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शुक्रवार, 24 मई 2024

याद का आखिरी पत्ता

विजय
छल पर निश्छल की
कोलाहल पर शांति की
युद्ध पर विराम की
अनेक पर एक की
हंसी पर आंसू की 
मृत्यु
एक उपलब्धि है
जिस पर गर्व करना मुश्किल है

तुमने वह पा लिया मुझसे पहले
जिसके बाद कुछ पाने की इच्छा नहीं बचती
मृत्यु बुद्ध हो जाना है
रोना, कलपना, मिलना बिछड़ना
सब छोड़ शुद्ध हो जाना है

मन एक साथ इतनी आवाज़ें करता था
अब शांत है
स्मृतियां धीमे धीमे टहलती हैं

हमारी याद में एक नंबर पर चलती गाड़ी है 
एक फिरोज़ी रंग की नहीं खरीदी गई साड़ी है
एक रिसता हुआ नल है
सीलन वाली दीवार है
एक नहीं सुनी गई पुकार है
और कभी न खत्म होने वाला इंतजार है

उस पत्ते पर अब तुम्हारा चेहरा है
जो बोधिवृक्ष से टूट कर गिरा था
हमारी याद में एक पत्ता खड़कता है
और उसे छू लेने को
मुझ सा कोई अनंत तक लपकता है।

निखिल आनंद गिरि

मरने की फुरसत

गो कि यही चलन है मेरी दुनिया का
जीते जी भुला दिए जाते हैं लोग
अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो

ख़ैर बताओ बातें अपनी दुनिया की
कुछ तो अलग दिखाई देता होगा सब
क्या वहां भी पैदल चलना पड़ता है
चलते चलते चप्पल टूट भी जाती है
क्या वहां भी मुझसा कोई हाथों में
टूटी चप्पल लेकर मीलों चलता है

क्या वहां भी छोटी मोटी अनबन पर
साथी यूं ही रूठ जाया करते हैं
या फिर जैसे तुम्हें थी जल्दी जाने की
वहां भी ऐसे हाथ छुड़ाया करते हैं
फिर सालों तक आंसू वाली रातों में
सपने बनकर आया जाया करते हैं?

वहां किताबें तो होंगी ना पढ़ने को
जिसमें कोई फूल की पत्ती रहती हो?
बाग बगीचे घुघू पाखी की चीचीं 
और नदी भी कोई धीमे बहती हो?
यहां नदी में उतरी थीं तो पार गईं 
वहां नदी से आने की ज़िद करती हो?

मेरा क्या है मैं तो जैसा तैसा हूं
तुम्हें ही ज़्यादा सर्दी गर्मी लगती थी
मीठी वाली गोली तुम्हें खिलाने को
मन बहलाने को रखनी ही पड़ती है
वहां की दुनिया में भी क्या बीमारी से
अच्छे भलों की दुनिया रोज़ उजड़ती है?

अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो
इस दुनिया से उस दुनिया की दूरी का
कोई भी अंदाज़ा मुझको मिल जाता
तो मैं बच्चों के साथ कुछ ना कुछ करके
तुमसे मिलने ट्रेन पकड़ के आ जाता

ठीक से रहना, तुम्हें ठीक की आदत थी
मैं तो जैसे तैसे ठीक ही रहता था
तुमको जाने की जल्दी थी चली गईं
वक्त के आगे किसकी लेकिन चलती है
यहां तुम्हारी उम्र भी मुझको जीनी है
मरने की फुरसत ही नहीं निकलती है।

निखिल आनंद गिरि

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