कवि मित्र अंचित ने जर्नल इंद्रधनुष पर कुछ दिन पहले मेरी कुछ कविताएं पोस्ट की थीं जिस पर एक सुधी पाठिका की विस्तृत टिप्पणी आई है।
कीमोथेरेपी: शोक और यथार्थ
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‘कीमोथेरेपी’ कविता महज़ एक बीमारी का बयान नहीं है; यह आधुनिक चिकित्सा-व्यवस्था के भीतर जीवन-मृत्यु की विडंबनाओं को उजागर करती है। कवि अस्पताल की उस ‘आराम कुर्सी’ को दिखाता है, जो विडंबना से भरी है—
“यह आराम कुर्सी है जहाँ / न मन को आराम है, न तन को।”
इस कुर्सी पर बैठकर जीवन को बनाए रखने के लिए शरीर में ‘ज़हर’ चढ़ाया जाता है। बीमारी एक मेडिकल शब्द से ज़्यादा, परिवारों के लिए आर्थिक बोझ और मानसिक यातना का प्रतीक बन जाती है। कवि मृत्यु को कोई रहस्यमय या पौराणिक शक्ति नहीं बनाता, बल्कि एक सामाजिक यथार्थ के रूप में देखता है, जहाँ रिश्तेदार ‘लाइन में खड़े खड़े आँसू छिपाते हैं’। यह यथार्थबोध कविता को निजी अनुभव से निकालकर सार्वभौमिक पीड़ा का रूप देता है।
इन कविताओं का केंद्र कवि की पत्नी की बीमारी और मृत्यु है। लेकिन कवि का स्वर विलापपूर्ण होकर भी आत्मदया में नहीं फँसता। शोक की भाषा यहाँ दार्शनिकता में बदलती है—
“मृत्यु बुद्ध हो जाना है / रोना, कलपना, मिलना बिछड़ना / सब छोड़ शुद्ध हो जाना है।”
यहाँ मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि एक गहन बोध का क्षण बनती है। कवि शोक के माध्यम से जीवन की क्षणभंगुरता को रेखांकित करता है। ‘प्रेतशिला’ जैसी कविता तो मृत्यु से जुड़ी सांस्कृतिक परंपराओं पर भी प्रकाश डालती है: कैसे लोग प्रियजनों को विदा देने के बाद भी आंसुओं की सीढ़ियों से बार-बार लौटते हैं।
स्मृतियाँ इन कविताओं में सिर्फ़ यादें नहीं, बल्कि जीवित अनुभव हैं, जो वर्तमान को ढक देती हैं।
“नहीं गई शहर बदलकर भी /कहां कहां नहीं गया मैं / नहीं गईं तो नहीं ही गईं स्मृतियां।”
कवि मई के महीने को दिसंबर तक अपने साथ ढोता है; स्मृतियाँ इतनी ठोस हो जाती हैं कि वे सालों के कैलेंडर को स्थगित कर देती हैं। यह शोक की लंबी यात्रा का सटीक चित्रण है।
निखिल आनंद गिरि की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है—सीधी, बोलचाल की भाषा। इनमें कोई जटिल प्रतीकवाद नहीं, बल्कि जीवन के सीधे अनुभव हैं, जो आत्मीयता और तीखेपन से पाठक को छूते हैं। कवि का शिल्प लघुकथा-सदृश है; कई कविताएँ छोटी-छोटी घटनाओं और संवादों से बनती हैं।
उदाहरण के लिए, ‘आखिरी मुलाकात’ कविता में छोटे-छोटे दृश्य—टोटो पर सफर, महंगे फल, पैसेंजर ट्रेन का ज़िक्र—मृत्यु के क्षण को बहुत ही सामान्य बनाते हैं, जिससे उसका प्रभाव और गहरा हो जाता है।
कवि स्मृतियों को बिंबों में ढालता है—“अब मैं अपनी आंखों में हरदम एक नदी रखूंगा”—यहाँ नदी सिर्फ़ पानी का प्रवाह नहीं, शोक का अनंत विस्तार बन जाती है।
कवि निजी शोक में डूबकर भी सामाजिक यथार्थ को दर्ज करना नहीं भूलता। “सरकारें पलक झपकते बदलीं/ एक और नया कथावाचक मिला हिंदुओं को/ गोलियाँ चली गाय के नाम पर” जैसी पंक्तियाँ दिखाती हैं कि जीवन और मृत्यु की व्यक्तिगत कहानियाँ भी समाज और राजनीति से अलग नहीं हैं। अस्पतालों की व्यवस्था, बीमा कंपनियाँ, लॉकडाउन, महंगाई—ये सब कविताओं के पीछे चलती दुनिया को जीवंत बनाते हैं।
इन कविताओं की ताकत यह है कि वे असाधारण त्रासदी को सामान्य जीवन के टुकड़ों में बुनती हैं। पत्नी की बीमारी के बीच कवि चार साल की बेटी का ‘बासी भात और चिप्स’ खाकर इंतज़ार करना याद करता है; यह दृश्य पाठक को असहाय कर देता है। यहाँ कोई कृत्रिम करुणा नहीं, बल्कि सहज जीवन-दृश्य हैं।
कविता का लहजा सीधा, आत्मीय और संवादात्मक है। कवि पाठक से जैसे अपनी कहानी कह रहा हो। उदाहरण:
“प्रिय दुनिया, बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया!”
यह आत्मालाप है, जो कविता को गद्य की तरह सहज बनाता है, लेकिन भावनाओं का घनत्व कविता की शक्ति बनाए रखता है।
इन कविताओं में केवल बीमारी का डर नहीं, बल्कि समय से फिसलते जाने का अहसास है।
“समय केले का छिलका है / फिसल रहे हैं हम सब।”
यह रूपक आधुनिक जीवन की अस्थिरता को बहुत सहज ढंग से पकड़ लेता है। कवि खुद को चौकीदार, भिक्षुक, या टैंपर्ड ग्लास की तरह प्रस्तुत करता है—यह आत्मचित्रण कविताओं को और गहरा बनाता है।
कविता में बच्चों का ज़िक्र बार-बार आता है। बीमारी और मृत्यु के बीच कवि की सबसे बड़ी चिंता यही है कि बच्चे क्या महसूस करेंगे, वे किस दुनिया में बड़े होंगे। “बच्चों के लिए क्या है दुनिया / सिवाय प्लेस्कूल के” जैसी पंक्ति में यह चिंता बहुत मार्मिक ढंग से व्यक्त होती है।
निखिल आनंद गिरि की कविताएँ मृत्यु को किसी रहस्यमयी छाया की तरह नहीं, बल्कि एक ठोस यथार्थ के रूप में देखती हैं। वह मृत्यु से संवाद करता है, सवाल पूछता है:
“क्या मृत्यु ग़लत नहीं होती कभी!”
यह प्रश्न मृत्यु को भी मानवीय संदर्भ में खड़ा कर देता है। कवि मृत्यु को शुद्धता, बुद्धत्व और विराम का प्रतीक मानता है, लेकिन उससे भावनात्मक प्रतिरोध भी करता है।
‘प्रेतशिला’ कविता केवल व्यक्तिगत शोक नहीं, बल्कि भारतीय मृत्यु-परंपराओं का दार्शनिक चित्रण है। गया की सीढ़ियाँ, रोते हुए परिजन, मुक्ति की खोज—ये सब इस कविता को भारतीय समाज और संस्कृति से गहराई से जोड़ते हैं। यह कवि के निजी अनुभव को सामूहिक सांस्कृतिक अनुभव का हिस्सा बना देती है।
संग्रह के अंत में छोटी कविताएँ हैं, जो कम शब्दों में गहरा असर छोड़ती हैं। जैसे:
“बीमारियां सब बुरी मगर सबसे बुरी वो जो पिता को हो।”
या
“लाख चाहता हूं कि तुमसे अलग करूं ख़ुद को, लेकिन तुम जैसे मेरे घुटनों का काला धब्बा।”
ये पंक्तियाँ भावनाओं को संक्षिप्त, मगर तीखे ढंग से व्यक्त करती हैं।
यह संग्रह बीमारी और मृत्यु पर कवि की निजी डायरी जैसा लगता है, लेकिन इसका असर व्यक्तिगत से बहुत आगे जाता है। कवि का ईमानदार आत्मकथ्य, सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ, पारिवारिक बिखराव और बच्चों के प्रति संवेदनशील दृष्टि इसे समकालीन हिंदी कविता में एक अनोखी आवाज़ बनाते हैं। इसमें कोई काव्यिक अलंकरण नहीं, लेकिन सहज भाषा में संवेदनाओं की गहराई पाठक को अंदर तक छू लेती है।
समकालीन हिंदी कविता में बीमारी और शोक पर लिखना आसान नहीं, क्योंकि यह विषय भावुकता में डूब सकता है। लेकिन निखिल आनंद गिरि की ताकत यही है कि वे भावुकता से बचते हुए करुणा को यथार्थ में बदल देते हैं। यह कविता उन सभी पाठकों को जोड़ती है जिन्होंने किसी प्रियजन को बीमारी और मृत्यु में खोया है।
‘कीमोथेरेपी’ और उससे जुड़ी कविताएँ जीवन और मृत्यु के बीच खड़े मनुष्य का सशक्त दस्तावेज़ हैं। यह संग्रह एक साथ निजी डायरी, शोकगीत और सामाजिक बयान बन जाता है। कवि अपने अनुभव को शब्दों में ढालकर मृत्यु को मानवीय बना देता है, और यही इन कविताओं की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
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-- रेणु रंजन
बहुत बहुत धन्यवाद
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