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रविवार, 22 जून 2025

भयानक अंधेरे में दीवार टटोलते कवि का संग्रह है – ‘गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’

फ़रीद ख़ां अपने कविता संग्रह गीली मिट्टी पर पंजों के निशान की भूमिका में पहले पन्ने पर ही स्पष्ट करते हैं कि इस संग्रह की सभी संकलित कविताएं वर्ष 2010 से 2020 के बीच लिखी गई हैं। फिर यह भी कि इन कविताओ की जड़ें उनके बचपन और उनके शहर पटना तक जाती हैं। यह एक ईमानदार बयान तो है लेकिन अंतिम सत्य नहीं। यही इस संग्रह को पठनीय बनाता है।

इस संग्रह की कविताएँ सिर्फ अतीत की मीठी गोलियां ही नहीं, अतीत की बुनियाद पर वर्तमान में खड़े कवि और उसके भविष्य की शंकाएँ भी बताती हैं। एक छोटी कविता है, जो इस संग्रह की दूसरी कविता है - वह’, देखिए -

वह गली नुक्कड़ पर तनकर खड़ा था।

लोग आते जाते सिर नवाते चद्दर चढ़ाते उसको।

 

दीमक ने अपना महल बना लिया था, अंदर ही अंदर उसके।

मैंने जब वरदान मांगा तो वह ढह गया। (कविता – वह)

 

दीमक का महल बना लेना एक दिन की प्रक्रिया नहीं होती। लंबा समय लगता है। दीमक जहां घर बना ले, उस जगह को छोड़ देना ही बेहतर होता है। एक कवि अगर इस ख़तरे को पहचानता है तो उसे पढ़ा जाना चाहिए। उस कवि ने अपने समय में, इन कविताओं के रचना काल के लिहाज़ से देखें तो पंद्रह सालों के दौरान, इस दीमक को महल बनाते देखा है और उसमें एक कवि का डर यह है कि वह इन दीमकों से बचकर कहीं नहीं जा सकता। यह बचपन या डर की मीठी स्मृतियां कवि के डर की निर्मिति और प्रवेश भी कविताओं के ज़रिए बताती है।

यह डर सिर्फ मनुष्य के भीतर पनप रहा डर नहीं है। वह हर तरफ से आता है, हर तरफ़ पसरता है। एक बाघ जो शिकारियों से घिर चुका है, वह पलटकर कहता है – मैं तुम्हारे बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी हूं, मुझे मत मारो

बाघ फ़रीद की कई कविताओं में कई तरह से आता है। मां ने बाघ के आकार वाली रोटी अपने बच्चे को खाने में दी, नानी के चश्मे से बच्चे बाघ की तरह दिखते हैं।

बाघ से याद आया कि इस कविता के आवरण पृष्ठ पर उदय प्रकाश की टिप्पणी है, जो उन्होंने एक और बाघ’ कविता की तारीफ़ में कही थी। यह कविता अंधेरे में कंदील की तरह है, हाशिये में पड़ी एक ऐसी कविता जो हिंदी कविता में एक प्रस्थान बिंदु की तरह है और आकस्मिक है। यह टिप्पणियां कविता संग्रह के शुरू में नहीं देनी चाहिए वरना रणजी ट्रॉफी में विराट कोहली के खेलने से पैदा हुई अश्लील भव्यता जैसा ख़तरा रहता है। बहरहाल..  

जिन कविताओं में शहर, डर, भविष्य, ख़तरा जैसे तत्त्व एक साथ गुंथकर आते हैं, कविता मारक बनकर उभरती है।

मैंने पूछा उससे केवल एक ही सवाल

जिसने उठा रखा था हथियार क्रांतिकारी के वेश में,

बस एक ही सवाल,

कि अगर सौंप दी गई देश की बागडोर तुम्हें,

तो पहला काम क्या होगा जो तुम करोगे?

हमारा पक्ष चाहिए तो देना होगा जवाब!!!

उसने चला दी गोली, और मैं मारा गया सरेआम!!!! (कविता – मारा गया मैं)

इस तरह से देखें तो यह संग्रह फ़रीद ख़ां की स्मृति, शहर और डर की सूक्ष्म पहचान और उसमें भविष्य के ख़तरे पहचानने का संग्रह है। वर्तमान का डर और भविष्य का ख़तरा इतना अधिक है कि मजबूरी में स्मृतियों के सहारे ख़ुद को पुचकारने की कोशिश की गई है। जैसे फिल्म थ्री इडियट्स में ख़तरे को ‘’ ALL IS WELL” कहकर टरकाता नायक। असलियत यह है कि फ़रीद ख़ां नाम के कवि के पास वर्तमान में मीठी स्मृतियां बस लॉलीपॉप की तरह ही हैं, और इस व्यवस्था या सत्ता में कुछ मीठा सोचने को नहीं है।

पटना की स्मृति में छठ का आना (कविता – छठ की याद में) या गंगा के पानी का मस्जिद को लात मारकर छेड़कर कहना कि अबे मुसलमान, कभी मेरे पानी स नहा भी लिया कर (कविता – गंगा मस्जिद) अनायास नहीं है। यह एक इंसानियत का सपना संजोते हिंदुस्तानी कवि का बारीकी से कविता में राजनैतिक दख़ल है। कविता गंगा की छेड़छाड़ से अठारह साल बाद उस मीनार पर पहुंचकर देखती है कि सरकार ने अब वुज़ू के लिए साफ पानी की सप्लाई करवा दी है। गंगा कवि को देखती है, कवि गंगा को मगर मस्जिद किसी और तरफ़ देख रही है।

जिस रिदम में यह आलेख लिख रहा हूं, उसमें कवि की प्रेम कविताओं का ज़िक्र न किया जाना ही लाज़िम है। कुछ अच्छे मुहावरे हैं (तुमने मुझे सेंका और पकाया है), मेटाफ़र हैं, मगर यह कवि का मूल स्वर नहीं है।

फ़रीद की कविताओं में किस्सागोई बहुत है। लगभग हर कविता कहानी से शुरू होकर कविता बन जाती है। डर की कहानी है। बाघ की कहानी है। लकड़ सुंघवा की कहानी है। दादाजी साइकिल वाले की कहानी है जो इंदिरा गांधी की हत्या पर गुरु नानक की तरह सिर झुकाए निर्विकार से बैठे थे। कंस्ट्रक्शन साइट पर रोटी सेंक रही आदिवासी औरत, व्यवस्था से तंग आकर मजबूरी में नक्सली बने आम आदमी की कहानी है, हत्यारे तक की कहानी है।

कुछ कविताओं के विषय या कहानियां अच्छी हैं, मगर कविता नहीं। कविता की शुरुआत ही एक अच्छी पंक्ति या सूक्ति से होती है और फिर पूरी कविता अपने पूरा होने की औपचारिकता ढोती है। कई बार यह सूक्ति भी अपने आप में एक मुकम्मल कविता या हिंदी काव्य पंक्तियों में पैराडाइम शिफ्ट की तरह हैं –

उसकी बीवी ने अपनी जान बचाने कि लिए आत्महत्या कर ली (कविता – सोने की खान)

वह पंजा ही है जो बाघ और साहित्यकार को बनाता है समकक्ष।

दोनों ही निशान छोड़ते हैं।

मारे जाते हैं। (कविता – बाघ के पंजे)

 

देश को ज़रूरत है सच के प्रशिक्षण की। (कविता – इंसाफ़)

 

अब अख़बार पढ़ने से ज़्यादा बेचने के काम आते हैं (कविता -बिक रहे हैं अख़बार)

 

हिंसा का इतिहास पुरुषों का इतिहास रहा है। (कविता - अपमान की परम्परा का इतिहास)

 

आज़ान की आवाज़ नहीं थी मेरे कान में पहली आवाज़। वह मां की चीख़ थी। (कविता – मैं काफ़िर हूं)

 

कुछ कविताए इस कसौटी पर भी अद्भुत हैं जैसे – क्यों लगता है ऐसा

पता नहीं क्यों हर बार लगता है,

रेल पर सफ़र करते हुए कि टीटी आएगा और टिकट देखकर कहेगा

कि आपका टिकट ग़लत है

या आप ग़लत गाड़ी में चढ़ गए हैं...

 

संग्रह में शिल्प के लिहाज़ से अच्छी और अनुभव की दृष्टि से साहसी कविताओं की कमी नहीं – जैसे मुस्कुराहटें, अल्लाह मियां, चांद, पिटने वाली औरतें, धोखा, मादक और सारहीन।

इस तरह से कुछ ख़राब कविताओं का ज़िक्र भी यहां किया जा सकता था, मगर पंक्तियों के बीच बहुत कुछ छोड़ देना भी ज़रूरी होता है।


कविता संग्रह - गीली मिट्टी पर पंजों के निशान

मूल्य - 260/- रुपए

प्रकाशक - सेतु प्रकाशन

कुल पृष्ठ - 144


निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

मैं लौटता हूं

 प्रिय दुनिया,
बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया!
मैं इतने दिन कहां रहा
कैसे बचा रहा
यह बताना ज़रूरी नहीं
मगर सब कुछ बचाते बचाते
खुद न बचने का डर वापस लाया है।

इस बीच एक लंबी रात थी
जो शायद अब भी है
मगर अंधेरे में दिखने लग जाता है
लंबी रातों में।
एक बार उदासी कुछ यूं थी कि
मैंने किसी गिलास को पकड़ने के बजाय
एक औरत की गर्दन पकड़ ली
बहुत देर बाद मालूम हुआ
अंधेरा कितना खतरनाक,
कितना अंधेरा हो सकता है।

मुझे अंधेरे में कई हाथ दिखते हैं
कई गर्दनें दिखती हैं
संभव है ज्यादातर औरतों की गर्दनें हों
मुझे लगता है कि जब देखूंगा
उजाले में उन हाथों को
क्या उनके हाथ में उजाले की गर्दन भी होगी?

इन भुलाए गए बहुत दिनों में
मैं एक बंद कमरे को दुनिया समझता रहा
ऐसा कई लोग करते हैं अपने उदास दिनों में
मगर कहने की हिम्मत नहीं करते।

इसी बीच कुछ प्यार करने का मन हुआ
तो मैंने अपनी चीख से प्यार किया
उस लड़की का चेहरा भी दिमाग में आया
जिसे कभी किसी से प्यार की उम्मीद नहीं रही।
मैं कई बार लड़ा अपने डर से
दवाईयों से, घर से
कई बार तो डॉक्टर से।

तो मैं कहना चाहता हूं जो
सिर्फ इसी भाषा में संभव है
कि दुनिया में कुछ भी इतना प्यारा नहीं
जितना भुलाए जाने का डर।

मैं लौटता हूं
अपने तमाम डर के साथ
कविता की तरह नहीं
बरसों बाद लौटी चीख की तरह।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 मई 2024

याद का आखिरी पत्ता

विजय
छल पर निश्छल की
कोलाहल पर शांति की
युद्ध पर विराम की
अनेक पर एक की
हंसी पर आंसू की 
मृत्यु
एक उपलब्धि है
जिस पर गर्व करना मुश्किल है

तुमने वह पा लिया मुझसे पहले
जिसके बाद कुछ पाने की इच्छा नहीं बचती
मृत्यु बुद्ध हो जाना है
रोना, कलपना, मिलना बिछड़ना
सब छोड़ शुद्ध हो जाना है

मन एक साथ इतनी आवाज़ें करता था
अब शांत है
स्मृतियां धीमे धीमे टहलती हैं

हमारी याद में एक नंबर पर चलती गाड़ी है 
एक फिरोज़ी रंग की नहीं खरीदी गई साड़ी है
एक रिसता हुआ नल है
सीलन वाली दीवार है
एक नहीं सुनी गई पुकार है
और कभी न खत्म होने वाला इंतजार है

उस पत्ते पर अब तुम्हारा चेहरा है
जो बोधिवृक्ष से टूट कर गिरा था
हमारी याद में एक पत्ता खड़कता है
और उसे छू लेने को
मुझ सा कोई अनंत तक लपकता है।

निखिल आनंद गिरि

मरने की फुरसत

गो कि यही चलन है मेरी दुनिया का
जीते जी भुला दिए जाते हैं लोग
अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो

ख़ैर बताओ बातें अपनी दुनिया की
कुछ तो अलग दिखाई देता होगा सब
क्या वहां भी पैदल चलना पड़ता है
चलते चलते चप्पल टूट भी जाती है
क्या वहां भी मुझसा कोई हाथों में
टूटी चप्पल लेकर मीलों चलता है

क्या वहां भी छोटी मोटी अनबन पर
साथी यूं ही रूठ जाया करते हैं
या फिर जैसे तुम्हें थी जल्दी जाने की
वहां भी ऐसे हाथ छुड़ाया करते हैं
फिर सालों तक आंसू वाली रातों में
सपने बनकर आया जाया करते हैं?

वहां किताबें तो होंगी ना पढ़ने को
जिसमें कोई फूल की पत्ती रहती हो?
बाग बगीचे घुघू पाखी की चीचीं 
और नदी भी कोई धीमे बहती हो?
यहां नदी में उतरी थीं तो पार गईं 
वहां नदी से आने की ज़िद करती हो?

मेरा क्या है मैं तो जैसा तैसा हूं
तुम्हें ही ज़्यादा सर्दी गर्मी लगती थी
मीठी वाली गोली तुम्हें खिलाने को
मन बहलाने को रखनी ही पड़ती है
वहां की दुनिया में भी क्या बीमारी से
अच्छे भलों की दुनिया रोज़ उजड़ती है?

अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो
इस दुनिया से उस दुनिया की दूरी का
कोई भी अंदाज़ा मुझको मिल जाता
तो मैं बच्चों के साथ कुछ ना कुछ करके
तुमसे मिलने ट्रेन पकड़ के आ जाता

ठीक से रहना, तुम्हें ठीक की आदत थी
मैं तो जैसे तैसे ठीक ही रहता था
तुमको जाने की जल्दी थी चली गईं
वक्त के आगे किसकी लेकिन चलती है
यहां तुम्हारी उम्र भी मुझको जीनी है
मरने की फुरसत ही नहीं निकलती है।

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

एक आईने का ख़त

काश… कभी तुमसे कह पाती सुलेखा कितना चाहता है कनु तुम्हें इतनी बातें हैं दिल में पर तुम्हारे सिवा किसे सुनाऊँ? याद है मुझे वो जन्मदिन तुम्हार...