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गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

‘डियर 2016’ के ‘दंगल’ में ‘उड़ता’ बॉलीवुड

साल 2016 में मेरे सिनेमा देखने की शुरुआत एक ऐसी फिल्म से हुई जिसका पहला शो देखने लगभग पांच-छह लोग आए थे। ये फिल्म थी चौरंगाजिसे मेरे कॉलेज के डबल सीनियर (जमशेदपुर और जामिया) बिकास रंजन मिश्रा ने बनाई थी। फिल्म में नाम बड़ा नहीं था, इसीलिए एक बेहतरीन कहानी भी एकाध शो बाद ही भुला दी गई। समाज की लगभग हर समस्या का कॉपीबुक ट्रीटमेंट थी चौरंगाजैसे आप कोई फीचर फिल्म नहीं, किसी फिल्म स्कूल के स्टूडेंट की डिप्लोमा फिल्म देख रहे हों। फिल्म के शुरुआती क्रेडिट्स में ये बताया जाना कि ये एक हिंदी नहीं खोरठा फिल्म है, मेरे लिए पहला अनुभव था।
वज़ीरअमिताभ बच्चन के लिए एक और शानदार फिल्म रही। कोरियन फिल्म मोंटाजमैं देख चुका था इसीलिए इसकी हिंदुस्तानी नकल में मेरी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। फिर भी महिला मित्र के साथ हॉल जाने का सुख मैं कभी मिस नहीं करता।
साला खड़ूसऔर मस्तीज़ादेएक ही भाषा में अच्छी-वाहियात फिल्मों के विलोम की तरह एक ही हफ्ते में रिलीज़ हुए। मैंने दोनों देखी और अपना विश्वास मज़बूत किया कि राजनीति से लेकर नई हिंदीके लेखक हों या हिंदी फिल्में, सनसनी हो तो दर्शक, पाठक या मतदाता सब जेब में होते हैं। फितूरएक ओवररेटेड फिल्म साबित हुई और अगर ये 1990’s के दौर में आती तो कुमार सानू जैसा कोई सिंगर इसे हिट करा सकता था। नीरजाएक शहीद एयर होस्टेस की सच्ची घटना पर आधारित फिल्म थी और ठीकठाक बनी थी।
हंसल मेहता की अलीगढ़साल की सबसे अलग फिल्म रही मगर दर्शक इसे भी नहीं मिले। ऐसी फिल्मों से बॉलीवुड का क़द पता चलता है। की एंड कामुझे एक मैच्योर फिल्म लगी और मुझे फिर लगा कि मल्टीप्लेक्स का दर्शक ही आने वाले वक्त का सिनेमा तय करता रहेगा। शाहरूख की फैनएक अलग कोशिश तो थी मगर अंत तक आते-आते आप शाहरुख के फैन होने की बजाय किसी पंखे से लटक जाना पसंद करेंगे।
अश्विनी तिवारी की नील बट्टे सन्नाटाने इस साल सबसे अधिक चौंकाया। एक मां और बेटी एक ही स्कूल की एक ही क्लास में पढ़ने जाते हैं। ये सोच कर ही फिल्म देखने का मन कर जाएगा। एक शानदार फिल्म को बार-बार देखा जाना चाहिए। ऐसी गंभीर फिल्म उसी वक्त में हिट होती है जब सनी लियोनी की वन नाइट स्टैंडको भी ठीकठाक दर्शक मिलते हैं। इमरान हाशमी अज़हरमें कॉलर तो सही उठाते रहे मगर फिल्म मीठा-मीठा सच का जाल बनाती रही और उलझ कर रह गई। एक और भारतीय कप्तान धोनीभी इसी साल पर्दे पर उतारे गए और अज़हर से ज़्यादा इमानदारी से उतारे गए।   
धनकनागेश कुकनूर स्टाइल की एक और बेहतरीन फिल्म थी। हालांकि मैं अपने परिवार के जिन बच्चों के साथ फिल्म देखने गया था उन्हें बजरंगी भाईजान भी बच्चों की ही फिल्म लगती है, इसीलिए इस फिल्म का पसंद न आना लाज़मी था। तीन’, ‘रमन राघव-2’ एक्टिंग पर आधारित फिल्में रहीं जिन्हें देखने में पैसे बर्बाद नहीं हुए।
इन सबसे अलग 2016 को याद रखा जाना चाहिए उड़ता पंजाबके लिए। भविष्य में हम किस तरह का सिनेमा चाहते हैं, ये फिल्म उस का एक बयान समझा जाना चाहिए। फिल्म की बहादुरी इसी में समझ आनी चाहिए कि सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म पर तलवार जितनी कैंची चलाई, एक दिन पहले फिल्म लीक भी कर दी गई और फिर भी लोग सिनेमा हॉल तक देखने पहुंचे।
आशुतोष गोवारिकर की मोहनजोदड़ोउनके फिल्मी करियर का बड़ा रिस्क थी। एक तरह की चेतावनी भी कि हर बार एक ही फॉर्मूला लगाने से लगाननहीं बनती। फिल्म में ग्लैमर ज़्यादा था और इतिहास कम इसीलिए वर्तमान के दर्शक उसे ज़्यादा पचा नहीं पाए। मुदस्सर अज़ीज़ की फिल्म हैप्पी भाग जाएगीएक नई तरह की कॉमेडी थी। लड़की अपनी शादी से भागकर जिस ट्रक में कूदती है, उसे सीधा पाकिस्तान पहुंचना होता है। इस तरह पाकिस्तान से रिश्ते तीन घंटे मीठा बनाए रखने के लिए फिल्म का योगदान नहीं भुलाया जा सकता।
साल 2016 के सितंबर का महीना बॉलीवुड के लिए सबसे अच्छा रहा जब पिंक और पार्च्ड जैसी दो साहसी फिल्में पर्दे पर आईं।आने वाले समय में इन फिल्मों को पूरे दशक की सबसे अच्छी फिल्मों में भी गिना जाए तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा।
डियर ज़िंदगीइस साल की उपलब्धि कही जा सकती है। सिर्फ इसीलिए नहीं कि फिल्म अच्छी है, मगर इसीलिए भी भी कि शाहरूख अपनी उम्र के हिसाब से रोल करने लगे हैं। आप आलिया भट्ट की तारीफ में इस फिल्म पर बहुत कुछ पढ़ चुके हैं। मगर ये कहानी अकेलेपन के डॉक्टर जहांगीर खान की भी थी। जिनके पास दुनिया को ठीक करने की दवा तो होती है, उनकी अपनी दुनिया बहुत बीमार होती है। क्या हम सब ऐसे ही नहीं होते जा रहे। अकेले लोगों का ऐसा समाज जिनका इलाज किसी छप्पन इंच के डॉक्टर के पास नहीं।

दंगल इस साल की आखिरी बड़ी हिट थी। हिट नहीं भी होती तो भी इस फिल्म का चर्चा में आना तय था। ये फिल्म हमें आश्वस्त करती है कि 16 दिसंबर वाली भयानक राजधानी दिल्ली के बहुत पास लड़कियां समाज के अखाड़े में ख़ुद को बारीकी से तैयार भी कर रही हैं। इसीलिए समाज को थोड़ा विनम्र और महिलाओं के प्रति थोड़ा भावुक हो जाना चाहिए। 

निखिल आनंद गिरि

रविवार, 27 नवंबर 2016

'डियर आलिया भट्ट', मुझे आपसे प्यार हो रहा है

अगर आप शाहरुख खान के नाम पर ‘डियर ज़िंदगी’ देखने का मन बना रहे हैं तो आप अब भी समय से काफी पीछे चल रहे हैं। आलिया भट्ट को आपने ‘उड़ता पंजाब’ में कमाल की एक्टिंग करते देखा था। मेरा दावा है कि इस फिल्म के बाद आपको आलिया भट्ट से प्यार हो जाएगा। तो प्लीज़ ये फिल्म ‘डियर आलिया भट्ट’ के लिए देखने जाएं क्योंकि मेरा सिनेमा बदल रहा है। ये फिल्म गौरी शिंदे ने बनाई है। वही जिन्होंने साल 2012 में ‘इंग्लिश-विंग्लिश’ बनाई थी। अच्छी फिल्म थी। ‘डियर ज़िंदगी’ बहुत अच्छी फिल्म है। कई जगह आप ज़िंदगी के बारे में लंबे-लंबे उपदेश सुन-सुनकर बोर होंगे मगर एक अच्छी फिल्म में थोड़ा बोर होना एक बुरी फिल्म देखने से ज़्यादा अच्छा है।

आज के समय की एक लड़की कायरा (आलिया) तमाम तरह की उलझनों से भरी ज़िंदगी ढो रही है। कई सारे रिश्तों में उलझी। कई सारे रिश्तों से बचती हुई। रिश्तों में, समाज में, परिवार में पूरी तरह से ‘मिसफिट’ एक लड़की जो आपको आजकल हर शहर में अपनी पहचान के लिए जूझती मिल जाएगी। फिर अचानक फ्रस्ट्रेशन की हद तक पहुंचकर उसकी नींदें उड़ जाती हैं, बुरे-बुरे ख़्वाब आने लगते हैं तो एक ऐसे ‘दिमाग के डॉक्टर’ की एंट्री होती है जो सभी सवालों के जवाब जानता है। जिसकी ख़ुद की ज़िंदगी में एक तलाकशुदा पत्नी है, बिछड़ गए बेटे का दर्द है मगर वो कायरा की ज़िंदगी को ठीक करने का सारा फॉर्मूला जानता है। ये डॉक्टर जहांगीर खान हैं जो शाहरुख खान तो हैं मगर ‘किंग खान’ नहीं।

उसके पास हर चीज़ की एक नई परिभाषा है। वो बहुत सारे प्रेम-संबंधों को जायज़ ठहराता है। प्यार के रिश्तों को कुर्सी ख़रीदने से पहले ट्राई करने की तरह देखता है। ज़िंदगी को समंदर समझकर लहरों से कबड्डी खेलता है। सबसे ज़रूरी और कम ज़रूरी रिश्तों में फर्क करना सिखाता है। ऐसा लगता है कि वो दिमाग का डॉक्टर नहीं किसी न्यूज़ चैनल का एंकर हो जिसे धरती पर ज्ञान बांटने के लिए ही अवतार लेना पड़ा।

ऐसे वक्त में जब सलमान ‘बिग बॉस’ जैसे घटिया एंटरटेनमेंट के दम पर उछलते हैं, अमिताभ बच्चन बोरोप्लस को रिश्ते में सबका बाप बतला कर महानायक बने रहने का झूठ रचते हैं, शाहरुख ने अपनी रोमांटिक इमेज से हटकर एक ऐसा किरदार चुना जिसके लिए उन्हें सौ सलाम मिलने चाहिए। फिल्म का दूसरा हाफ सिर्फ शाहरुख और आलिया की बातचीत है। अकेलापन एक मिस्ट्री है जिसको एक डीकोड करता है और दूसरा अकेलेपन के दूसरे लेवल पर पहुंचता है। 

स्क्रीनप्ले बहुत शानदार है। कई जगह आप जमकर हंसेंगे और अगर शहर की उलझनों ने कभी आपको अकेला किया होगा तो आलिया की शानदार एक्टिंग आपकी आंखों से बहेगी भी। जेनरेशन गैप की वजह से परिवार की भूमिका पर भी फिल्म लंबा उपदेश देती है। एडिटिंग इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है। ऐसी कमज़ोरी कि इस अच्छी फिल्म में भी इंटरवल पर दर्शकों की तरफ से ‘थैंक गॉड’ की आवाज़ आती है।

मुझे अक्सर लगता रहा है कि सबसे अच्छी कविता या सबसे अच्छी फिल्म वही हो सकती है, जिसमें कई चीज़ें पंक्तियों या दृश्यों के बीच में छोड़ दी जाएं। इस फिल्म में कुछ भी छूटता नहीं। फिल्म इतना समझाती है, इतना
समझाती है कि आप ‘पकने’ लगते हैं। असल वाली ज़िंदगी इतनी ‘डियर’ कभी नहीं होती कि तीन घंटे में सारी उलझनें सुलझा ली जाएं। न ही सबकी किस्मत में एक ‘दिमाग का डॉक्टर’ होता है।

सेंसर बोर्ड वाले पहलाज निहलानी ने ऐसी फिल्म में भी ‘बीप’ के लिए जगह निकालकर पूरी देशभक्ति का परिचय दिया है। हालांकि, ‘लेस्बियन’ को वो ‘लेबनीज़’ ही सुन और समझ पाए, इसीलिए जाने दिया। वो चाहते तो फिल्म के टाइटल पर भी नाराज़ हो सकते थे जैसा उनकी पूर्व शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी एक बिहारी मंत्री के ‘डियर स्मृति जी’ लिखने पर नाराज़ हो गईं थीं। इसके अलावा फिल्म से पहले ‘फिल्म डिवीज़न’ की सरदार पटेल पर डॉक्यूमेंट्री भी मुफ्त में आपको देखने को मिलेगी और आप राष्ट्रप्रेम के मामले में तरोताज़ा महसूस करेंगे।
(ये फिल्म समीक्षा Youth Ki Awaaz के लिए लिखी गई है)


निखिल आनंद गिरि

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