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सोमवार, 12 मई 2014

एक देश था, जहां मस्तराम की लहर भी थी..

मस्तरामको आप सिर्फ एक फिल्म की तरह देखने जाएंगे तो बहुत अफसोस के साथ बाहर आना पड़ सकता है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि आप इसे किसी महान फिल्म की तरह याद कर सकें। सिवाय फिल्म के नाम के। फिर भी आज तक मैंने कोई ऐसी फिल्म नहीं देखी जिसमें से बाहर कुछ भी साथ नहीं आया हो। ये तो फिर भी मस्तराम है। मस्तराम एक लंबे समय तक दबी-कुचली हसरतों के महानायक रहे हैं। एक बहुत बड़े समाज या सब-कल्चर के। तब तक, जब तक साइबर कैफे में पर्दे नहीं लग गए या फिर ऑरकुट से होते हुए व्हास ऐप तक लड़के लड़कियों को प्रेम पत्रों के बजाय नॉन वेज मैसेज और पॉर्न वीडियो शेयर नहीं करने लगे। अगर आप भी कभी इस मस्तराम परंपरा के ज़रिए शब्दों की ताक़त पर अपनी बहुत सी ताकत बहाते आए हों तो ये फिल्म देखना उन गुमनाम पलों को एक तरह का ट्रिब्यूट देने जैसा है। बहुत मुमकिन है कि आप इस फिल्म में अपने साथ अपनी गर्लफ्रेंड को साथ ले जाने का ऑफर दें, तो वो शुरुआती कुछ सीन्स तक फिल्म देखने के बजाय टेंपल रन खेलती दिखे।
आम आदमी की तरह मैं मस्तराम हूंटोपी लगाए एक आदमी हाथ जोड़े पोस्टर में खड़ा दिखता है। और उस तस्वीर के साथ फिल्म का प्रोमो कहता है कि अगर आप मस्तराम को नहीं जानते तो अपने पिता या ताऊ से ज़रूर पूछें। तो मस्तराम पोस्टर पर आम आदमी जैसा दिखता है  मगर उसकी लहर ऐसी है कि कई मोदी इसके आगे फेल हैं। सिनेमा के पर्दे पर अगर इस कहानी को भी कोई शाहरुख या सलमान या कोई बेहतर निर्देशक मिल जाता तो फिल्म कमाल की पॉपुलर भी हो जाती। लेकिन सलमान दबंग जैसी कूड़ा फिल्म में दबंग हो सकता है, मस्तराम नहीं। ऐसा होने के लिए उन्हें किसी फिल्म में अपना नाम राजाराम वैष्णव उर्फ हंसरखना पड़ेगा। फिल्म की कहानी जिस तरह शुरू होती है, मैं कई बार इसके नायक में बड़े अदब और उम्मीद के साथ ‘’प्यासा का गुरुदत्त ढूंढ रहा था। 2014 की किसी कहानी में नायक हिंदी का एक दुखियारा लेखक बनकर पर्दे पर आए तो उम्मीद लाज़िम भी है। दाद की बात भी है कि फिल्म हमारे समय के सिनेमा में एक भुला दी गई सच्चाई के साथ सामने आती है। हिंदी साहित्य की मठाधीशी के बीच कितने प्रतिभाशाली लेखक आज भी लुगदी साहित्यकार या मस्तराम होकर रह जाते हैं, इस पर अलग से रिसर्च होनी चाहिए। इस पर भी कि जेएनयू से हिंदी में एम. फिल करने की हसरत पाले कितने नौजवान ऐसे हैं जिसके घरवाले शादी को सबसे ज़्यादा ज़रूरी चीज़ समझते हैं।   और इस पर भी कितने लेखकों को उनके दफ्तरों में सिर्फ इस बात के लिए ताने सुनने पड़ते हैं कि वो ऑफिस की फाइलों में कोई सुंदर कविता छिपाकर रखते हैं। इस पर भी कि हिंदी के कितने प्रकाशक ऐसे हैं जिन्होंने अपना बिज़नेस बढ़ाने के लिए ऐसी कहानियों को समाज की इकलौती ज़रूरत बताकर प्रोमोट किया है।
फिल्म में सेक्स और हनी सिंह एक ज़रूरत की तरह हैं, इसीलिए अश्लील नहीं लगते। सिवाय नर्स के साथ मस्तराम के उस सीन के जिसमें चारपाई ऊपर-नीचे होती दिखती है। लिखी हुई कहानियों में मस्तराम के शब्दों का स्तर नीचे होने की वजह उसकी एक ख़ास तरह की ऑडिएंस है मगर पर्दे पर उसे ख़ूबसूरती से रचा जा सकता था। फिल्म का स्क्रीनप्ले कई बार किसी थियेटर जैसा लगता है। कई बार बहुत सूखा, कई बार बहुत प्रेडिक्टेबल। मस्तराम उर्फ राजाराम का बार-बार ये कहना कि ये सब कहानियां हमारे इर्द-गिर्द की हैं, हिंदी साहित्य के समकालीन कई लेखकों की याद दिलाता है जिनकी भाषा मस्तराम की कहानियों से अलग है, मगर सभ्य साहित्य में उन्हें पूरा सम्मान मिला है। कहने का मतलब ये कि हिंदी साहित्य के ए और बी या सी वर्जन में नयापन सिर्फ शैली में है, कंटेट में बहुत हटकर सोचा जाना बाक़ी है।
मस्तराम जब अपने ही दोस्त और बीवी के अवैध रिश्ते के कहानी लिखता है तो उसके पास घर चलाने तक के पैसे नहीं होते। ऐसे में फिल्म अच्छे क्लाईमैक्स पर जाकर छूटती है। जहां उसकी सक्सेस पार्टी में उसकी असलियत खुलते ही लोग उससे किनारा करने लगते हैं। वो कामयाब तो है मगर मिसफिट है। बिल्कुल मस्तराम की कहानियों की तरह। बिल्कुल इस फिल्म की तरह, जो शायद ग़लत समय पर बनी लगती है। इसे कम से कम दस साल पहले आना था, जब मल्टीप्लेक्स नहीं थे और मस्तराम के पाठक और दर्शक एक थे।    

चलते-चलते : हो सके तो फिल्म किसी सिंगल स्क्रीन थियेटर में देखें। मस्तराम की कहानियों को सुनते-देखते फ्रंट स्टॉल के दर्शक जब सीटियां बजाएंगे तो आपको लगेगा कि ये कोई नई कहानी नहीं। बहुत लोग बहुत बरसों से इसे जानते हैं, बस एक-दूसरे से कहने में कतराते हैं।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 11 अक्टूबर 2012

पान की पीक से पॉपकॉर्न तक...सिनेमा ही सिनेमा

फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर सिर्फ जहाज में ही नहीं जाते...
मेरा बचपन बिहार (और झारखण्ड) के अलग-अलग कस्बों में बीता। पिताजी पुलिस अधिकारी रहे हैं तो अलग-अलग थानों में तबादले होते रहे और हम उनके साथ घूमते रहे। इन्हीं में से किसी इलाके में पहली फिल्म देखी होगी, मगर मुझे ठीक से याद नहीं। हाँ, फिल्म देखने जाने के कई खट्टे-मीठे अनुभव याद हैं, जिन्हें बताना पहला अनुभव जानने से कम ज़रूरी नहीं। क्योंकि सिनेमा के सौ साल का सफर उन्हीं सिनेमाघरों में हम और आप जैसे तमाम दर्शकों के होते हुए गुज़रा है।


मैं शायद छह या सात साल का रहा होऊंगा जब पिताजी के किसी 'इलाके' में 'सूरज' फिल्म लगी थी। हमारे परिवार के लिए फिल्म देखने का मतलब ये होता था कि टिकट पिताजी से लें। मतलब, एक सादी पर्ची (पान के साथ चूना दिये जाने जैसी) पर पिता जी कुछ लिख भर देते थे और हम आराम से हॉल में जाते और हॉल का मैनेजर पर्ची देखते ही पूरे 'सम्मान' से सीट देकर हमें फिल्म देखने देता। मैं तब न तो फिल्म समझता था, न फिल्म देखने के लिए फिल्म देखने जाता था। घर में सबसे छोटा था, तो जो सब करते वही करना ही होता था। ऐसे ही पर्चियों वाली हमने कई फिल्में देखीं। गाइड, मर्दों वाली बात, गंगा-जमुना, गंगा किनारे मोरा गाँव और फिर बाद में मोहरा तक। ये सब वैसे ही पर्ची लिखा-लिखा कर सीधा हॉल में प्रवेश करने वाली फिल्में थीं। हमारी तरफ भोजपुरी फिल्में ख़ूब लगती थीं, और उन फिल्मों के बारे में जानने के लिए हमें किसी ब्लॉग, रिसर्च पेपर या समीक्षा नहीं देखनी पड़ती थी। गाँव भर की बुआ, चाची, दीदी को हर फिल्म में नाम के साथ सब कुछ याद रहता था। भोजपुरी स्टार कुणाल सिंह हमारे बचपन के महानायक थे। वो जितेंद्र से मिलते-जुलते लगते थे तो मुझे जितेंद्र की फिल्में भी अच्छी लगती थीं। लखीसराय का अनुभव सबसे यादगार था, जहाँ एक बार पिक्चर शुरू हो गई और हम बाहर से एक बेंच लाए और फिर पिक्चर देखने बैठे।

तब हमारे घर टीवी नहीं हुआ करता था। रविवार को चार बजे शाम में फिल्म आती थी और हम देखने के लिए पड़ोस में जाते थे। ऐसे देखी गई पहली फिल्मों में से थी 'एक चादर मैली सी', 'एक दिन अचानक' और 'पार्टी'। आप समझ सकते हैं कि 'गंगा किनारे मोरा गाँव' तक से 'पार्टी' तक एक ही बचपन में देखने से सिनेमा कितनी गहराई से भीतर घुस रहा था।

जब राँची में स्कूल के दोस्तों के साथ पहली बार टिकट के पैसे चुकाकर फिल्म देखनी पड़ी तो लगा जैसे कोई गुनाह कर रहे हैं। तब तक 'पुलिसिया पहचान के नाम पर फिल्म देखना बुरा है', समझ आने लगा था। तब शायद पहली देखी फिल्म 'गॉडजिला' थी। बाद में एनाकान्डा, मोहब्बतें, गदर वगैरह-वगैरह। फिर जमशेदपुर गए तो वहाँ बैचलर लाइफ शुरु हुई। एक दोस्त ने पहली बार सुबह वाला 'शो' दिखाया। फिर तो सिनेमा आदत बन गया। हर नई रिलीज़ देखना ही देखना था। जमशेदपुर के बसन्त टॉकीज़ (जो अब नहीं रहा) में पाँच रुपये और ग्यारह रुपये के टिकट हुआ करते थे। पाँच रुपये की टिकट के हिसाब से साल में सौ शो देखने के भी लगभग पाँच सौ रुपये ही खर्च होते थे। इसीलिए सभी 'तरह' की फिल्में अफॉर्ड हो जाती थीं। कला के लिए जागरुक शहर जमशेदपुर में फिल्म महोत्सवों का चस्का लगा, जो अब तक कायम है।

फिर, दिल्ली आए तो पहली फिल्म देखी 'ओंकारा'। जामिया से नेहरु प्लेस तक पैदल चलकर तीस रुपये की टिकट पर। फिर एक महिला-मित्र के साथ मॉल गए, कोई फालतू सी फिल्म देखने। इतना महँगा पड़ा कि साथ देखने से जी भर गया। जमशेदपुर और बचपन बहुत याद आया। फिर देखा कि उन्हीं फिल्मों के 12 बजे से पहले वाले शो सस्ते होते हैं। तो आज तक दिल्ली में सुबह जल्दी उठने का सिर्फ यही मकसद होता है। कभी-कभी जान-बूझ कर देर से उठता हूँ, जब किसी ख़ास के साथ पिक्चर हॉल जाना हो और पॉपकॉर्न खाते हुए पिक्चर देखनी हो।

(ये लेख रेडियोप्लेबैक इंडिया वेब पोर्टल के लिए लिखा गया था..वहां जाकर भी पढ़ सकते हैं..इस पोस्ट के साथ लगाई गई दो तस्वीरें मेरे कैमरे से ली गई हैं..)

रविवार, 4 दिसंबर 2011

हर शरीफ आदमी को 'डर्टी पिक्चर' ज़रूर देखनी चाहिए...

क्या इत्तेफाक है कि 'रॉकस्टार' और 'द डर्टी पिक्चर' के रिलीज़ होने की तारीखें लगभग अगल-बगल थीं। रॉकस्टॉर जहां छूटती है, 'डर्टी पिक्चर' उसी दर्शन (फिलॉसफी) को ठीक से पकड़ लेती है। रॉकस्टार के जनार्दन (रणबीर) को ज्ञान मिलता है कि ज़िंदगी में रॉकस्टार बनना है, बड़ा बनना है तो दर्द पैदा करो, ट्रैजडी से ही मिलेगी कामयाबी। फिर रणबीर जैसे-तैसे एक ट्रैजडी ढूंढ पाते हैं और रॉकस्टॉर बनते हैं। इधर डर्टी पिक्चर में रेशमा (विद्या बालन) को ट्रैजडी ढूंढनी नहीं पड़ती। वो ख़ुद ही एक ट्रैजडी है क्योंकि वो एक औरत है। ग़रीब है, ख़ूबसूरत भी नहीं है और सपने बड़े हैं। रेशमा को मालूम है कि इस 'मर्दाना' समाज की जन्नत अगर है तो औरत के कपड़ों के भीतर है तो वो अपनी ट्रैजडी का जश्न कपड़े उतारकर मनाना शुरू करती है। वो फिल्मी दुनिया के सबसे बड़े सुपरस्टार(नसीरुद्दीन शाह) को साफ कहती है कि अब तक आपने 500 लड़कियों के साथ 'ट्यूनिंग' की होगी, मैं अकेली आपके साथ पांच सौ बार 'ट्यूनिंग' करने को तैयार हूं। फिर रेशमा को सिल्क बनने से कौन रोक सकता है। सिल्क यानी फिल्मी पर्दे पर 'सेक्स की देवी' जिसके दर्शन करने के लिए लोग टिकट ख़रीदते हैं और बाकी फिल्म को उसके हाल पर छोड़ जाते हैं। इंटरवल से पहले तक फिल्म एक तरह से देह का उत्सव है। बगावत का वो फॉर्मूला जो पूरी दुनिया हर दौर में अलग-अलग तरीकों से अपनाती रही है।
इंटरवल से पहले आप उस रेशमा को सिल्क बनते बार-बार देखना चाहेंगे क्योंकि वो एक गहरे दलदल में धंसकर भी कमल की तरह साफ लगती है। वो जो करती है, पूरी ठसक के साथ। मर्दानगी को मुंह चिढ़ाती हुई। जब फिल्म कहती है कि बड़े-बड़ों ने मुंह काला कर के ही नाम कमाया है, तो लगता है ये सिर्फ 80 के किसी संघर्ष की ग्लैमरस दास्तान नहीं, हर दौर का सच है। नैतिकता (MORALITY)के मुंह पर कालिख पोतती हुई फिल्म आगे बढती रहती है। नैतिकता का नारा बुलंद करते एक जुलूस का हिस्सा बनी एक औरत के हाथ में पोस्टर है CINEMA'S LOWEST LOW..और इसका इल्जाम भी एक औरत सिल्क पर! फिल्म का बेहतरीन दृश्य। ऐसे कई सीन हैं, जहां आप लंबी सांसे भरकर फिल्म को आगे बढ़ने देते हैं और यकीन मानिए वो सीन बिस्तर पर फिल्माए नहीं गए।


नसीरुद्दीन साहब जैसे बेहतरीन अभिनेता के लिए एक साधारण फिल्म में भी हमेशा कुछ न कुछ बचा ही रहता है। वो न होते तो विद्या बालन अकेले ही फिल्म की सारी वाहवाही लूट जातीं। विद्या बालन इस दौर की एक ऐसी खोज हैं जिसे हिंदी सिनेमा कई बार इस्तेमाल करना चाहेगा। क्या कमाल की एक्टिंग है। बेशक आप इंटरवल के बाद उठकर चले आइएगा, लेकिन विद्या के लिए ये फिल्म ज़रूर देखें। बिस्तर पर पड़ी सिल्क नसीरुद्दीन शाह के साथ 'ट्यूनिंग' कर रही है और अचानक दरवाज़े पर उनकी बीवी दस्तक देती है। नसीर सिल्क को छिप जाने के लिए कहते हैं। फिर बीवी अंदर आती है। फिर बाथरूम में छिपी सिल्क दरवाज़े के सुराख से झांककर देखती है कि कैसे एक मर्द तुरंत पति बन जाता है और नैतिकता (morality) भोलेपन से बिस्तर पर पड़ी रहती है। 'गंदी' सिल्क के पास अब दुनिया में वापस दाखिल होने के लिए बस एक चोर दरवाज़ा ही होता है। ख़ुद की 'असलियत' पहली बार उस छोटी सी रोशनी से साफ दिखती है और फिर आखिर तक दिखती है। उस अमीर कार के काले शीशे पर भी जब वो एक पॉर्न फिल्म से  बचते-बचाते भाग रही होती है या या फिर जब एक तरफ सिल्क के पीछे पूरा हुजूम होता है और दूसरी तरफ आधे खुले दरवाज़े पर खड़ी मां। सिल्क को भीड़ नहीं मां का प्यार चाहिए, मगर उसे मां नहीं मिलती, सिर्फ भीड़ मिलती है।
ले जाओ सब ये शोहरतें, ये भीड़, ये चमक
रोने के वक्त, हंसने की बेचारगी न हो....
इंटरवल के बाद फिल्म में इमरान हाशमी एक साफ-सुथरे कुएं में भांग की तरह हैं। पूरी फिल्म का ज़ायका ख़राब कर देते हैं। फिर अचानक आपको होश आता है कि धत तेरे की, हम एकता कपूर से किसी मास्टरपीस की उम्मीद कैसे करने लगे थे। इमरान हाशमी 'अच्छी, साफ-सुथरी' फिल्में बनाने वाले डायरेक्टर की भूमिका में वैसे ही लगते हैं जैसे कोई आपसे सरदारों वाला मज़ाक करे और आपको हंसी भी न आए। ऐसा लगता है जैसे इंटरवल के बाद और पहले की फिल्में दो अलग-अलग फिल्में हैं। जैसे फिल्म बनाने वालों को अब भी ये भरोसा नहीं था विद्या और नसीर जो जादू कर चुके हैं, उतना एक फिल्म को हिट करने के लिए काफी होगा। उन्हें अब भी विद्या से ज़्यादा इमरान पर भरोसा है। इस भरोसे से हिंदी सिनेमा जितनी जल्दी उबरेगा, हम एक मुकम्मल फिल्म की उम्मीद कर सकेंगे।

रजत अरोड़ा को आप ONCE UPON A TIME IN MUMBAI में सुन चुके हैं। डायलॉग्स का वही जादू यहां भी होलसेल में मिलता है। आप कौन सा डायलॉग अपने साथ घर लेकर जाएं, समझ नहीं आता। ''जब शराफत अपने कपड़े उतारती है तो सबसे ज़्यादा मज़ा शरीफों को ही आता है।'' हालांकि, रजत को भी अपनी अच्छी कलम पर भरोसा नहीं है, इसीलिए वो 'अगर सिल्क दुनिया की आखिरी लड़की होती, तो मैं नसबंदी करा लेता' जैसे फूहड़ डायलॉग्स का भी सहारा लेते हैं।

पता नहीं हाल की कुछ फिल्मों को क्या हो गया है। वो शुरु होते-होते बहुत ठीकठाक लगती हैं और फिर ख़ुद में ऐसे उलझ जाती हैं कि आखिरी घंटा झेलना मुश्किल हो जाता है। हम सिल्क को 'जीतते' हुए देखना ज़्यादा पसंद करते। ठीक है कि फिल्म किसी पुरानी एक्ट्रेस 'सिल्क स्मिता' की कहानी पर आधारित है जिसने आखिर में खुदकुशी ही की थी। लेकिन क्या हम फिल्म की आज़ादी का इस्तेमाल कर सिल्क को एक औरत की तरह नहीं देख सकते, जिसके लिए खुदकुशी से भी बेहतर रास्ते होते। ग्लैमर क्या हर बार ग्लानि पर ही ख़त्म होता है। क्या सचमुच ये चमचमाती रौशनियां उसी मोड़ पर ले जाकर छोड़ती है जहां सिर्फ मायूसी है और ज़िंदगी महसूसने का आखिरी मौका। सिल्क को फिल्म के ज़रिए एक बेहतर ज़िंदगी मिलती तो शायद ज़्यादा अच्छा लगता। शायद मर्लिन मुनरो, मीना कुमारी, परवीन बाबी, विवेका बाबाजी जैसी कई दर्द भरी कहानियों पर मरहम जैसा असर करतीं।

मगर नही, फिल्म बनाने के लिए जिन तीन चीज़ों की ज़रूरत है, वो ज़रूरत पूरी की जा चुकी है। और वो ज़रूरत है Entertainment, Entertainment और Entertainment। फिल्म बनाने वालों को लगता है कि सिल्क की कहानी में इतना दिमाग खुजाने की ज़रूरत ही क्या है, जब पब्लिक कहीं और खुजाना चाहती है।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 15 अगस्त 2011

प्रकाश झा का 'यूफोरिया' उर्फ आरक्षण...

अंग्रेज़ी में ‘यूफोरिया’ शब्द की तस्वीर में एक तरह के मानसिक उन्माद की स्थिति उभरती है जहां सावन के अंधे को सब हरा ही हरा लगता है...साइंसदानों की भाषा में इस परिस्थिति को Ideal state या आदर्श स्थिति भी कह सकते हैं जो असल में मुमकिन नहीं होती...आरक्षण के निर्देशन में प्रकाश झा फिलहाल उसी स्थिति के मारे दिखते हैं...ऐसी स्थिति तब आती है, जब आप ओशो या किसी और आध्यात्मिक गुरु की शरण में हों । प्रकाश झा शायद किसी ऐसे ही बॉलीवुडिया कहानी क्लब के मेंबर लगते हैं जहां होम्योपैथी की मीठी गोलियों की तरह मीठी-मीठी कहानियां बुनी जाती हैं। ‘राजनीति’ में इस मीठी गोली का असर कम था और ‘आरक्षण’ तक आते-आते साइड इफेक्ट भी ज़ाहिर होने लगे हैं। हालांकि, फिल्म का नाम बदल दिया जाए तो एक बार देखने में बुराई भी नहीं है।

आरक्षण जैसे विकराल, संवेदनशील और जटिलतम मुद्दे का इतना आसान समाधान निकालना प्रकाश झा की फिल्मी मजबूरी भी है और एक हद तक सफलता भी। सफलता इस मायने में कि वो बिना किसी पार्टी या विचारधारा पर चोट किए हुए अपनी कहानी का नाम भर ‘आरक्षण’ रख लेते हैं और इतने भर से उन्हें इतनी बदनामी मिलती है कि फिल्म आपकी-हमारी ज़ुबां पर चढ़ चुकी है। हालांकि, फिल्म रिलीज़ के तीसरे दिन ही हॉल इस क़दर ख़ाली था जैसे दिल्ली में कोई साउथ इंडियन मूवी लगी हो।

फिल्म की कहानी में आरक्षण का मुद्दा नमक जितना ही मौजूद है। बाक़ी तो अमिताभ ही अमिताभ हैं। वो अपने भारी-भरकम आवाज़ में जो भी कहते हैं, सच जैसा लगता है। हालांकि, उन्हें अब किसी सलीम-जावेद की ज़रूरत नहीं, मगर फिल्म में वो ‘एंग्री ओल्ड मैन’ बनकर उभरे हैं और केयरिंग ओल्ड मैन’ भी । उनके पास अब उम्र कम बची है वरना इस रोल की ताज़गी मुझे कई दिनों बाद अच्छी लगी। वैसे फिल्म के पहले हाफ में वो धृतराष्ट्र की तरह दिखते हैं, जहां सब कुछ होता जाता है और वो उसूलों का खूंटा गाड़े रहते हैं।

ख़ैर, प्रकाश झा की ‘आरक्षण’ में कुछ वैसी ही बुनियादी ख़ामिया हैं जैसी मजहर कामरान ‘मोहनदास’ बनाने में कर गए थे। विषय के मर्म से लगाव मेरी तरह का पाठक या छिटपुट कवि बना सकता है, बड़ा फिल्मकार नहीं। उसके लिए लंबा होमवर्क और फिर सही किरदार चाहिए जो मुझे नहीं दिखे। सैफ और दीपिका कहीं से भी इस फिल्म में नहीं लिए जाने चाहिए थे। अजय देवगन तो प्रकाश झा के फेवरेट थे, पर पता नहीं इस बार क्यों नहीं राज़ी हुए। और विद्या बालन की क़ीमत दीपिका से ज़्यादा तो नहीं। ऊपर से प्रतीक की एक्टिंग और उनके हिंदी में बोले डॉयलॉग्स ठीक वैसे ही नकली लगते हैं जैसे आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में ख़ेमों की राजनीति करते नेता। गाने प्रकाश झा की मजबूरी से बन गए हैं। फिल्म की शुरुआत में ज़बरदस्ती दो गाने टपक पड़ते हैं जब आप इसके लिए तैयार नहीं होते। ‘’एक चानस तो दे दे…’’ गाने के भाव गहरे हैं मगर प्रसून जोशी ने इसलिए तो नहीं ही लिखे होंगे कि प्रतीक छिछोरे अंदाज़ में इस जुमले का प्रयोग दीपिका पर लाइन मारने के लिए लुटा दें। हालांकि, छन्नूलाल जी की आवाज़ में ‘’सांस अलबेली..’’ लाजवाब गीत है।

अब कहानी पर आते हैं। ठीक वैसे ही भटकी हुई है, जैसे देश में आरक्षण का मुद्दा भटका हुआ है। फिल्म में बस शिक्षा के बाज़ार बनते जाने के बीच में आरक्षण को लेकर कुछ नाटकीय डायलॉग्स हैं जिन्हें हम बार—बार थियेटर में सुन चुके हैं। दलितों-वंचितों के दुख से अनजाने में आहत और ब्राह्मणवाद से त्रस्त इस पीढ़ी को ही हर क़ीमत चुकानी है और ये हर जाति-वर्ग की त्रासदी है। पटना के सुपर-30 से लेकर रांची, दिल्ली कोटा तक पसरे प्राइवेट कोचिंग संस्थानों के पीछे की दुकानदारी के बीच प्रकाश झा वैसी ही उम्मीद लेकर आए हैं, जैसे मजबूर मनमोहन के अंगूठे की छाप पर यूपीए ‘राइट टू एजुकेशन’ लेकर आई थी। इस बात के लिए प्रकाश झा को दाद मिलनी चाहिए कि उन्होंने अपनी तमाम क्षमताओं के साथ नई पीढ़ी को हर तरह से बराबर एक समाज का सपना दिखाया है। हालांकि, ऐसा उत्थान तो लालू यादव भी चरवाहा विद्यालय खोलकर चाहते थे मगर मंशा ठीक न हो तो फिल्म और हकीकत दोनों ही फालतू लगते हैं। प्रकाश झा को ऐसे मुद्दों पर किसी फिल्मी राइटर से अच्छा किसी पॉलिटिकल या कम से कम साहित्यिक राइटर से कहानी में मदद लेनी चाहिए थी ताकि फिल्म में मसाले के अलावा भी कुछ स्वाद आता।

अब एक सीन देखिए। आरक्षण के नाम पर अचानक बवाल कटा है और माहौल एकदम सीरियस है। इन सबके बीच दीपिका अपने दीपक के साथ मूवी देखने को बेकरार है। ये उतना ही गैर-ज़िम्मेदाराना था जितना उस मीडियाकर्मी का अमिताभ से सवाल कि आप प्रिंसिपल से अपराधी बन गए, क्या कहना चाहेंगे। या फिर उस पंडित छात्र का विशुद्ध हिंदी बोलना और बात-बेबात अमिताभ का फिलॉसॉफी झाड़ना। (दीपिका यूं ही नहीं ऊबकर कह देती है कि डैडी, आई हेट माई लाइफ)। मनोज वाजपेयी फिल्म-दर-फिल्म उम्दा होते जा रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं। ठीक उसी स्पीड से जैसे प्रकाश झा स्तर खोते जा रहे हैं।

कुल मिलाकर आरक्षण की मूल व्यवस्था के खिलाफ लगती है प्रकाश झा की ‘आरक्षण’। पूरी तरह से नहीं, मगर इस मायने में कि मुद्दे की नस को समझ ही नहीं पाए प्रकाश झा। कोचिंग संस्थानों के बीच से गुदड़ी के लाल निकालने के लिए ही लड़ते रह गए पूरी फिल्म में। तभी तो हमारी जाननेवाली आंटी से मैंने जब पूछा कि फिल्म देखने क्यों नहीं गईं तो उन्होंने कहा कि मैंने वाशिंग मशीन में कपड़े डाले हुए थे और अगर मैं फिल्म में टाइम ख़राब करती तो कपड़े ख़राब हो जाते !!

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 2 जुलाई 2011

उन्हें गालियां बेचनी हैं, हमें हंसी ख़रीदनी है...

65 साल के  हैं डॉ प्रेमचंद सहजवाला...दिल्ली में मेरे सबसे बुज़ुर्ग मित्र....दिल्ली बेली देखने का मन मेरा भी था, उनका भी...हालांकि, चेतावनी थी कि इसे बच्चों के साथ न देखें...मतलब, 'बूढ़ों' के साथ भी न देखने की छिपी हिदायत भी थी....फिर भी, हमने सपरिवार जाने का रिस्क लिया....मतलब, प्रेमचंद जी, उनकी हमउम्र पत्नी, सुपुत्र कानू और मैं....हॉल की सबसे बुज़ुर्ग ऑडिएंस के साथ कानू और मैं थोड़ा असहज तो थे, मगर अनुभव अलग ही था....ख़ैर, पूरी फिल्म देखने के बाद प्रेम अंकल और आंटी चुपचाप बाहर निकल गए...अंकल ने बिना पूछे कहा,  ये फिल्म आमिर ने बनाई है, ये यक़ीन नहीं होता...और आंटी से मैंने राय मांगी तो उन्होंने कहा, क्या सचमुच इस पर कुछ डिस्कशन की जा सकती है...तो मैंने समीक्षा लिखने का विचार  छोड़कर ये कविता ही लिख डाली..हां, मेरा इतना ही कहना है कि आइंदा समीक्षा पढ़कर फिल्म देखने से पहले दस बार सोचूंगा..आखिर, दो सौ रुपये  (और मेट्रो का किराया अलग से) की भी कोई क़ीमत होती है....

कभी आईने के सामने खड़े होकर

ज़ोर-ज़ोर से बकी हैं गालियां आपने?
बकी तो होंगी कभी किसी पर खीझ से....
मगर हंसी तो नहीं आई होगी ज़रा-सी भी...
अच्छा बताइए,
आप टट्टी देखकर कितनी देर तक खुश हो सकते हैं...


क्या दो सौ रुपये देकर कहा है किसी को आपने,
कि भाई बको गालियां कि हमें हंसना है...
मेरी पीठ के नीचे का जो हिस्सा है...
वहां पटाखे बांध कर जला दो भीड़ में....
थकी-हारी भीड़ खिलखिला ले ज़रा...

क्या मेट्रो में सवार उदास चेहरों को पढ़कर
शर्तिया बता सकते हैं आप,
कि वो किसी ऐसे फ्लैट में रहते हैं,
जिनके मकानमालिक दिखने में शरीफ हों,
और हों एक नंबर के अय्याश?
कि जहां पानी नहीं आए,
तो संतरे के जूस से हगना-मूतना संपन्न होता हो...

खैर छोड़िए, इतना बता दीजिए...
बाज़ार में कब नहीं थी गालियां
या हमारे घर में ही...
इतना तो मानते ही होंगे
कि आदमी के पास जब कुछ कहने को नहीं होता खास..
तभी कुंठा में निकल आती हैं गालियां...

क्या रोग सिर्फ दिल्ली के पेट में होते हैं?
और जहां टिशू पेपर या संतरे नहीं मिलते,
वहां क्या घास की ज़मीन रगड़ने पर भी हंसते हैं लोग?
ख़ैर छोड़िए, हम जादा कहेंगे तो आप कहेंगे
कि कोई शहरी गालियां बेचकर ‘अमीर’ खान बनता है,
तो हमारे भीतर का गंवार मन कुढ़ता है....

शहर की भीड़ में बने रहने के लिए...
हम भी तीन घंटे की मोहलत निकालते हैं,
गालियां सुनकर आते हैं
और लोटपोट हो जाते हैं..

निखिल आनंद गिरि
(‘दिल्ली बेली’ से सही-सलामत लौटकर आनन-फानन में यही लिखना बन पड़ा)

सोमवार, 3 जनवरी 2011

कंपकंपाती ठंड में मल्टीप्लेक्स की 'मिर्च' का मज़ा...

फिल्म की शुरुआत में ही रिलायंस ग्रुप का बोर्ड लगा दिखे तो ये चिंता दूर हो जाती है कि आप जिस फिल्म को देखने जा रहे हैं, वो बेहद तंगहाली में बनाई गई होगी, इसलिए अच्छी हो या बुरी, निर्देशक के साथ सहानुभूति ज़रूर रखी जानी चाहिए। विनय शुक्ला कोई नए डायरेक्टर नहीं हैं...अवार्ड विनिंग फिल्में बनाना उनका मकसद रहा है और इस लिहाज से ये फिल्म भी सफल करार दी जानी चाहिए। ये अलग बात है कि मेरे साथ हॉल में फिल्म देखने वाले सिर्फ चार लोग ही और थे। चार से याद आया, फिल्म का नाम चार कहानियां भी रखा जा सकता था, क्योंकि इसमें क्रेडिट्स आने तक चार अलग-अलग मगर एक जैसी कहानियां चलती हैं।

मुंबई में संघर्षरत एक फिल्म राइटर अपनी गर्लफ्रेंड के संपर्क से एक प्रोड्यूसर से मिलता है और उसे अपनी वो कहानी सुनाता है, जिस पर दो सालों से वो फिल्म बनाने की सोच रहा है....फिल्म में संघर्ष आगे बढ़ना है इसलिए कहानी रिजेक्ट हो जाती है...खैर, वो दूसरी कहानी ढूंढता है, जिसमें प्रोड्यूसर के मनमाफिक बिकाऊ सेक्स भी होता है। इस दूसरी कहानी में चार कहानियां हैं, कुछ औरतें हैं, मर्द हैं और शरीर की हेराफेरी है। जो आदर्शवादी कहानी रिजेक्ट होती है, वो क्या थी, इसका पता ग्यारह मुल्कों की पुलिस भी नहीं लगा सकती। बस, वो अज्ञात कहानी हज़ारों-लाखों फिल्म लेखकों के ज़ख्मों को सहलाने का काम कर जाती है, जो बिहार से लेकर बंबई (वाया दिल्ली) तक एकाध स्क्रिप्ट लिए गुलज़ार बनने का ख्वाब पाले बैठे हुए हैं।

फिल्म में पंचतंत्र से लेकर इटालियन लोककथाओं तक के तमाम रेफरेंसेज़ हैं। यही फिल्म की जान भी हैं। कहानी आगे बढ़ाने का तरीका कहीं से कमज़ोर नहीं है। कहानी के भीतर कई कहानियां चलती हैं और इस तरह से ग्रिप बना रहता है। बेहद खूबसूरत लोकेशन्स और कसे हुए संवादों के बीच कहानी कहीं छूटती नहीं और नारी-विमर्श का सबसे प्रचलित रूप भी ठीकठाक आगे बढ़ता है। जैसा कि विनय कई जगह दावा करते हैं कि ये वुमैनहुड (नारीत्व) का उत्सव है, लगभग सही ही लगती है। मगर, ये उत्सव बौद्धिकता की आड़ में मसाला फिल्म ही बनकर रह जाता है। पंचतंत्र से लेकर राजा-रजवाड़ों और फिर मुंबई की अफरातफरी वाली ज़िंदगी में लड़की के लिए शरीर का जुगाड़ कभी मुश्किल नहीं रहा। ये फिल्म शक, अफवाहों और साज़िशों के बीच हर बार यही बात साबित करती दिखती है। एक कमज़ोर दिल का दर्शक अगर ढंग से ये फिल्म देखना शुरू करें तो बगल में बैठी प्रेमिका उसे मांस के टुकड़ों वाली लड़की से ज़्यादा कुछ नहीं लगेगी, ‘वेश्या’ तक लग सकती है। हर औरत इतनी चालू, चालबाज़ और चालाक लगने लगे कि भोलाभाला दर्शक मान बैठे कि सिर्फ शरीर के उत्सव का जुगाड़ ढूंढने में ही औरत कितनी ओवरस्मार्ट हो सकती है। कम से कम नारी की आज़ादी का उत्सव मनाने का ये मकसद तो नहीं ही होना चाहिए कि हर मर्द को मानसिक रूप से इतना बीमार दिखाया जाए कि उसे अपने होने पर शर्म आने लगे। विभूति नारायण राय को फिल्म दिखाकर नए साल में पूछा जाना चाहिए कि नारी को लेकर उनका संकल्प कुछ बदला कि नहीं।

आखिर तक आते-आते फिल्म थोड़ी लंबी और उबाऊ लगने लगती है। आखिरी कहानी तो बेहद चलताऊ किस्म की है, जिसमें एक अधेड़ पति होटल बुक करता है और लड़की की डिमांड करता है तो उसकी बीवी ही परोस दी जाती है। यहां तक की मजबूर औरतें तो हम पहले भी देख चुके हैं मगर कॉमिक ट्विस्ट ये है कि बीवी एक पेड सेक्स वर्कर होती है और रूमसर्विस वाले लड़के पर झल्लाती है कि साले, क्लाइंट देखने से पहले दिमाग तो लगा लिया कर। बोमन इरानी और कोंकणा सेन के नाम पर ये सीन बिना उल्टी किए हजम कर सकते हैं, वरना सड़क पर बीसियों रसीली कहानियों वाली किताबें पड़ी मिलती हैं।

गाने और एक्टिंग के मामले में पूरी फिल्म में कोई दिक्कत नज़र नहीं आती। जावेद अख्तर आखिर तक अपने लिए गुजाइश निकाल जाते हैं। ये हिंदुस्तानी गीत ही हैं जो तमाम तरह के नकल और इंस्पिरेशन से बनी हुई फिल्मों के दौर में देसी और ओरिजिनल लगते हैं। मंजे हुए एक्टर्स के दम पर ही फिल्म वैसे दृश्य भी आसानी से निकाल ले जाती है जो किसी दबंग या तीसमारखां टाइप निर्देशक के हाथ में पड़कर सचित्र सेक्स कहानी बन सकती थी।

अभिनेत्री इला अरुण यहां भी हैं...उनकी आवाज में गाए गीत नारी मुक्ति के बिंदास स्लोगन की तरह लगते है। फिल्म में इला अरुण के संवाद और गीत से न जाने क्यों खलनायक का वो गीत चोली के पीछे क्या है...याद हो आता है जब माधुरी दीक्षित पहली बार लेडी महानायिका बनकर उभरी थी और सचमुच मर्दप्रधान बॉलीवुड में नारी उत्सव मनाया जाना चाहिए था। खैर, वो उत्सव तो गाने को लेकर मची तोड़फोड़ में भंग हो गया।

बतौर फिल्मकार, विनय शुक्ला का चिंतन सीरियस है। फिल्म में कोई आमिर, शाहरूख या सलमान तक होते तो शर्तिया लाखों दर्शक टूट पड़ते क्योंकि उनके लिए बहुत कुछ तीखा है पूरी फिल्म में। इस तरह कह सकते हैं कि ये अपने दौर से काफी आगे की फिल्म है। ऐसी फिल्में बार-बार बनाई जानी चाहिए कि फैमिली ड्रामा के नाम पर फूहड़ फिल्में देखने का आदी हो चुका हिंदुस्तानी दर्शक अपने भीतर छिपे एक बुद्धिमान दिमाग को ढूंढ निकाले। हिंदुस्तान में मल्टीप्लेक्स तो आ गया है, मगर उस माइंडसेट वाले दर्शक अब भी आने बाक़ी हैं। कम से कम पूरी फैमिली के साथ तो नहीं ही आ सकते। अभी तक तो मल्टीप्लेक्स का दर्शक उसी घिसे-पिटे मर्दाना डायलॉग्स पर तालियां पीटता है, जब बड़े पर्दे का सुपरस्टार और छोटे पर्दे का शेफ ये कहता हुआ ‘तीसमारखां’ बनता है कि उसे पकड़ना और तवायफ की लुटती हुई इज़्ज़त बचाना नामुमकिन है।

निखिल आनंद गिरि
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