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शनिवार, 9 अगस्त 2025

ग़लत पता

ओ मृत्यु!
तुम क्या किसी गलत द्वार आई थी
हमने तो नहीं बुलाया था तुम्हें
न ही दरवाज़े पर थी किसी दस्तक की आवाज़
दबे पांव कौन आता है संगिनी के भेस में।

अभी तो हम दुख में मुस्कुराना ही सीखे थे
मेरी बच्ची ने अकेलेपन से जीतना शुरू किया था
डॉक्टर उसे सबसे निरीह लगते लगे थे
जब वो देखती उन्हें मूर्तियों के आगे माथा टेक कर
अस्पताल में प्रवेश करते।

अभी तो उसने बोधगया ही देखा था
उड़ता हुआ आख़िरी पत्ता बोधिवृक्ष का
जीवन में उतरना बाक़ी रहा बुद्ध का।

चूहों का एक मंदिर होता है
अभी अभी जाना हमने
दूध पीकर सफेद चूहे कितने विस्मय से देखे उसने

कितने झूले, कितनी नदियां, कितने शहर
अभी घूमना रहा बाक़ी 
एसी के सारे डिब्बे में नहीं चढ़ी अब तक
हवाई जहाज़ बस दूर से देखा था उसने

न रांची के पहाड़ी मंदिर गई
न कोलकाता के दीघा घाट
न सिलीगुड़ी की चहल पहल
न केरल के ठाट।

अभी चिपक कर देखनी थी कई फिल्में
भीगना था किसी अल्हड़ बरसात में
मैगी पर गुज़ारनी थी कुछ बातूनी रातें
डिज़्नीलैंड घूमना था साथ में

फिर किस बहाने
किस कारण
आई तुम?

अगर पता ग़लत हो तो 
लौट आती है बैरन चिट्ठियां
क्या मृत्यु ग़लत नहीं होती कभी!


निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 24 मई 2024

मरने की फुरसत

गो कि यही चलन है मेरी दुनिया का
जीते जी भुला दिए जाते हैं लोग
अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो

ख़ैर बताओ बातें अपनी दुनिया की
कुछ तो अलग दिखाई देता होगा सब
क्या वहां भी पैदल चलना पड़ता है
चलते चलते चप्पल टूट भी जाती है
क्या वहां भी मुझसा कोई हाथों में
टूटी चप्पल लेकर मीलों चलता है

क्या वहां भी छोटी मोटी अनबन पर
साथी यूं ही रूठ जाया करते हैं
या फिर जैसे तुम्हें थी जल्दी जाने की
वहां भी ऐसे हाथ छुड़ाया करते हैं
फिर सालों तक आंसू वाली रातों में
सपने बनकर आया जाया करते हैं?

वहां किताबें तो होंगी ना पढ़ने को
जिसमें कोई फूल की पत्ती रहती हो?
बाग बगीचे घुघू पाखी की चीचीं 
और नदी भी कोई धीमे बहती हो?
यहां नदी में उतरी थीं तो पार गईं 
वहां नदी से आने की ज़िद करती हो?

मेरा क्या है मैं तो जैसा तैसा हूं
तुम्हें ही ज़्यादा सर्दी गर्मी लगती थी
मीठी वाली गोली तुम्हें खिलाने को
मन बहलाने को रखनी ही पड़ती है
वहां की दुनिया में भी क्या बीमारी से
अच्छे भलों की दुनिया रोज़ उजड़ती है?

अब तक तो तुम भूल चुकी होगी मुझको
गो कि मेरी यादों में तुम ज़िंदा हो
इस दुनिया से उस दुनिया की दूरी का
कोई भी अंदाज़ा मुझको मिल जाता
तो मैं बच्चों के साथ कुछ ना कुछ करके
तुमसे मिलने ट्रेन पकड़ के आ जाता

ठीक से रहना, तुम्हें ठीक की आदत थी
मैं तो जैसे तैसे ठीक ही रहता था
तुमको जाने की जल्दी थी चली गईं
वक्त के आगे किसकी लेकिन चलती है
यहां तुम्हारी उम्र भी मुझको जीनी है
मरने की फुरसत ही नहीं निकलती है।

निखिल आनंद गिरि

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