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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

तीन जोड़ी आँखें

एक पतंग थी
तीन दिशाएं थीं..
तीन दिशाओं में उड़ गईं तीन पतंगे थीं...

एक सपना था

तीन सपने थे
तीन सपनों के बराबर एक सपना था....

एक मौन था
एक रात थी
तीन युगों के बराबर एक रात थी

एक ख़ालीपन भर गया रात में
फिर मौन तिगुना हो गया
अंधेरे भर गए तीन गुना काले

एक रिश्ता खो गया उस रात में
ढूंढ रही हैं तीन जोड़ी आंखें...
एक-दूसरे से टकरा जाएंगी एक दिन अंधेरे में।

निखिल  आनंद गिरि



गुरुवार, 4 अगस्त 2011

कहीं बीच में जो रुकी है कहानी...

राशि मेरी ज़िंदगी में थोड़े वक्त के लिए ही आई....आप हमारे छोटे-से रिश्ते को दोस्ती कह सकते हैं या ज़्यादा समझ रखने वाले प्यार भी समझ सकते हैं...अगर ये प्यार है, तो मुझे प्यार कई बार हो चुका है...(प्रेमिकाएं मुझे गालियां दे सकती हैं...)..जिस तरह अचानक ज़िंदगी में आई, चली भी गई...हमारी मुलाकात न तो दोबारा हुई और न ही ऐसी कोई संभावना है...फ्रेंडशिप डे के ठीक पहले अचानक एक चिट्ठी आई तो सोचा यहीं शेयर कर लूं...बहुत दिन हुए, दिल्ली में किसी से इतना प्यार पाए...अगर आप भी किसी अच्छे दोस्त को याद करना चाहते हैं तो टूटी-फूटी नज़्म ही लिख कर भेज दें....प्यार में डूबे हर कच्चे-पक्के शब्द को नोबेल दिया जाना चाहिए..दिल से ही सही..

प्रिय निखिल,

आपसे वादा किया था कि आपके लिए कुछ लिखेंगे, तो बस आँखें बंद करके कुछ यादें इकठ्ठा करके, उनको तोड़ मरोड़ के, एक कविता लिखने का प्रयास किया मैंने... लिखते चले गए, ख्याल आया काफी लम्बी हो गयी है कविता पर कहने को अभी भी काफी कुछ बाकी है...जो कहना बाकी है वो आपको पता है और हमको भी तो फिर कहने की क्या ज़रुरत और फिर कुछ बातों सिर्फ हम दोनों के बीच राज़ है, वह मैं औरों से बांटना नहीं चाहती...आशा है आपको पसंद आएगा ये प्रयास...

ऐसे तो और भी बहुत कुछ है लिखने को,
लेकिन जिस पर लिखने जा रही हूं, वो भी कुछ कम नहीं है...
आज ही सवेरे फिर मिल गया...
जब भी मिलता है मुझको,
अपने आप से मिलवा देता है....
ऐसे बड़ा ज़िंदादिल है मगर,
कहीं कुछ छिपा है...

कॉलेज के एकमात्र खंडहर-से पुस्तकालय में.
चुड़ैल-सी शक्ल बनाए बैठा था वो..
जैसे निखिल आनंद गिरि नहीं हिंदी का रचयिता हो...
ऐसे हर वक्त ऐँठता है वो...
मौका मिलते ही शेखी बघारने से बाज़ नहीं आते जनाब,
उनके हिसाब से दुनिया में उनको छोड़कर बाक़ी सब हैं ख़राब
इन सब के पीछे मगर एक शांत, थोड़ा शैतान-सा बच्चा है...
उस काली कलूटी शक्ल के पीछे मगर जो दिल है, वो अच्छा है....

दोस्ती करमे में तो माहिर हैं हुजूर,
दिल तोड़ने का फन भी जानते हैं ज़रूर
इतना सोचते हैं कि ख़ुद को खो दिया है...
कोई पूछ ले कान ऐंठ के..
मुंह फुला के कहता है 'मैंने क्या किया है...'

अंग्रेज़ी अच्छी है लेकिन अंग्रेज़ी से ख़ास लगाव नहीं है...
उनके हिसाब से नदी का आजकल सीधा बहाव नहीं है...
एक वो है बाहर से तो दुनिया से रुठे हुए-से हैं...
पर लगता है जनाब अंदर से ख़ुद टूटे हुए-से हैं...

पीछे पड़ जाना इनकी आदत में शामिल है,
और बात का बतंगड़ बनाने में इन्हें महारत हासिल है...
मिट्टी की खुशबू आती है जब भी ये बोलते हैं,
न जाने अनजाने में ये ऐसे कितनों के पोल खोलते हैं...

एक रास्ता मुझे भी दिखाया था कभी,
वहीं भूल आयी थी अपना एक हिस्सा
याद आया अभी...

एक दुनिया दिखाई थी उम्मीद की,
सपनों की और  विश्वास की...
आज वही उम्मीद, सपने और विश्वास...
वजह हैं हमारी सांस की....

सिखाया था मुझे विश्वास करना अपने ख़्वाबों पर,
सिखाया था मुझे दिल जीतना किसी का सिर्फ बातों पर....

आज देखती हूं तो लगता है,
अपनी ज़िंदगी की ही एक ख़ूबसूरत झांकी है..
हां, तुम ठीक कहते थे निखिल आनंद गिरि
सिर्फ नाम ही काफी है...

राशि

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

काश ! रात कल ख़त्म न होती...

सुबह-सुबह जब आंख खुली तो
एक घोंसला उजड़ चुका था....
स्मृतियों के गीले अवशेष बचे थे
तिनका-तिनका बिखर चुका था....

सूरज की अलसाई किरणें
दीवारों से जा टकराईं
पहली बार.....
मायूसी ने कमरे में पाँव पसारे
हंसी उड़ाई.....

पहली बार....
लगा कि जैसे घड़ी की सुईयां
उग आयी हैं बदन में मेरे

बिस्तर से दरवाज़े तक का सफ़र
लगा कि ख़त्म न होगा...
सुबह का पहला पहर
लगा कि ख़त्म न होगा....

रात एक ही प्लेट में दोनों
खाना खाकर, सुस्ताये थे...
देर रात तक बिना बात के
ख़ूब हँसे थे, चिल्लाये थे....
काश !! रात कल ख़त्म न होती.....

अभी किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी है...
मैंने सोचा-तुम ही होगे...

आनन-फानन में बिस्तर से नीचे उतरा
हाथ मेज से टकराए हैं...
खाली प्लेट नीचे चकनाचूर पड़ी है
दरवाज़े पर कोई दस्तक अब भी खड़ी है.....

मैं बेचैन हुआ जाता हूँ
बिस्तर से दरवाज़े तक का लम्बा रस्ता तय करता हूँ....
कोई नहीं है ...........

एक हँसी का टुकडा शायद तैर रहा है
दूर कहीं पर ....
आंखों में गीली मायूसी उभर रही है....
एक नदी मेरे कमरे में पसर रही है.....

और मैं
संवेदना का पुल बनाकर
इस नदी से बच रहा हूँ
और आंखों के समंदर से तुम्हारा
अक्स फिर से रच रहा हूँ..........

निखिल आनंद गिरि

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