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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

मांएं डरने के लिए जीती हैं..

हमारा बचपन ऐसा नहीं कि
गाया जा सके उदास रातों में...
हमारे नसीब में नहीं थे सितारे,
जिन्हें तोड़कर टांक सकें स्याह रातों में
उम्र बढ़नी थी, कोई रास्ता नहीं था....
वरना उस एक मोड़ पर रोक लेते खुद को,
कि जहां से ज़िंदगी सबसे उबाऊ और मजबूर रास्ते लेती है..

पूछो अपनी मांओं से,
पूछो पिताओं से....
कि जब कोई रास्ता नहीं रहा होगा....
तो मजबूरी में करनी पड़ी होगी शादी...
और फिर शाकाहारी पत्नियां मांजती रही होंगी बर्तन,
और परोसती रही होंगी मांस अपने पतियों को...

और फिर बेटे हुए होंगे,
बंटी होंगी मिलावटी मिठाईयां..
और बेटियां होने पर सास ने बकी होगी गालियां...
पत्नियां खून का घूंट पीकर रह जाती होंगी...
और पति चश्मा इधर-उधर करते हुए...
पतिव्रता पत्नियां फ़रेब के किस्सों से ज़्यादा कुछ भी नहीं...

बड़े होते बेटों से रहती होगी उम्मीद,
कि उनकी एक हुंकार से सिहर उठेगी दुनिया,
जबकि असल में वो इतना डरपोक थे कि
कूकर की सीटी से भी लगता रहा डर,
कहीं फट न पड़े टाइम बम की तरह...
दीवार पर छिपकली आने भर से..
मूत देते थे सुकुमार लाडले...

और समझिए ऐसे दोगले समय में,
गूंथी हुई चोटियां हथेली में लेकर,
कैसे किया होगा हमने प्यार...
और समझो कितनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी होगी,
ये कहने के लिए, बिन पिए...
कि तुम्हारी नंगी पीठ पर एक बार फिराकर उंगलियां....
लिखना चाहता हूं अपना नाम

हालांकि एक मर्द है मेरे भीतर,                                                            
जो कर सकता है हर किसी से नफरत..
गुस्से में मां को भी माफ नहीं करता
हालांकि ये भी सच है कि...
मांएं डरने के लिए ही जीती हैं,
पहले मजबूर पिताओं से,
फिर मर्द होते बेटों से..

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक मेंप्रकाशित)

रविवार, 8 सितंबर 2013

वो प्यार नहीं था..

कभी-कभी सोचता हूं...
(इतना काफी है मानने के लिए कि ज़िंदा हूं)
कि आकाश तक जाने का कोई पुल होता तो हम छोड़ देते धरती
किसी अमावस की रात में...
और मुझे मालूम है कि,
पिता नहीं, वो तो खर्राटे भर रहे होंगे..
मां भी नहीं, वो थक कर अभी चूर हुई होगी...
तुम ही मुझे आधे रास्ते से उतार लाओगी
कान पकड़े किसी हेडमास्टर की तरह...
जबकि चांद एक सीढ़ी भर दूर बचेगा...
अंधी रात को क्या मालूम उसे तुमने नीरस किया है।

तुम्हारी तेज़ कलाई जब देखी थी आखिरी बार,
मुझे नहीं आता था बुखार नापना...
मेरी धड़कनों में वही रफ्तार है अभी...
इस वक्त जब ले रहा हूं सांसें...
और हर सांस में डर है मरने का...
तुम्हें भूलने का इससे भी बड़ा...
 
ये बचपना नहीं तो और क्या
कि जिस चौराहे से गुज़रिए वहां भगवान मिलते हैं
इस आधार पर मान लिया जाए,
कि बचपन की हर चीज़ वहम थी...
मौत के डर से हमने बनाए भगवान,
जिन्हें मरने का शौक होता है,
वो बार-बार प्यार करते हैं...

जबकि, प्यार कहीं भी, कभी भी हो सकता है...
छत पर खड़े हुए तो सूखे कपड़ों के बीच में..
और जब सबसे बुरे लगते हैं हम आईने में, तब भी...

तो सुनो, कि मैं सोचने लगा हूं अब..
तुमने चांद से सीढ़ी भर दूर मुझे मौत दी थी...
और सो गयी थीं गहरी नींद में...
वो प्यार नहीं था,
प्यार कोई इतवार की अलसाई सुबह तो नहीं,
कि इसे सोकर बिता दिया जाए

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

कहीं बीच में जो रुकी है कहानी...

राशि मेरी ज़िंदगी में थोड़े वक्त के लिए ही आई....आप हमारे छोटे-से रिश्ते को दोस्ती कह सकते हैं या ज़्यादा समझ रखने वाले प्यार भी समझ सकते हैं...अगर ये प्यार है, तो मुझे प्यार कई बार हो चुका है...(प्रेमिकाएं मुझे गालियां दे सकती हैं...)..जिस तरह अचानक ज़िंदगी में आई, चली भी गई...हमारी मुलाकात न तो दोबारा हुई और न ही ऐसी कोई संभावना है...फ्रेंडशिप डे के ठीक पहले अचानक एक चिट्ठी आई तो सोचा यहीं शेयर कर लूं...बहुत दिन हुए, दिल्ली में किसी से इतना प्यार पाए...अगर आप भी किसी अच्छे दोस्त को याद करना चाहते हैं तो टूटी-फूटी नज़्म ही लिख कर भेज दें....प्यार में डूबे हर कच्चे-पक्के शब्द को नोबेल दिया जाना चाहिए..दिल से ही सही..

प्रिय निखिल,

आपसे वादा किया था कि आपके लिए कुछ लिखेंगे, तो बस आँखें बंद करके कुछ यादें इकठ्ठा करके, उनको तोड़ मरोड़ के, एक कविता लिखने का प्रयास किया मैंने... लिखते चले गए, ख्याल आया काफी लम्बी हो गयी है कविता पर कहने को अभी भी काफी कुछ बाकी है...जो कहना बाकी है वो आपको पता है और हमको भी तो फिर कहने की क्या ज़रुरत और फिर कुछ बातों सिर्फ हम दोनों के बीच राज़ है, वह मैं औरों से बांटना नहीं चाहती...आशा है आपको पसंद आएगा ये प्रयास...

ऐसे तो और भी बहुत कुछ है लिखने को,
लेकिन जिस पर लिखने जा रही हूं, वो भी कुछ कम नहीं है...
आज ही सवेरे फिर मिल गया...
जब भी मिलता है मुझको,
अपने आप से मिलवा देता है....
ऐसे बड़ा ज़िंदादिल है मगर,
कहीं कुछ छिपा है...

कॉलेज के एकमात्र खंडहर-से पुस्तकालय में.
चुड़ैल-सी शक्ल बनाए बैठा था वो..
जैसे निखिल आनंद गिरि नहीं हिंदी का रचयिता हो...
ऐसे हर वक्त ऐँठता है वो...
मौका मिलते ही शेखी बघारने से बाज़ नहीं आते जनाब,
उनके हिसाब से दुनिया में उनको छोड़कर बाक़ी सब हैं ख़राब
इन सब के पीछे मगर एक शांत, थोड़ा शैतान-सा बच्चा है...
उस काली कलूटी शक्ल के पीछे मगर जो दिल है, वो अच्छा है....

दोस्ती करमे में तो माहिर हैं हुजूर,
दिल तोड़ने का फन भी जानते हैं ज़रूर
इतना सोचते हैं कि ख़ुद को खो दिया है...
कोई पूछ ले कान ऐंठ के..
मुंह फुला के कहता है 'मैंने क्या किया है...'

अंग्रेज़ी अच्छी है लेकिन अंग्रेज़ी से ख़ास लगाव नहीं है...
उनके हिसाब से नदी का आजकल सीधा बहाव नहीं है...
एक वो है बाहर से तो दुनिया से रुठे हुए-से हैं...
पर लगता है जनाब अंदर से ख़ुद टूटे हुए-से हैं...

पीछे पड़ जाना इनकी आदत में शामिल है,
और बात का बतंगड़ बनाने में इन्हें महारत हासिल है...
मिट्टी की खुशबू आती है जब भी ये बोलते हैं,
न जाने अनजाने में ये ऐसे कितनों के पोल खोलते हैं...

एक रास्ता मुझे भी दिखाया था कभी,
वहीं भूल आयी थी अपना एक हिस्सा
याद आया अभी...

एक दुनिया दिखाई थी उम्मीद की,
सपनों की और  विश्वास की...
आज वही उम्मीद, सपने और विश्वास...
वजह हैं हमारी सांस की....

सिखाया था मुझे विश्वास करना अपने ख़्वाबों पर,
सिखाया था मुझे दिल जीतना किसी का सिर्फ बातों पर....

आज देखती हूं तो लगता है,
अपनी ज़िंदगी की ही एक ख़ूबसूरत झांकी है..
हां, तुम ठीक कहते थे निखिल आनंद गिरि
सिर्फ नाम ही काफी है...

राशि

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

एक शायर मर गया है...

एक शायर मर गया है,
इस ठिठुरती रात में...
कल सुबह होगी उदास,
देखना तुम....

देखना तुम...
धुंध चारों ओर होगी,
इस जहां को देखने वाला,
सभी की...
बांझ नज़रें कर गया है....
एक शायर मर गया है....

मखमली यादों की गठरी
पास उसके...
और कुछ सपने पड़े हैं आंख मूंदे....
ज़िंदगी की रोशनाई खर्च करके,
बेसबब नज़्मों की तह में,
चंद मानी भर गया है.....
एक शायर मर गया है....

एक सूरज टूट कर बिखरा पड़ा है,
एक मौसम के लुटे हैं रंग सारे....
वक्त जिसको सुन रहा था...
गुम हुआ है...
लम्हा-लम्हा डर गया है....
एक शायर मर गया है...
इस ठिठुरती रात में....

निखिल आनंद गिरि
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