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शनिवार, 7 अप्रैल 2012

मौत को क़रीब से देखना हो तो ''टाइटैनिक'' देखिए...

मौत को क़रीब से देखना हो तो 'टाइटैनिक' देखिए। थ्रीडी चश्मे से और करीब दिखती है मौत। एकदम माथे को चूमती हुई। सौ साल पुराना एक हादसा। हादसा क्या पूरा का पूरा प्रलय ही।
पिछली बार जब टाइटैनिक देखी थी तो स्कूल में था। कम से कम 14 साल पहले। किताब में टाइटैनिक का नाम सुना था और एक नंबर पाने के लिए इसके डूबने की तारीख भी याद थी। तब न थ्री डी के बारे में कुछ मालूम था और न मॉल या मल्टीप्लेक्स के बारे में। जुगाड़ से कुछ दोस्तों ने फिल्म देखी थी और बताया था कि टाइटैनिक इसीलिए देखनी चाहिए कि फिल्म का हीरो केट विंसलेट को न्यूड पेंट करता है और बहुत बड़े जहाज़ के किनारे समंदर की ऊंचाई पर खड़े होकर कुछ अच्छे रोमांटिक सीन भी हैं। वही सीन जो बाद में शाहरुख  बार-बार बांहें लहराकर बॉलीवुड की फिल्मों में दोहराते हैं और किंग खान बन जाते हैं। इस बार इसके आगे की टाइटैनिक देखने के लिए गया था।

फिल्म देखते हुए कई बार लगा जैसे हम भी सौ साल पहले उस जहाज़ में सवार हों। यही सिनेमा की सफलता है कि आपको किसी दूसरे टाइम और स्पेस से उठाकर अपने मनचाहे स्पेस में थोड़ी देर के लिए फिट कर दे। भोपाल गैस हत्याकांड से लेकर सुनामी, भुज और गोधरा, सब हिंदुस्तान में हुए, मगर मौत का इतना विराट, इतना महीन विश्लेषण अब तक किसी हिंदी (भारतीय) सिनेमा में कम देखा है। एक ऐसी प्रेम कहानी जो मौत की कसौटी पर भी दम नहीं तोड़ती। जेम्स कैमरून की सबसे उदास कविता है टाइटैनिक। दो प्रेमियों को जब सागर आगोश में लेने ही वाला होता है, तब भी वो एक-दूसरे पर भरोसे का वादा दोहराते हैं। ये एक ऐसी अद्भुत कल्पना है जिसे वही महसूस कर सकता है, जिसने शिद्दत से किसी की कमी महसूस की हो। और फिर काले चश्मे के भीतर से इस अहसास को जीने का सबसे बड़ा फायदा ये भी है कि कोई रोते हुए भी नहीं पकड़ सकता।

पूरी फिल्म ही अद्भुत पेंटिंग की तरह है। समंदर की भूख टाइटैनिक को निवाला बनाने ही वाली होती है तो कैमरुन एक बुज़ुर्ग जोड़े को एक साथ लिपटकर रोते दिखलाते हैं। और फिर बच्चों को कहानियां सुनाकर अनंत काल के लिए सुलाती मां। और डूबतेृ-डूबते मौत की आखिरी धुन बजाते वो अमर कलाकार। टाइटैनिक के डूबने से सिर्फ एक जहाज ही नहीं डूबा, 'एलिट' महत्वाकांक्षाओं का वो किला भी डूब गया, जिसपर आज भी पूरी दुनिया ताज्जुब करती है मगर बाज़ नहीं आती।
आपको मौक़ा मिले तो एक बार टाइटैनिक ज़रूर देखिए। अगर पहले देख रखी हो तब भी देखिए। देखिए कि जिन उजालों के भरम में हम जिस रफ्तार से सूरज की तरफ भागते चले जा रहे हैं, वो पलक झपकते अंधा बना सकती हैं।
अच्छा हुआ, थ्रीडी का चश्मा मॉल के भीतर ही वापस रख लिया। बाहर दुनिया की बारीकियां इतनी क़रीब से दिख जाएं तो आदमी सौ बार ख़ुदकुशी कर ले।


चलते-चलते गुलज़ार की ये नज़्म भी गुनगुनाते चलें


मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

आओ ना, 'गुलज़ार' कभी मेरी बालकनी में


जन्मदिन मुबारक...
चाँद को ऐसी-वैसी
जाने कैसी-कैसी
शक्लें देता रहता है..
आप लगा लो बाज़ी
उसके भीतर कोई
नटखट बच्चा रहता है...

७५ की उम्र में वर्ना,
कौन इश्क की बातें करता..
इतनी मीठी बोली में,
गप्पें, हंसी-ठिठोली में...
ऐसी इक आवाज़ की बस,
आवाज़ से झट याराने हों...
ऐसी खामोशी की जिनमे,
दुनिया भर के अफ़साने हों...

जाने कितने मौसम उसने..
किसी फकीरे की मानिंद,
अपने चश्मे से तोले हैं..
सब जादूगर, सारे मंतर...
उसकी फूंक के आगे...
बेबस हैं, भोले हैं....

आओ ना, 'गुलज़ार' कभी मेरी बालकनी में
यही बता दो चाँद तुम्हारा क्या लगता है...
चुपके चुपके थोड़ी विरासत ही दे जाओ...
दर्द का सारा बोझ, कहो अच्छा लगता है..
(गुलज़ार के लिए..)
निखिल आनंद गिरि

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