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शनिवार, 13 अप्रैल 2024

नदी तुम धीमे बहते जाना

नदी तुम धीमे बहती जाना 
मीत अकेला, बहता जाए
देस बड़ा वीराना रे
नदी तुम..

बिना बताए, इक दिन उसने
बीच भंवर में छोड़ दिया
सात जनम सांसों का रिश्ता
एक झटके में तोड़ दिया
एक नदी भरकर आंखों में
फिरता हूं दीवाना रे
नदी तुम.. 

वही पुरानी गलियां सारी
वही शहर के रस्ते हैं
वही फूल जो तुमने रोपे
मुझे देखकर हंसते हैं
किसे दिखाएं जीते जीते
घुट घुट कर मर जाना रे
नदी तुम..

उफनती लहरों से बचकर
मछलियों लेना उसको धर
बड़ा भोला है वो दिलबर
नदी तुम रहना मां बनकर
नदी वो लंबी नींद में होगी
उसको हौले से सुलाना रे
नदी तुम धीमे बहती जाना रे..



निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 29 मई 2023

अचानक नदी में उतरी लड़की के लिए


वो नाराज़ हुई तो तो उठकर चली गई
किसी दूसरे कमरे में 
फिर किसी और कमरे में 
फिर एक दिन घर से बाहर चली गई
फिर एक दिन दुनिया से बाहर
कभी नहीं लौटी।

उसने अपने गुस्से की ईमानदारी बरतते हुए
अपने आसपास ऐसे लोग खड़े किए 
जो मुझे उससे दूर रख सकें
उन लोगों के चेहरे ठीक ठीक याद नहीं
मगर नीयत देखकर लगता था कि
वो अपने काम में सफल होंगे

उन्होंने कंटीली झाड़ियां उगाईं चारों तरफ
ज़हरीले सांप छोड़े मेरे पीछे
फिर खुद
बेहद बदबूदार, हिंसक और क्रूर जानवर में बदल गए
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

वो मेरे सपनों में अपने असली रूप में आए 
और उसके सपनों में मेरा रूप धरकर
उसे मेरी कमी पूरी करने का भ्रम दिया
फिर उसका भ्रम टूटा तो
उसके सपने तक डरावने हो गए

उसने कंटीली झाड़ियों को पार करने की कोशिश की
लहुलूहान हुई 
फिर उसके आसपास के लोग 
जो हिंसक, क्रूर और बदबूदार थे
जिन्हें ख़ून का स्वाद पसंद था

उन्होंने उसके छलनी शरीर को चाटना शुरू कर दिया
फिर उसे भरोसा दिलाया कि इससे दर्द कम होगा
फिर खून चूसने लगे
फिर भरोसा दिलाया कि इससे सब ठीक होगा
उसने चीखना चाहा, जैसा कि उसकी रोज़ाना आदत थी
मगर अब चीख नहीं पाई

मैं गया तो उसे कंटीली झाड़ियों पर लेटा हुआ पाया
उसका खून सूख चुका था

उसे कुछ याद नहीं कि कब आंधी आई, आग उठी, तूफ़ान आया, बारिश हुई..
एक अद्भुत शांति थी उसके चेहरे पर
वह कई लोगों का ज़हर खींच कर बुद्ध की मुद्रा में थी

मैंने हल्के से आवाज़ दी तो नहीं उठी
थोड़ा तेज़ आवाज़ दी तो भी अनसुना कर दिया
मैं समझने को मजबूर हुआ कि अब वो मुझे इस तरह कभी नहीं सुनेगी।

अब हम सिर्फ मौन की भाषा में चीखते हैं
जिसे और कोई सुन नहीं सकता
हम दोनों साफ़-साफ़ सुनते हैं
और रो-रोकर मुस्कुराते हैं।

मैं उसे पलट कर देखता हूं
वो अब भी सो रही है
उसे दर्द में आराम है अब
मेरे देखने भर से ही।

मैं उसे पलट पलट कर देखता हूं
अब वो वहां नहीं लेटी है
शायद गंगा में उतरी होगी
उसे नदी का पानी बहुत पसंद था

अब मैं अपनी आंखों में हरदम एक नदी रखूंगा।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 23 जनवरी 2023

उदास मौसम का प्रेमगीत

ये सच है कि मेरे सपनों में 
जादू वाली परियां आती थीं बचपन में
मगर उनका चेहरा ग़ायब हो जाता था भोर से पहले
तुम्हारा होना किसी भोर के सपने का सच होना लगता है

तुम्हारा होना
संसार की सबसे सुंदर घड़ी का कलाई पर होना है
जिसमें बुरे से बुरा समय भी निखर कर आता है

तुम्हारा होना
किसी गुरुद्वारे में प्रवेश के पहले
पानी में पैर रखने जितना पवित्र
जहां से जीवन एक गुरुद्वारा लगता है

जैसे दिल्ली कोई बेहद निर्मम, भावहीन शहर नहीं
यह अथाह शोर की राजधानी नहीं
किसी संगत में बजती बानी में 
बदल जाता है
जहां घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर लौटना
सपनों का मर जाना नहीं लगता।

तुम्हारा होना मुझे इस क़दर मज़बूत करता है
जैसे मैं कोई दरवेश हो जाता हूं
और किसी आखिरी सांस ले रहे निर्जीव शरीर में भी 
जीवन फूंक देने के विश्वास से भर जाता हूं

मौन सबसे सुंदर भाषा हो जाती है
जब मैं होता हूं तुम्हारे साथ  
जब मेरे रुखे चेहरे को स्पर्श करते हैं 
तुम्हारी कटी-छिली उंगलियों वाले हाथ
यह देह का स्पर्श नहीं
आत्मा का मिलन लगता है

तुम्हारी बाहें दो पंख हैं
तुम्हारी पीठ पर किसी शिशु-सा कस कर बंधा मैं
पैदल चलते हुए हम अचानक
कितनी दूर निकल जाते हैं ब्रह्मांड में
 
अब मेरी दीवारों में कोई सीलन नहीं
मेरी दोस्तों से कोई अनबन नहीं
मेरे मोज़ों में कोई बदबू नहीं
मेरे पहियों में कोई पंक्चर नहीं
मेरे पिता को कोई बीमारी नहीं
इस दुनिया में कोई युद्ध नहीं

तुम्हारे साथ होना अपनी जड़ों में होने जैसा है
जहां कमियां कोई घाव नहीं लगतीं चरित्र का
हम पैसे खोने पर दुखी नहीं होते
हम रास्ता भटकने पर डरते नहीं
दुख कोई छिपाने जैसी मजबूरी नहीं लगती

जहां मैं एक ही वक्त में 
बेटा, भाई, पति, पिता,
मुजरिम, शराबी, फ़कीर
यानी जैसा चाहूं वैसे का वैसा 
हो सकता हूं

जहां मैं जब चाहूं अपनी मातृभाषा में 
देर तक रो सकता हूं 

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 27 मई 2022

बेटी का स्कूल

कल स्कूल खुलेंगे कई दिन बाद 
क़ैद से निकलेंगी बच्चियाँ
नए पुराने दोस्तों से मिलेंगी

फरहाना के साथ लंच शेयर करेगी 
जेनिस के साथ खूब बातें करेगी
रवनीत बनेगी बेंच पार्टनर

फरहाना बताएगी वॉटर पार्क के क़िस्से
छपछप करती है वो अक्सर जाकर

जेनिस बताएगी कैसे मुर्गे की आवाज़ निकालकर
खिड़की के बाहर आता है रोज़ 
गुब्बारे वाला

रवनीत बताएगी 
गुरुद्वारे जाकर दुखभंजनी साहब गाती है वो 
हर बुधवार

मेरी बच्ची भी बताएगी 
नई जगहों के बार में 
जहाँ मम्मी ले जाती है उसे, 

बताएगी कोर्ट गयी थी घूमने 
पिछले मंगलवार
कोर्ट एक मस्त जगह है
जहाँ मम्मी-पापा बिल्कुल नहीं लड़ते
सिर्फ़ प्यार करते हैं मुझसे। 

बताएगी फरहाना को
वॉटरपार्क से बुरा नहीं है थाने जाना
पुलिस वाले अंकल देते हैं खूब सारी टौफियाँ
और पापा से काफी देर बातें करते हैं। 

जेनिस को बताएगी
घर पर आती रहती है पुलिस
जैसे उसके यहाँ आता है गुब्बारे वाला। 

अगली बार आई पुलिस तो वो रवनीत से सीखकर 
गाएगी दुखभंजनी साहेब

और रोएगी बिल्कुल नहीं।

निखिल आनंद गिरि

मंगलवार, 10 मार्च 2015

मुझे चांद नहीं, दाग़ चाहिए

पुरानी डायरी में से कुछ दोबारा पढ़ना अलग तरह का अनुभव है। पुराने दुख नए लगते हैं तो आप मुस्कुराने लगते हैं। दुखों की यही ख़ास बात होती है। आपको हरदम ज़िंदा रखते हैं। सुख आलसी बनाते हैं। ज़िंदगी एक पुरानी होती डायरी से ज़्यादा कुछ भी नहीं। 

संसार के पहले दो लोग शायद इसीलिए प्यार कर पाए कि वो एक-दूसरे की नौकरी नहीं करते थे। नौकरी एक कमाल का आविष्कार है। आप एक ख़ास तरह से जीने के लिए तैयार होते जाते हैं। नौकरी में अगर आपसे कोई प्यार से बात कर रहा होता है तो वो एक चाल हो सकती है। नौकरी हमें शक करना सिखाती है। हमारा आना-जाना, मौजूद रहना ज़िंदगी से ज़्यादा एक रजिस्टर का हिस्सा होता है। कुछ लोग पैसा कमाने के लिए नौकरी करते हैं, कुछ लोग घर चलाने के लिए। मगर आखिर तक आते-आते वो सिर्फ नौकरी करते हैं। जैसे प्रेम विवाह या जुगाड़ विवाह कुछ सालों के बाद सिर्फ एक शादी ही होती है।  मुझे वो रिश्ते अक्सर याद आते हैं जो कभी बने ही नहीं। या जो बने और टूट गए, तोड़ दिए गए। शायद इसी को अहंकारी होना कहते हैं। जो नहीं है, उस पर अधिकार जमाने की कसक। 
मुझे चांद नहीं चाहिए। चांद का दाग़ चाहिए। इस तरह से चांद भी चाहिए। मुझे समुद्र की जगह खारापन मांगने वाला एक दिल चाहिए। इस तरह से भी मिलता सागर ही है। मुझे बारिश अच्छी नहीं लगती। गीली छत अच्छी लगती है। इस तरह से बारिश अच्छी लगती है। किसी का नहीं होना भी इतना अच्छा लगता है कि उसके होने की चाह में ज़िंदगी भली-पूरी गुज़ारी जा सकती है।
'कुछ नहीं चाहिए' भी एक तरह का चाहिए ही है। 
मुझे वो मासूमियत चाहिए जो मेरी चार साल की भतीजी के चेहरे पर दिखती है जब वो सबसे पूछती है - 'ये बचपन क्या होता है?'
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 28 दिसंबर 2011

मैं जी रहा हूं कि मर गया...

जो घड़ी-सी थी दीवार पर
वो कई दिनों से बंद है...
मेरे लम्हे हो गए गुमशुदा
किसी ख़ास वक्त में क़ैद हूं...

हुए दिन अचानक लापता...
यहां कई दिनों से रात है....
मुझे आइने ने कल कहा
तुम्हें क्या हुआ, क्या बात है

मुझे अब भी चेहरा याद है,
जो पत्थरों में बदल गया...
कोई था जो मेरी रुह से,
बिन कहे ही फिसल गया

ये उदासियां, बेचारग़ी
मेरे साथ हैं हर मोड़ पर,
आगे खड़ी हैं रौनकें,
तू ही बता मैं क्या करूं..

मैं रो रहा हूं आजकल
सब फिज़ाएं नम-सी हैं
जीते हैं कि इक रस्म है...
सांसे तो हैं, पर कम-सी हैं...

मैं यक़ीं से कहता हूं तू ही था
जो सामने से गुज़र गया
कोई ये बता दे देखकर,
मैं जी रहा हूं कि मर गया

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

उन्हें सुबह उठना था कि मुर्गियों की गर्दन काट सकें...

एक छत के नीचे कई घरों के मर्द रहते थे। सिर्फ मर्द। औरतें उनके गांव रहा करती थीं और चादर के भीतर से रात को अपने मजदूर पतियों को मिस कॉल दिया करती थीं। पति उन्हें वादा करते कि इस बार वापस आकर उन्हें सोने के गहने ज़रूर देंगे। पत्नियां जानती थीं कि पति जब भी आएंगे सोने के गहने लाना भूल जाएंगे। फिर भी वो अपने पतियों पर गुस्सा करने के बजाय इंतज़ार ही करती थीं। रिमोट वाले टीवी पर जब परदेस की ख़बरें आतीं तो उनके चेहरे खिल जाते। उन्हें लगता टीवी में कभी न कभी उनके पति की तस्वीर भी ज़रूर दिख जाएगी। उन्हें लगता टीवी की आंखे बहुत महीन हैं और वो सब कुछ देखती हैं। उन्हें टीवी में कोई भगवान विश्वकर्मा नज़र आते थे। किसी ने विश्वकर्मा को देखा नहीं था मगर लोहे के सब सामानों का ज़िम्मा इन्हीं भगवान के भरोसे था। मर्दों को शादियां सोने के बैसाखी की तरह लगतीं जिसे टांग टूटने के बाद सहारे की तरह ही इस्तेमाल किया जा सकता है।
दातुन करने के वक्त उसे एक धुन याद आई। वो गुनगुनाने लगा। इस धुन को सुनकर उसका साथी रोने लगा। उसे अपने गांव की याद आ गई। वो पहली बार शहर आया था, इसीलिए उसके भीतर का गांव अभी मरा नहीं था। उसने बीए पास करने के बाद कई फॉर्म भरे मगर एडमिट कार्ड तक नहीं आय़ा। उसे लगा कि सरकारी नौकरियां सिर्फ खास लोगों की किस्मत में होती हैं और वो इस कैटेगरी में नहीं आता। उसे शादी भी करनी थी, मगर सरकारी नौकरी नही मिलने की वजह से शादी में भी दिलचस्पी खत्म होती जा रही थी। उसने रातों को छत पर चांद निहारना शुरू कर दिया था। हालांकि, उसे मालूम था कि चांद पर पहुंचना भी कुछ किस्मत वालों के हाथ में ही है।

अफसोस एक ऐसी सदाबहार चीज़ है कि हर सुबह चाय की तरह साथ देती है। उन मुर्गियों को देखकर भी अफसोस होता है जो कटने के लिए ही आंखे खोलती हैं। उन दुकानदारों को देखकर भी जो हर सुबह मुर्गियों की गर्दन काटने के लिए ही सुबह का इंतज़ार करते हैं। टीवी देखकर भी कम अफसोस नहीं होता। जो लोग कैमरे पर नज़र आते हैं, ज़रूरी नहीं कि सिर्फ उन्हीं की बात सुनी जाए। कोई एक शहर किसी एक जश्न में खुश है तो भी शहर के दुख खत्म नहीं हो जाते। पहली बार कोई इंसान कैमरे के आगे दुख भरा गाना गा रहा हो तो उस आदमी का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए जो कैमरे के पीछे खड़ी भीड़ को तालियां बजाने के लिए उकसा रहा है। उन्हें हर हाल में कैमरे पर अच्छा-अच्छा देखने की आदत पड़ी हुई है। साफ-सुथरे चेहरे और ताली बजाने वाले हाथ।

निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 26 मार्च 2011

शादियों का इतिहास नहीं होता...

शादियां करना उन्हें बहुत पसंद था। और अपनी तस्वीरों की जगह बिल्लियों या लाल गुलाब लगाना भी उन्हें अच्छा लगता था। उन्हें लगता कि कोई है जो सिर्फ उनके लिए बना है। वो दुनिया की सबसे महंगी कार में सवार होकर आएगा और उस वक्त समय सबसे खूबसूरत लगेगा। जबकि, ये वो दौर था जब एक सुनामी आती तो मोहब्बत की हज़ारों कहानियां बहाकर ले जाती। इनमें कई महंगी कारें भी थीं, जिन्हें बहता देखकर लोग रोना तक भूल गए थे।

वो एक यादगार शाम थी क्योंकि पहली बार उसने एक लड़के को मुंह पर गंदी गाली बकी थी (कुछ गालियां अच्छी भी होती होंगी, शायद मां के मुंह से निकलने वाली)।  कहने वाले कहते रहे कि दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं मगर लड़की का गुस्सा कम होने का नाम नहीं ले रहा था। लड़के ने कुछ नहीं कहा था। उसे पहली बार की हर चीज़ अच्छी लगती थी। इसीलिए वो कई बार पहला प्यार कर चुका था। कई बार पहली गाली नहीं खाई थी। उसने गाली खाने के बाद लड़की से पूछा कि क्या उसे चूम सकता है। लड़की ने थोड़ी देर कुछ नहीं कहा और फिर अपनी आंखे बंद कर ली।

ये शहर उसे मरने की फुर्सत भी नहीं देता था और जीने के लिए जो ज़रूरतें उसकी थीं, वो कहीं भी पूरी की जा सकती थीं। वो अपने पिता के लिए कोई बीमा पॉलिसी लेना चाहता था मगर दुनिया की कोई भी बीमा पॉलिसी बूढ़े लोगों का खयाल नहीं रखती थी। उन्हे ज़िंदा लोग अच्छे लगते थे और वो नहीं जिनकी जेब में सिर्फ पेंशन आती हो।

शहर में कई मोहल्ले थे और मोहल्ले में कई पेचीदा गलियां जहां छतों के बीच फासले इतने कम थे कि नफरत को पनाह नहीं मिलती थी। इन गलियों में हर रोज़ कोई नई प्रेम कहानी जन्म लेती थी। इन गलियों का इतिहास गूगल पर नहीं मिलता था। इनके नक्शे किसी इतिहास की किताब में भी नहीं मिलते थे। इतिहास सिर्फ उतना ही बताता रहा जितना इम्तिहानों में पास करने के लिए ज़रूरी होता है। वो इतिहास में अपनी जगह बनाना चाहता था इसीलिए उसे शादियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसे शादियों से बेहतर सुनामी लगती थी, जहां बड़ी से बड़ी कारें कागज़ की नाव की तरह बहती थीं और पॉलिसी के कागज़ भी।

निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

कच्ची उम्र की लड़कियां...


ये कविता तीन साल पुरानी है...मन हुआ शेयर की जाए, तो कर दिया...

कभी-कभी होता है यूं भी,

कि घर से कच्ची उम्र में ही भाग जाती हैं लड़कियां,

और पिता कर देते हैं,

जीते-जी बेटी की अंत्येष्टि...

हो जाता है परिवार का बोझ हल्का..


और कभी यूं भी कि,

बेटियां करती हैं इश्क

और पिता देते हैं मौन सहमति

ताकि बच सके शादी का खर्च,

बेटियां मन ही मन देती हैं

पिता को धन्यवाद...

और पिता भी दब जाता है

बेटी के एहसान तले....


कच्ची उम्र में मर्ज़ी से

ब्याह रचाने वाली लड़कियां,

सदी का सबसे महान इतिहास लिख रही हैं

इतिहास जिसका रंग न लाल है न गेरुआ,

इतिहास जिनमें उनका प्रेमी एक है,

पति भी एक

और भविष्य भी एक ही है....

उनकी आंखों में सबके लिए प्यार है

आमंत्रण रहित..


आप चाहें तो आज़मा लें,

अंजुरी-भर प्यार का आचमन

सिखा देगा जीवन को

अपना शर्तों पर जीने का शऊर...


कच्ची उम्र की लड़कियां

जो पैदा होती हैं

दो-तीन कमरे वाले घरों में,

दूरदर्शन या विविध भारती के शोर में

नीम अंधेरे में,

लैंप की मीठी रौशनी में

पढ़ती हैं,

कुछ रूटीन किताबें

और पवित्र चिट्ठियां..

शादी कर उतारती हैं पिता का बोझ,

बनती हैं माएं...


सच कहूं,

उनकी छाती में दूध होता है अमृत-सा,

अपना बहाव ख़ुद तय कर सकने वाली ये लड़कियां,

मुझे लगती हैं गंगा मईया...

जो कभी दूषित नहीं हो सकती...


इतिहास उन्हें कभी नहीं भूल सकता,

जिन्होंने अपनी मजबूर मांओं के साथ,

एक ही तकिये पर सिर रखकर सोते हुए,

रचा है नयी सदी का नया इतिहास

धानी रंग में...

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

रात, चांद और आलपिन....

अभी बाक़ी हैं रात के कई पहर,


अभी नहीं आया है सही वक्त

थकान के साथ नींद में बतियाने का....

उसने बर्तन रख दिए हैं किचन में,

धो-पोंछ कर...

(आ रही है आवाज़....)

अब वो मां के घुटनों पर करेगी मालिश,

जब तक मां को नींद न आ जाए..

अच्छी बहू को मारनी पड़ती हैं इच्छाएं...

चांदनी रातों में भी...

कमरे में दो बार पढ़ा जा चुका है अखबार....

उफ्फ! ये चांदनी, तन्हाई और ऊब...


पत्नी आती है दबे पांव,

कि कहीं सो न गए हों परमेश्वर...

पति सोया नहीं है,

तिरछी आंखों से कर रहा है इंतज़ार,

कि चांदनी भर जाएगी बांहों में....

थोड़ी देर में..

वो मुंह से पसीना पोंछती है,

खोलती है जूड़े के पेंच,

एक आलपिन फंस गई है कहीं,

वो जैसे-तैसे छुड़ाती है सब गांठें

और देखती है पति सो चुका है..

अब चुभी है आलपिन चांदनी में...

ये रात दर्द से बिलबिला उठी है....


सुबह जब अलार्म से उठेगा पति,

और पत्नी बनाकर लाएगी चाय,

रखेगी बैग में टिफिन (और उम्मीद)

एक मुस्कुराहट का भी वक्त नहीं होगा...


फिर भी, उसे रुकना है एक पल को,

इसलिए नहीं कि निहार रही है पत्नी,

खुल गए हैं फीते, चौखट पर..

वो झुंझला कर बांधेगा जूते...

और पत्नी को देखे बगैर,

भाग जाएगा धुआं फांकने..


आप कहते हैं शादी स्वर्ग है...

मैं कहता हूं जूता ज़रूरी है...

और रात में आलपिन...


निखिल आनंद गिरि

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ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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