हिंदी के नाम पर होने वाले ‘दिवस’ पहले ‘सप्ताह’ बने, अब ‘पखवाड़ा’ होने लगे हैं। आप मेट्रो में सफर कर रहे 50 लोगों से पखवाड़े का मतलब पूछ लीजिए, कम से कम 40 लोग इसे ‘पिछवाड़ा’ ही समझेंगे। सरकारी हिंदी ने हमारा हाल ही ऐसा कर दिया है। आप किसी भी संस्थान में ऐसे पखवाड़ों में होने वाले कार्यक्रमों की लिस्ट उठाकर देख लीजिए। वही घिसी-पिटी प्रतियोगिताएं, वही पुरस्कार के नाम पर लार टपका कर भाग ले रहे प्रतिभागी और श्रोताओं-दर्शकों के नाम पर ख़ाली-ख़ाली कुर्सियां। ये ठीक वैसा ही है जैसा भारत सरकार का इस बार का 'स्वच्छता मिशन' जो इस बार सरकारी आयोजनों में नरेंद्र मोदी के जन्मदिन से शुरू होकर महात्मा गांधी के जन्मदिन पर ख़त्म होगा।
अभी कुछ दिन पहले हिंदी का सबसे ज़्यादा बिकने वाला अखबार ‘दैनिक जागरण’ एक ‘बेस्टसेलर’ लिस्ट लेकर आया। यह हिंदी साहित्य के बेस्टसेलर साहित्य की सूची थी (कहानियां, लेख आदि)। इस अखबार ने इस महान सूची को तैयार करने में इतनी रिसर्च की, इतनी रिसर्च की कि एक ही प्रकाशक की सात किताबें टॉप टेन में शामिल करनी पड़ीं। प्रकाशक भी ऐसा कि कभी हिंदी को ‘ख़ून’ देने के मिशन के नाम पर शुरू किया गया शैलेश भारतवासी का ‘हिंदयुग्म’ ‘छपास’ लेखकों की जेब चूसकर हिंदी का ‘बेस्टसेलर’ प्रकाशक बन गया। एक ऐसा प्रकाशक जहां कहानियां बाद में लिखी जाती हैं, राइटर बाद में तय होते हैं, ऑनलाइन प्री-बुकिंग पहले शुरू हो जाती है। हिंदी को कैलेंडर से उतारकर ऐसे ‘बेस्टसेलर’ समय ने पांव पोंछने वाली दरी बना दी है। आप हिंदी के ‘सीईओ’ बन जाइए और अपने आसपास हिंदी का झंडा लेकर चार ‘बाउंसर’ लेखक-आलोचक रख लीजिए। थैंकयू।
सोशल मीडिया एक बची-खुची उम्मीद के तौर पर है। मगर सोशल मीडिया पर अच्छा ढूंढने के चक्कर में इतनी कविताएं हैं, इतनी हिंसा है, इतना ख़ून-ख़राबा है कि वहां भी ‘बड़े’ लोगों के लाइक के ‘लायक’ सिर्फ वही हैं, जो असल दुनिया में एक-दूसरे के चाटुकार कुनबे का हिस्सा हैं। मिसाल के तौर पर एक हिंदी साहित्यिक पत्रिका के संपादक की कहानी बताता हूं। एक बार उनके दफ्तर में कुछ कविताएं भेजीं। फिर तीन महीने बाद उन्हें याद दिलाया कि ‘सर, कुछ कविताएं भेजी हैं।‘ उन्होंने कहा, ‘हमारे सहायक से बात कीजिए’। फिर मैं सहायक से अगले छह महीने बात करता रहा। सहायक भी बात करते रहे। फिर उन्हें सोशल मीडिया पर मैसेज किया कि ‘सर, बात करते-करते आपके सहायक मेरे अच्छे मित्र हो गए हैं। अब कविताओं का क्या करूं।’ उनका जवाब आज तक नहीं आया। आप संपादक का नाम एकांत श्रीवास्तव से लेकर लीलाधर कुछ भी रख लीजिए, क्या फर्क पड़ जाएगा। सोचिए अगर ब्लॉग न होता, दो-चार भले संपादक और न होते तो इमानदार कवियों का ये पखवाड़े क्या उद्धार कर लेते।
कवियों से एक बात और याद आई। इस बार हिंदी पखवाड़े में ‘भारतीय जनसंचार संस्थान’ (IIMC) जाना हुआ। एक कविता प्रतियोगिता के जज के तौर पर। वहां क़रीब 65 कवि थे! मतलब कि देश के सबसे लोकप्रिय मीडिया संस्थान में हर संभावनाशील पत्रकार हिंदी का कवि होना चाहता है। मै चाहता हूं कि हिंदी के संवेदनशील लोग या कवि मीडिया चैनलों तक थोक भाव में पहुंचे वरना आपके घर में होने वाली सबसे बुरी घटनाओं को सबसे मसालेदार बनाकर हिंदी एंकर आपके मुंह में माइक ठूंस कर मुस्कुराते रहेंगे।
ज़्यादा लंबी छोड़िए, चलते-चलते इतना बताइए, पिछली बार से इस बार तक में कितने नेताओं, अधिकारियों, हिंदी प्रेमियों ने अपने बच्चों को हिंदी मीडियम स्कूल में दाखिला करवाया और फेसबुक पर स्टेटस डाला। अगर आपका जवाब 'ना' हा तो मुझसे पलटकर सवाल मत कीजिएगा वरना हिंदी में एक गाली निकल जाएगी।
निखिल आनंद गिरि