारखां की फिल्म है वगैरह वगैरह, वो फिल्म देखने के साथ कभी दाएं, कभी बाएं ज़रूर डोलती नज़र आएगी। मां की सिनेमाई नींद के आगे किसी भी सुपरस्टार या महानायक की ऐसी की तैसी न हो जाए तो फिर कहिए। 'हाथी मेरे साथी' और 'स्वर्ग' ही हिंदी फिल्मों के नाम पर उनकी देखी गईं, बार-बार याद की गईं हिंदी फिल्में याद आती हैं। 'हाथी मेरे साथी' देखने और याद रखने का एक कारण अगर फिल्म में हाथी की मौजूदगी को मान लें तो भी 'स्वर्ग' फिल्म में सिर्फ और सिर्फ राजेश खन्ना ही वो किरदार थे, जिन्होंने मेरी मां को भी प्रभावित किया। हां, 'स्वर्ग' में गोविंदा भी मां की पसंद रहे हैं मगर राजेश खन्ना पहली पसंद हैं।

हमने वीसीआर पर घर में पहली बार स्वर्ग फिल्म एक साथ देखी थी। मैं तब स्कूल के शुरुआती सालों में पढ़ता था। मुझे याद है मेरे घर में ये फिल्म कई बार देखी जा चुकी है। वो भी सिर्फ मां की वजह से। मां को न तो वीसीआर चलाना आता है और न ही फिल्में देखने का शौक है। उसे तो ये भी नहीं पता कि कौन किस दौर में कौन सुपरस्टार हुआ है या फिर सुपरस्टार जैसी कोई चीज़ भी होती है। ये राजेश खन्ना का कोई जादू ही था कि मां उनका नाम जानती है, चेहरे से पहचानती है। जैसे बाद में मेरे टीवी या क्रिकेट देखने के शौक की वजह से वो अमिताभ को 'अमितभवा' और सचिन को 'सचिनमा' के नाम से पहचान चुकी है। और कई बड़े लोगों का नाम पूछकर कई बार देख चुका हूं, मगर उन्हें पहचानने में वो आत्मविश्वास नहीं दिखता।

बात 'स्वर्ग' की। तब समस्तीपुर में पापा ने अपनी कमाई से पहली बार ज़मीन ख़रीदी थी और हमारा घर बन रहा था। हम पापा की नौकरी की वजह से बिहार के जिस कोने में भी होते, घर में 'अपने घर' को लेकर कुछ न कुछ बात ज़रूर होती। मां 'अपने घर' को 'स्वर्ग' ही कहकर बुलाती। ये बहुत बाद में समझ आया कि सिनेमा और एक दर्शक का रिश्ता क्या हो सकता है। जिस महिला ने शायद ही कभी सिंगल स्क्रीन थियेटर में (ऊपर लिखी दो-चार फिल्मों को छोड़कर) क़दम रखा हो, शायद ही कभी मॉल या मल्टीप्लेक्स के दर्शन करने की सोच पाए, उसके लिए राजेश खन्ना घर का हिस्सा थे। इसके बाद शायद ही कुछ कहने को बचता है कि राजेश खन्ना क्यों हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार कहे जाते हैं। वो भी तब, जब राजेश खन्ना के गुज़रने पर 'हाथी मेरे साथी' या 'स्वर्ग' का ज़िक्र एक भी चैनल या वेबसाइट पर उनकी चुनिंदा फिल्मों में देखने को नहीं मिल रहा है। यानी एक सुपरस्टार की कामयाबी इसी में है कि उसकी दूसरे दर्जे की सफल फिल्म भी एक विशुद्ध हाउसवाइफ को उसका ऐसा फैन बना सकती है कि वो ताउम्र अपने घर का नाम उसकी एक फिल्म के नाम पर रखना चाहे।

जैसे मां की पसंद से बहू घर आए तो बेटे को उसका ख़याल रखना ही पड़ता है, ठीक वैसे ही राजेश खन्ना मेरे लिए बेहद ख़ास रहे। हालांकि मेरे लिए पहले सुपरस्टार का मतलब आज भी अमिताभ बच्चन ही हैं, लेकिन राजेश खन्ना को मैं पहला म्यूज़िकल सुपरस्टार ज़रूर मानता हूं। पहला ही क्यों, इकलौते सदाबहार म्यूज़िकल सुपरस्टार थे राजेश खन्ना। राजेश खन्ना को याद करने का मतलब बेशकीमती हिंदी गानों को याद करना है। भारतीय सिनेमा की उस विशेष परंपरा को याद करना है, जिसकी मिसाल दुनिया में और कहीं नहीं मिलती। वो शायद दुनिया के पहले ऐसे सुपरस्टार थे, जिन्होंने सिर्फ गानों के दम पर ऐसा स्टारडम हासिल कर लिया था। शायद यही एक कमज़ोरी भी रही कि अमिताभ बच्चन झट से उनकी कुर्सी खींच पाए और किशोर कुमार रातों रात अमिताभ की आवाज़ बन गए।

राजेश खन्ना को याद करते वक्त अचानक अमेरिका का चार्ल्स मैंसन याद आता है। वो अमरीकी अपराध की दुनिया का 'कल्ट गुरु ' रहा। गुनाहों का देवता। उसने अपनी एक मायावी दुनिया बनाई थी जिसे मैंसन फैमिली कहते थे। उसके लिए रोमांस की हद के पार अपराध का वो चरम था, जिसके दम पर उसे लगता था कि जब एक दिन कयामत आएगी और सिर्फ उसी के अनुयायी जीवित बचेंगे। राजेश खन्ना ने रोमांस की दुनिया में वही 'कल्ट' पैदा किया। रोमांस के देवता। एक ऐसा भरम जो उस दौर के भारतीय हालात में हर नागरिक जीना चाहता था। उम्मीदों की आखिरी डोर थामकर ये यक़ीन बचाना चाहता था कि आज़ाद भारत में अब भी वो सुबह आनी बाक़ी है, जहां सब कुछ राजेश खन्ना की तरह पलक झपकते ही रुमानी हो जाना है। कभी-कभी ये भी लगता है कि अगर राजेश खन्ना न होते तो आज भारतीय जनमानस में जिस कदर हर सेलेब्रिटी के आगे-पीछे आंखे मूंद कर डोलने का चलन है, वो बीमारी हमारे समाज से कोसों दूर रहती। ऐसा कहते हुए मोनिका बेदी से लेकर कसाब के वकील तक याद आ रहे हैं।

अपने आखिरी दिनों में किया गया राजेश खन्ना का वो पंखे का विज्ञापन भी याद आ रहा है, जिसमें राजेश खन्ना की एक्टिंग का सबसे बुरा इस्तेमाल ये कहलवाने में हुआ कि मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता। हालांकि, ये बात बिल्कुल सच है कि राजेश खन्ना के फैन्स हमेशा बचे रहेंगे। जब तक धरती पर प्यार बचा है। जब तक भारतीय सिनेमा बचा है। जब तक गीत लिखने वालों और संगीत रचने वालों की कद्र बची है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

लेखकों की रचनाओं की चोरी की एफआईआर तक दर्ज नहीं होती...

जयप्रकाश चौकसे
सलीम-जावेद की लिखी ‘जंजीर’ ने अमिताभ बच्चन को सितारा बनाया, प्रकाश मेहरा की कंपनी को ठोस आर्थिक आधार दिया और कालांतर में यह कल्ट फिल्म मानी गई। इसी फिल्म से आक्रोश की मुद्रा बॉक्स ऑफिस पर ऐसे सिक्के के रूप में चल पड़ी कि आज तक लोग उसे भुना रहे हैं। इतना ही नहीं, इसी आक्रोश ने अन्य फिल्मकारों को भी एक रास्ता बताया और इसी के विविध रूप हिंदुस्तानी सिनेमा में छा गए हैं। गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ भी इसी का उनका अपना संस्करण है। सच तो यह है कि राजकुमार संतोषी की ‘घायल’, ‘घातक’ ही नहीं, वरन् आज की ‘दबंग’ छवि भी उसी आक्रोश के हंसोड़ संस्करण हैं।


अब प्रकाश मेहरा के सुपुत्र अपूर्व लखिया नामक निर्देशक के साथ ‘जंजीर’ का नया संस्करण बनाने जा रहे हैं। ये तमाम लोग अमिताभ बच्चन और जया से आशीर्वाद लेने जा रहे हैं, जबकि नए संस्करण में अमिताभ के अभिनय को नहीं दोहरा रहे हैं। आप मूल फिल्म की पटकथा पर फिल्म बना रहे हैं और उसमें जो भी परिवर्तन करेंगे, वह मूल की छवि को बिगाड़ देंगे। सारे नए संस्करणों में कलाकार नए होते हैं, उनकी व्याख्या भी अलग होती है और संगीत भी अलग होता है, परंतु पटकथा का आधार नहीं बदलते और सारे पंच संवाद भी दोहराए जाते हैं। आप दर्जन दफा ‘डॉन’ बना लो, परंतु ‘डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है’ संवाद को दोहराते हैं, क्योंकि इस पर हर कालखंड में तालियां पड़ती हैं। इसी तरह ‘देवदास’ को मनके की माला की तरह दोहराइए, परंतु मेरुमणि संवाद, राजिंदर सिंह बेदी का लिखा ‘कौन कम्बख्त बर्दाश्त करने को पीता है..’, दोहराकर गिनेंगे नहीं, जैसे माला में सौ मनके होते हैं, परंतु एक मेरुमणि होता है, जिसे फिराते हैं, परंतु गिनती में शुमार नहीं करते। इसी बात को महान गालिब ने यूं फरमाया है- ‘हम ब आलम बरकिनार कुफनाद अय, चूं इमामे सबह बैंरू अज शुमार ऊफनाद अय’।


यही मेरुमणि की तरह वो तमाम पटकथाएं बना दी गई हैं कि नए संस्करण के लिए कलाकार का आशीर्वाद लेने जा रहे हो और मूल के लेखकों के श्राप से भय नहीं लगता। उनकी इजाजत लेने की भी आवश्यकता नहीं महसूस होती। उनकी गिनती ही नहीं है। यह अन्याय इसलिए हो रहा है कि हमारे कॉपीराइट के नियम लचर हैं और अपना एक्सपायरी समय पार कर चुके हैं और इसका नया स्वरूप संसद की उन अलमारियों में धूल खा रहा है, जहां सरकारों ने अनेक नरकंकाल भी छिपाए हुए हैं।

आज के दौर में सुर्खियों में बने रहने और आशीर्वाद की मुद्रा में फोटो खिंचाने का शौक शायद सबसे बड़ा लालच है और ये वे लोग कर रहे हैं, जिनकी तस्वीरों ने अपनी अधिक संख्या के कारण अलग किस्म का प्रदूषण रचा है। बहरहाल, जावेद साहब के सुपुत्र फरहान अख्तर ने ‘डॉन’ बनाने से पहले सलीम साहब से इजाजत मांगी थी। प्रकाश मेहरा के बेटे सलीम और जावेद से मिलना तक गैरजरूरी समझते हैं। वे किस अहंकार की जंजीर से बंधे हैं। उनके पिता ‘जंजीर’ के पहले मात्र संघर्षरत फिल्मकार थे। यह संभव है कि ‘जंजीर’ की कमाई का दूध उन्होंने बचपन में पिया हो। दूध के कर्ज के रूप में भी मूल के लेखकों से मिला जा सकता है।

हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार में पैसा खा जाते हैं, कोयले की खदान खा जाते हैं, धरती की अंतड़ियों से उसकी सदियों की खुराक चुरा लेते हैं और आकाश से परिंदों की उड़ान चुरा लेते हैं, नदियों से पानी और हवा से ऑक्सीजन चुरा लेते हैं और इन सभी चोरियों के खिलाफ आंदोलन है, परंतु लेखकों की रचनाओं की चोरी की एफआईआर किसी थाने में लिखी तक नहीं जा सकती। दरअसल इस मुल्क में मौलिकता का मूल्य नहीं, विचार-संपदा का सम्मान नहीं, भाषा सौंदर्य की कद्र नहीं। मुल्क इस तरह से मरते हैं, क्योंकि उन्हें तो कोई और मौलिक तरह से मरना भी नहीं आता।

(Courtsey : Dainik Bhaskar)

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

मल्टीप्लेक्स से नहीं निकलने वाला कोई महानायक...

रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया...
हाल में ही रिलीज़ हुई थी फिल्म I AM KALAM...ढाबे में काम करने वाले एक मासूम बच्चे के सपनों की कहानी है.....बच्चा पूर्व राष्ट्रपति कलाम जैसा बनना चाहता है और उसका साथी अमिताभ की धुन में मगन है...फिल्म कलाम का सपना देखने वाले बच्चे के साथ खड़ी होती है...क्या ये एक साफ संदेश नहीं माना जा सकता कि अमिताभ के हसीन सपने से आगे देखने का रास्ता मल्टीप्लेक्स ने ढूंढ लिया है....मेरे पसंदीदा अभिनेता के जन्मदिन पर ब्लॉग के ज़रिए ऐसे ही कुछ सवालों का तोहफा...ये लेख सिनेमा की एक मैगज़ीन 'सतरंगी संसार 'में भी छपा है...

अ से अक्लमंद, म से मिलनसार, त से ताक़तवर, भ से भरोसेमंद। बचपन में स्कूल लाइब्रेरी की किसी किताब के पहले पन्ने पर अमिताभ का यही परिचय लिखा मिला था। तमाम दौलत और शोहरत हासिल कर चुके अमिताभ की जटिल हस्ती को समझ पाना उतना ही मुश्किल है जितना ये बात अजीब लग सकती है कि अपने पिता डॉ हरिवंश राय बच्चन को आज भी वो ‘बाबूजी’ कहते हैं। कितनी अजीब बात है कि ये अमिताभ ही हैं जिन्हें बॉलीवुड के पर्दे पर उनके किए सब गुनाह उन्हें नायक बना देते हैं। नायक नहीं, महानायक। ऐसा महानायक जिसकी नकल में शाहरुख भी ‘किंग’ कहे जाने लगते हैं। फिर पर्दे का महानायक अपनी फिल्मी छवि को राजनीति से लेकर दूसरी फायदे की सौदेबाज़ियों में भुनाना चाहता है तो जनता ताड़ लेती है। उन्हें बार-बार खोल बदलने पड़ते हैं और वो ये करने में भी क़ामयाब रहते हैं। सचमुच, मौजूदा दौर में कोई इस तरह का आदमी ही असली नायक हो सकता हैं।

हिंदुस्तान में ‘मास अपील’ सबसे बड़ा सच है। The End Justify The Means…की तर्ज़ पर। अमिताभ ने इस सच को बखूबी समझा है। पोलियो की दो बूंदे पिलाने की अपील करने वाले अमिताभ जब गुजरात के ब्रांड अंबैसडर या फिर मराठी मानुसों के मंच पर अपनी आंखों और आवाज़ में भलमनसाहत के साथ बड़ा बनने की कोशिश करते हैं तो उन्हें ये अच्छी तरह मालूम होता है कि उनका ‘क़द’ इतना बड़ा है कि उनकी आंखों में आंखे डालने का माद्दा उनके रहते कम ही लोग जुटा पाएंगे। क्या हम कभी कह पाएंगे कि तिहाड़ के लिए ही धरती पर ‘अवतरित’ हुए अमर सिंह के साथ-साथ बार-बार गलबहियां करने का रिश्ता अवसरवादिता के अलावा और क्या कहलाता है।

ये इत्तेफाक ही है कि अपने सबसे बुरे दौर में भी जब अमिताभ मजबूरी में छोटे पर्द पर आए तो छोटे पर्दे का क़द भी बड़ा हो गया। दरअसल, स्क्रीन पर अपनी सहजता के मामले में अमिताभ का कोई सानी नहीं है। पिछले दस सालों सालों के फ्रेंच कट अमिताभ की दसेक फिल्मों को छोड़ दें तो हर फिल्म में वो एक ही तरह के नज़र आते हैं, फिर भी उनसे कोई बोर नहीं होता। छोटे पर्दे पर भी उन्हें बार-बार करोड़पति बनाने के लिए ही बुलाया गया फिर भी ताज्जुब नहीं होता। होता भी है तो कहने की हिम्मत नहीं करता कि अमिताभ आप जिस दौर के महानायक थे, वो दौर कोई और था। इस दौर में आपकी फ्रेंच दाढ़ी और उसके पीछे से आती गहरी आवाज़ सिर्फ सबसे बिकाऊ कही जा सकती है, सबसे लोकप्रिय या महान नहीं।

हम उस दौर में धरती पर नहीं थे जब अमिताभ महानायक हुआ करते थे। अवशेषों के आधार पर अगर सचमुच मान भी लेते हैं कि अमिताभ सचमुच कभी के महानायक रहे थे तो क्या ये दौर बीता हुआ नहीं मान लेना चाहिए। अब मल्टीप्लेक्स का दौर है और मल्टीप्लेक्स की फिल्मों से कोई महानायक निकलने की उम्मीद किया जाना ठीक उसी तरह है जैसे नाक से गाने वाले किसी गवैये को संगीत का ‘इंडियन आइडल’ मान लेना।

माँ के प्यार जितनी अथाह दुनिया के
बित्ते भर हिस्से में,

सिर्फ नाच-गाकर
बन सकता है कोई,
सदी का महानायक

फिर भी ताज्जुब नहीं होता।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 15 अगस्त 2011

प्रकाश झा का 'यूफोरिया' उर्फ आरक्षण...

अंग्रेज़ी में ‘यूफोरिया’ शब्द की तस्वीर में एक तरह के मानसिक उन्माद की स्थिति उभरती है जहां सावन के अंधे को सब हरा ही हरा लगता है...साइंसदानों की भाषा में इस परिस्थिति को Ideal state या आदर्श स्थिति भी कह सकते हैं जो असल में मुमकिन नहीं होती...आरक्षण के निर्देशन में प्रकाश झा फिलहाल उसी स्थिति के मारे दिखते हैं...ऐसी स्थिति तब आती है, जब आप ओशो या किसी और आध्यात्मिक गुरु की शरण में हों । प्रकाश झा शायद किसी ऐसे ही बॉलीवुडिया कहानी क्लब के मेंबर लगते हैं जहां होम्योपैथी की मीठी गोलियों की तरह मीठी-मीठी कहानियां बुनी जाती हैं। ‘राजनीति’ में इस मीठी गोली का असर कम था और ‘आरक्षण’ तक आते-आते साइड इफेक्ट भी ज़ाहिर होने लगे हैं। हालांकि, फिल्म का नाम बदल दिया जाए तो एक बार देखने में बुराई भी नहीं है।

आरक्षण जैसे विकराल, संवेदनशील और जटिलतम मुद्दे का इतना आसान समाधान निकालना प्रकाश झा की फिल्मी मजबूरी भी है और एक हद तक सफलता भी। सफलता इस मायने में कि वो बिना किसी पार्टी या विचारधारा पर चोट किए हुए अपनी कहानी का नाम भर ‘आरक्षण’ रख लेते हैं और इतने भर से उन्हें इतनी बदनामी मिलती है कि फिल्म आपकी-हमारी ज़ुबां पर चढ़ चुकी है। हालांकि, फिल्म रिलीज़ के तीसरे दिन ही हॉल इस क़दर ख़ाली था जैसे दिल्ली में कोई साउथ इंडियन मूवी लगी हो।

फिल्म की कहानी में आरक्षण का मुद्दा नमक जितना ही मौजूद है। बाक़ी तो अमिताभ ही अमिताभ हैं। वो अपने भारी-भरकम आवाज़ में जो भी कहते हैं, सच जैसा लगता है। हालांकि, उन्हें अब किसी सलीम-जावेद की ज़रूरत नहीं, मगर फिल्म में वो ‘एंग्री ओल्ड मैन’ बनकर उभरे हैं और केयरिंग ओल्ड मैन’ भी । उनके पास अब उम्र कम बची है वरना इस रोल की ताज़गी मुझे कई दिनों बाद अच्छी लगी। वैसे फिल्म के पहले हाफ में वो धृतराष्ट्र की तरह दिखते हैं, जहां सब कुछ होता जाता है और वो उसूलों का खूंटा गाड़े रहते हैं।

ख़ैर, प्रकाश झा की ‘आरक्षण’ में कुछ वैसी ही बुनियादी ख़ामिया हैं जैसी मजहर कामरान ‘मोहनदास’ बनाने में कर गए थे। विषय के मर्म से लगाव मेरी तरह का पाठक या छिटपुट कवि बना सकता है, बड़ा फिल्मकार नहीं। उसके लिए लंबा होमवर्क और फिर सही किरदार चाहिए जो मुझे नहीं दिखे। सैफ और दीपिका कहीं से भी इस फिल्म में नहीं लिए जाने चाहिए थे। अजय देवगन तो प्रकाश झा के फेवरेट थे, पर पता नहीं इस बार क्यों नहीं राज़ी हुए। और विद्या बालन की क़ीमत दीपिका से ज़्यादा तो नहीं। ऊपर से प्रतीक की एक्टिंग और उनके हिंदी में बोले डॉयलॉग्स ठीक वैसे ही नकली लगते हैं जैसे आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में ख़ेमों की राजनीति करते नेता। गाने प्रकाश झा की मजबूरी से बन गए हैं। फिल्म की शुरुआत में ज़बरदस्ती दो गाने टपक पड़ते हैं जब आप इसके लिए तैयार नहीं होते। ‘’एक चानस तो दे दे…’’ गाने के भाव गहरे हैं मगर प्रसून जोशी ने इसलिए तो नहीं ही लिखे होंगे कि प्रतीक छिछोरे अंदाज़ में इस जुमले का प्रयोग दीपिका पर लाइन मारने के लिए लुटा दें। हालांकि, छन्नूलाल जी की आवाज़ में ‘’सांस अलबेली..’’ लाजवाब गीत है।

अब कहानी पर आते हैं। ठीक वैसे ही भटकी हुई है, जैसे देश में आरक्षण का मुद्दा भटका हुआ है। फिल्म में बस शिक्षा के बाज़ार बनते जाने के बीच में आरक्षण को लेकर कुछ नाटकीय डायलॉग्स हैं जिन्हें हम बार—बार थियेटर में सुन चुके हैं। दलितों-वंचितों के दुख से अनजाने में आहत और ब्राह्मणवाद से त्रस्त इस पीढ़ी को ही हर क़ीमत चुकानी है और ये हर जाति-वर्ग की त्रासदी है। पटना के सुपर-30 से लेकर रांची, दिल्ली कोटा तक पसरे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों के पीछे की दुकानदारी के बीच प्रकाश झा वैसी ही उम्मीद लेकर आए हैं, जैसे मजबूर मनमोहन के अंगूठे की छाप पर यूपीए ‘राइट टू एजुकेशन’ लेकर आई थी। इस बात के लिए प्रकाश झा को दाद मिलनी चाहिए कि उन्होंने अपनी तमाम क्षमताओं के साथ नई पीढ़ी को हर तरह से बराबर एक समाज का सपना दिखाया है। हालांकि, ऐसा उत्थान तो लालू यादव भी चरवाहा विद्यालय खोलकर चाहते थे मगर मंशा ठीक न हो तो फिल्म और हकीकत दोनों ही फालतू लगते हैं। प्रकाश झा को ऐसे मुद्दों पर किसी फिल्मी राइटर से अच्छा किसी पॉलिटिकल या कम से कम साहित्यिक राइटर से कहानी में मदद लेनी चाहिए थी ताकि फिल्म में मसाले के अलावा भी कुछ स्वाद आता।

अब एक सीन देखिए। आरक्षण के नाम पर अचानक बवाल कटा है और माहौल एकदम सीरियस है। इन सबके बीच दीपिका अपने दीपक के साथ मूवी देखने को बेकरार है। ये उतना ही गैर-ज़िम्मेदाराना था जितना उस मीडियाकर्मी का अमिताभ से सवाल कि आप प्रिंसिपल से अपराधी बन गए, क्या कहना चाहेंगे। या फिर उस पंडित छात्र का विशुद्ध हिंदी बोलना और बात-बेबात अमिताभ का फिलॉसॉफी झाड़ना। (दीपिका यूं ही नहीं ऊबकर कह देती है कि डैडी, आई हेट माई लाइफ)। मनोज वाजपेयी फिल्म-दर-फिल्म उम्दा होते जा रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं। ठीक उसी स्पीड से जैसे प्रकाश झा स्तर खोते जा रहे हैं।

कुल मिलाकर आरक्षण की मूल व्यवस्था के खिलाफ लगती है प्रकाश झा की ‘आरक्षण’। पूरी तरह से नहीं, मगर इस मायने में कि मुद्दे की नस को समझ ही नहीं पाए प्रकाश झा। कोचिंग संस्थानों के बीच से गुदड़ी के लाल निकालने के लिए ही लड़ते रह गए पूरी फिल्म में। तभी तो हमारी जाननेवाली आंटी से मैंने जब पूछा कि फिल्म देखने क्यों नहीं गईं तो उन्होंने कहा कि मैंने वाशिंग मशीन में कपड़े डाले हुए थे और अगर मैं फिल्म में टाइम ख़राब करती तो कपड़े ख़राब हो जाते !!

निखिल आनंद गिरि

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