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शनिवार, 7 नवंबर 2015

पुरानी यादें किसे लौटाएं..

कल एक अजीब बात हुई। एक महिला मित्र से आमने-सामने बैठकर बात कर रहा था और उसके नाम की जगह किसी दूसरे का नाम मुंह से निकल रहा था। ज़िंदगी में ऐसी कई छोटी-छाटी चीज़ें हैं जो बताती हैं कि हमारी ज़िंदगी में कुछ पीछे छूट गए लोग कितने ज़रूरी हैं। कई छोटी आदतें, एकाध बार मिले लोग, बहुत कम पढी गई किताबें या खिड़की से दिख रही कोई चि़ड़िया भी ज़िंदगी भर याद रह जाती है।

कई दिनों से कोई फिल्म नहीं देखी। ऐसा नहीं कि इस बीच अच्छी फिल्में नहीं आई हों या फिर मेरे नहीं देखने की वजह से फिल्म बनाने वालों ने भूख हड़ताल कर दी हो, फिर भी हर हफ्ते एक फिल्म नहीं देखना नई आदत जैसा है। एक तो ज़िंदगी काफी तेज़ी से आगे बढ़ रही है तो कुछ कामों के लिए वक्त निकालना मुश्किल पड़ रहा है। और दूसरा ये कि टीवी आपकी तमाम ज़रूरतें पूरी कर ही देता है। कोई नई फिल्म भी टीवी पर दो-तीन हफ्ते में वर्ल्ड टीवी प्रीमियर कर ही लेती है। और जब आप टीवी पर देखते हैं तो अकसर उसकी कहानी देखकर अफसोस भी नहीं रह जाता।

फिल्मों से ज़्यादा मज़ा अब न्यूज़ चैनल देखने में आता है। यहां ख़बरें पकाने को ही ख़बर लिखना मान लिया गया है। जैसे शाहरुख खान के 50 साल पूरे होने पर कहीं हल्के में देश के 'माहौल' पर कुछ कहा गया और उसे बुरी तरह लपक लिया गया। कौन पाकिस्तान जाएगा, कौन नहीं इस पर डिबेट शुरू हो गई। योगी, कैलाश जैसे सेकेंड क्लास नेताओं के बयान को जानबूझकर इतनी हवा दी जा रही है कि माहौल ज़्यादा ख़राब होने दिया जाए। मसाला बचा रहे बस। सच में कहीं 'असहिष्णुता' (INTOLERANCE) का माहौल है तो वो न्यूज़ चैनल में ही है। इस बात को मज़ाक से ज़्यादा एक आम दर्शक के गुस्से और विरोध के तौर पर लिया जाना चाहिए। 

रेल मंत्रालय में बरसों से कोई काम करने वाला आदमी नहीं दिखता। पुरानी पॉलिसी में ही फेरबदल करते रहने से न तो रेलवे का भला होने वाला है और न ही मुसाफिरों का। छठ के ठीक पहले टिकट कैंसल कराने में ज़्यादा 'सर्विस चार्ज' कटने का ऐलान जनता के साथ धोखे जैसा है। बजाय इसके कि आप दलाली कम करें, कम से कम पूजा के वक्त ट्रेन की संख्या बढ़ाएं, टीटी की गुंडागर्दी कम करें, ट्रेन के बाथरूम की हालत ठीक करें, टिकट घटाने-बढाने में ही सारी काबिलियत दिखाते रहते हैं। 

जिस तरह 'टिकट वापसी' में अब आधा ही पैसा वापस मिलने वाला है, उसी तरह सम्मान वापसी में भी सरकार को ऐसा ही कुछ करना चाहिए। सरकार को कहना चाहिए कि हम आपका आधा सम्मान ही ले सकते हैं। बाक़ी अपने पास रखिए, जिसका अफसोस आपको ज़िंदगी भर होते रहना चाहिए कि किसी न किसी निकम्मी सरकार से सम्मान लेने गए ही क्यों।
निखिल आनंद गिरि

शनिवार, 12 जुलाई 2014

एक टीवी दर्शक का टाइमपास दर्द

टीवी एक धोखेबाज़ माध्यम(मीडियम) है। किसी पैनल डिस्कशन में लांग शॉट (जिसमें स्टूडियो का बड़ा हिस्सा दिखता है) में साफ दिख रहा होता है कि चार-पांच-दस लोग एक ही टेबल के आसपास एक ही स्टूडियो में बैठे हैं मगर क्लोज़ अप (जिसमें एक ही चेहरा दिखे) में हर गेस्ट कैमरे की तरफ देखकर बात करता है। वो आपस में एक-दूसरे से सवाल-जवाब कर रहे होते हैं मगर आंख मिलाकर बात नहीं करते, कैमरे से आंख मिलाते हैं। अजीब लगता है। एक आम दर्शक के लिहाज से बहुत ही बेतुका लगता है। जब दो लोग अगल-बगल बैठकर एक-दूसरे की आंख में आंख डालकर बात नहीं कर सकते तो उन बातों पर किसी और (दर्शकों) को कैसे भरोसा हो सकता है। वो राजेंद्र प्लेस मेट्रो के नीचे सीढ़ियों पर बैठे भिखारियों की तरह लगता है जो अचानक किसी को देखकर अपना मुंह बना लेते हैं और हाथ फैला लेते हैं। टीवी पर आजकल भरोसा नहीं होता। वो आंखों में गड़ता है।
इससे कहीं बेहतर रेडियो है। आपको पता होता है कि सिर्फ एक आवाज़ है जिसे सुनकर आपकी आंखों के आगे तरह-तरह की तस्वीरें उभरती हैं। कोई झूठ नहीं है कि दस लोग बैठे भी हैं और एक-दूसरे को देखकर बात भी नहीं कर सकते। रेडियो पर अगर चार-पांच लोगों का कोई शो है तो ज़रूर वो एक-दूसरे को देखकर रिकॉर्डिंग करते होंगे। कैमरे के नाम पर कोई दिखावा नहीं कि आसपास हैं भी मगर सिर्फ कैमरे के आगे बकबक करने के लिए। रेडियो पर समाचार और बढ़ने चाहिए। उस पर भरोसा अब भी कायम है। वो कानों में चुभता नहीं है।
सिनेमा पर सबसे ज़्यादा भरोसा होता है। बावजूद इसके कि न तो उसमें असल ज़िंदगी होती है, न असल घटनाओं के वीडियो जो न्यूज़ चैनल में होते हैं। मगर सिनेमा ज़िंदगी की बुनियादी शर्त को समझता है। अगर दो लोग दिख रहे हैं और बात कर रहे हैं तो एक-दूसरे की आंखों में आंखे डालकर बात करेंगे।
किसी भी मास मीडियम को ज़िंदगी के बुनियादी नियम तो मानने ही होंगे। आम ज़िंदगी में भी किसी रिश्ते में जब आमने-सामने देखकर बातें करना बंद हो जाए तो रिश्ते के बीच का भरोसा टूटता है। हम दीवारों से बातें करने लगते हैं। फिर दीवारें सुनना बंद कर देती हैं। फिर ख़ुद से बातें करने लगते हैँ। फिर रिश्ता टूटने की वजह से खुद पर भरोसा जाता रहता है। बहुत कमज़ोर महसूस करने लगते हैं। कमज़ोरी में किसी ऐसे मज़बूत सहारे को ढूंढते हैं जो हौसला दे, भीतर से मज़बूत करे। सबसे नज़दीक यही टीवी, अखबार या रेडियो होते हैं। अफसोस, लाख कोशिशों के बावजूद टीवी वो काम नहीं कर पाता। हर महीने तीन सौ रुपये की क़ीमत चुकाने के बावजूद। अंग्रेज़ी दवा की तरह असर कम, साइड इफेक्ट ज़्यादा। लाख चाहकर भी टीवी किसी इंसानी रिश्ते की जगह नहीं ले सकता।

मां दिखने में बहुत कमज़ोर है। बहुत दूर रहती है। उसका वजन 40 किलो के आसपास होगा। मगर उससे चालीस सेकेंड भी मोबाइल पर बात करके वज़न चालीस किलो बढ़ जाता है। भरोसा इसे कहते हैं..
निखिल आनंद गिरि

बुधवार, 14 मार्च 2012

मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं - 2

(इस कहानी का पहला हिस्सा आप पढ़ चुके हैं....बाक़ी हिस्सा यहां है....)
उस रोज़ बारिश हो रही थी। मोहित कैंटीन में अपने अकेलेपन के साथ बैठा था। इब्ने मियां अचानक याद आए थे। दो बार मिला था मोहित उनसे। एक बार तब जब मिश्रा के कहने पर चाय पर स्टोरी करने गया था और मिश्रा ने ही इब्ने भाई का पता बताया था। बड़ी-बड़ी आंखों के नीचे से रोएं गायब हो गए थे और होंठ के एक कोने में लाल पीक टंगी रहती थी। इस उम्र में भी कुछ लोग उन्हें भाई कहते थे। उनके साथ चाय की एक प्याली में पूरे लखनऊ की सैर हो जाती थी । ‘’देखो भाई, ये असल कश्मीरी चाय तो है नहीं कि तुम्हें वो वाली गर्मी दे। देखो जाफरान जो है, जो इस चाय में डाली नही है, वो कश्मीरी पंडित लखनऊ लेकर आए।‘’ वो यही बात तीन बार कहते और चाय खत्म हो जाती। फिर पान पर शुरु होते तो पान की एक-एक पत्ती के बारे में व्याख्यान सुनाते। फिर कहते, ‘’मिश्रा बड़ा आदमी बन गया है। हमारे यहां ही बैठकर रात भर मंगल पर टाइपिंग सीखता था। बाकी सब तो ठीक है, मगर ज़रूरत पड़ने पर पंडिजी और बाभन बनते देर नहीं लगती उसको। बच के रहना उससे। बेटे जैसा है, लेकिन किसी का नहीं है वो।‘’ दूसरी बार तब मिला था, जब उनके गुज़रने की खबर आई थी। मोहित को जाना पड़ा था ऑफिस से झूठ बोलकर। रोएं गायब थे तब भी और होठों की लाल पीक भी। मरते-मरते कहते रहे थे, मोहित मियां, हमने अपनी मां के मुंह से चबाया हुआ पान पूरे बचपन भर खाया है, इतनी आसानी से मरने वाले नहीं हैं।


खैर, जब मोहित लौटा था तो मिश्रा ने खूब झाड़ पिलाई थी, दीपाली के सामने, बेवजह।

‘’ स्साले, इब्ने तुम्हारा बाप लगता था। क्या सोचा था, झूठ बोलकर जाओगे और हमें पता नहीं चलेगा। स्साले, मियां-मौलवी के लिए इतनी मोहब्बत और मिश्रा के चैनल के लिए कोई फिक्र ही नहीं। देखो मोहित, नौकरी तुम्हारी मजबूरी है, तुम हमारी मजबूरी नहीं।

अचानक इब्ने मियां की याद कैंटीन में क्यों आ गई थी। शायद चाय पीने की इच्छा थी और साथ पीने वाला कोई नहीं था। अचानक दीपाली दिखी थी। पीछे से ही पहचान में आ जाती थी। हालांकि, मोहित दीपाली से बात करने में रत्ती भर दिलचस्पी नहीं रखता था, मगर उस दिन इतना अकेला था कि किसी के साथ बैठना चाहता था।

‘हाय दीपाली, चाय पियोगी...’

‘नहीं, मूड नहीं है...’

‘क्यों, मिश्रा के साथ पीकर आई हो, हेहे’

दीपाली ने कुछ कहा नहीं। जबकि उसे बिफर जाना था। मोहित पहली बार उसे सांत्वना भरी नज़रों से देखने लगा। उसकी आंखें लाल थीं, रोई हुई। मोहित ने ज़ोर देकर पूछा तो दीपाली बताने लगी। मोहित को पहली बार पता चला कि उसके पिता बुलंदशहर के किसी गांव में सरकारी नौकरी करते थे। वो दीपाली की नौकरी से कभी खुश नहीं थे। दरअसल, मिश्रा दो साल पहले बुलंदशहर के कॉलेज में मुख्य अतिथि बनकर गया था तो वहीं दीपाली से मुलाकात हुई थी। उसी ने दीपाली को तीन लाख सालाना का पैकेज ऑफर किया था। इतने पैसे दीपाली के गांव में कोई लड़की नहीं कमाती थी। दीपाली हालांकि एक लोकल टीवी चैनल में नौकरी करती थी जहां मेकअप के नाम पर सिर्फ लिपस्टिक मिला करती थी और कैमरे के एंगल इतने नहीं होते थे कि खूबसूरती काबिले-तारीफ हो सके। मगर, तीन लाख रुपये उसे मिलेंगे, इस बारे में उसने कभी सोचा भी नहीं था। दीपाली के पिता भी मामूली नाराज़गी के बाद मान गए थे। मां को पता नहीं था कि टीवी में दिखने वाली लड़कियां बुलंदशहर से भी आती हैं। उनके घर में इन बातों पर कभी चर्चा नहीं होती थी। हां, टीवी देखने का शौक सभी को था, मगर टीवी के पीछे दिखने वाले चेहरे धरती के हैं कि मंगल के, उस घर में कोई नहीं जानता था।

फिर दीपाली ने बताया कि पिछले हफ्ते पिताजी रिटायर हो गए हैं। उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा है और पैसों की ज़रूरत पड़ गई है। दीपाली ने मिश्रा से मदद मांगी तो उसने कहा कि अभी वो दिल्ली में नहीं है। रात को लौटेगा और पैसे चाहिए तो रात में घर आकर ले जाए। मोहित को हालांकि अब भी उससे बहुत ज़्यादा सहानुभूति तो नहीं थी मगर एक पल के लिए उसे अपने पिता याद आ गए थे। उसके पिता कभी दिल्ली नहीं आए थे, मगर दिल्ली के बारे में जानते बहुत थे।

मोहित को मिश्रा पर बहुत गुस्सा आया था। उसे एक पल को दीपाली पर भी गुस्सा आया था, फिर बहुत प्यार भी आया। उसे दीपाली हमेशा से बुरी लगती हो, ऐसा नहीं था। फिर दीपाली ने चाय मंगवाई मगर बीच में ही कॉल आ गई। मिश्रा था। दरअसल, दीपाली मोहित से बातचीत के चक्कर में अपना बुलेटिन मिस कर गई थी और न्यूज़रूम में बवाल मचा हुआ था।

मोहित और दीपाली मिश्रा के केबिन में खड़े थे। हालांकि, मोहित भी दीपाली की बात को लेकर मिश्रा से बहुत गुस्सा था, मगर मिश्रा के आगे उसका गुस्सा कौड़ी भर का नहीं था। ठीक वैसे ही, जैसे मिश्रा कंपनी के चेयरमैन के आगे अक्सर रिरियाता फिरता है। फिर पीठ पीछे सीना तान कर कहता है, अरे भाई, उनके पास पैसा है तो मालिक बन गए, हमारे पास कुछ नहीं तो शिफ्ट वाले नौकर।

खैर, मिश्रा ने दीपाली को कुछ नहीं कहा और मोहित से फिर वही सब दोहराया जो वो रूटीन की तरह दोहराता रहता था। कि वो चैनल को सबोटाज करने की साज़िश में जुटा हुआ है। दीपाली को जानबूझकर उलझाता है ताकि उसका ध्यान बंटे।

‘तुम चाहते क्या हो स्साले....चैनल छोड़ क्यों नहीं देते....रुको, तुम्हारा उपाय करते हैं’

मिश्रा नॉनस्टॉप बोलता गया और मोहित चुपचाप जी बॉस, जी बॉस कहकर सुनता रहा। बॉस के लिए इतना काफी था कि वो बौखला जाए। वो चाहता था कि कोई उसके आगे विरोध करे और वो उसका सिर कुचल कर रख दे। दरअसल, वो भीतर से इतना कमज़ोर था कि हर शांत आदमी उसे ख़तरा नज़र आता था। मोहित ने देखा, दीपाली ने इस दौरान कोई विरोध नहीं किया। अभी थोड़ी देर पहले ही दोनों कैंटीन में वक्त बांट रहे थे और अब वो अकेले डांट खा रहा है। उसे दीपाली से फिर भी नफरत नहीं हुई। दरअसल, उसके होठों पर लिपस्टिक नहीं थी, उसका मेकअप उतरा हुआ था और ऐसे में मोहित को दीपाली अच्छी लगती थी।

मिश्रा ने फरमान जारी कर दिया कि मोहित की नाइट शिफ्ट लगा दी जाए और महीने की सारी छुट्टियां भी कैंसिल कर दी जाएं। इस चैनल में नाइट शिफ्ट अमूमन दो तरह के कर्मचारियों को लगाई जाती थी। एक वो जो छुट्टी के बाद ऑफिस आते हैं और दूसरे वो जिन्हें बॉस पसंद नहीं करता। ऐसा मान लिया जाता है कि रात में दुनिया चुपचचाप सोती है और बची-खुची जागती दुनिया के लिए कोई बेहूदा भी ख़बर तैयार कर सकता है।

मोहित ने केबिन से बाहर जाते हुए दीपाली को आखिरी बार देखा मगर दीपाली की नज़रें अब भी झुकी हुई थीं। रात की शिफ्ट में चार ही लोग थे। सुशांत ऑफिस पहुंचते ही सबसे आखिरी कुर्सी पर टांग पसारकर सो जाता था और फिर सुबह ही उठता था। महतो जी लंबी छुट्टी से लौटे थे तो रात की शिफ्ट उनके लिए लाज़मी थी। सीनियर थे, इसीलिए सज़ा में भी शिफ्ट इंचार्ज थे। मस्तान साहब जानबूझकर रात की ही शिफ्ट लगवाते थे कि उन्हें शाइरी का शौक था और ये गुमान भी कि 21वीं सदी का सबसे चर्चित दीवान उन्हें ही लिखना है। चौथा खुद मोहित था जिसे रात में ऑफिस आने की आदत नहीं थी। लड़कियों की नाइट शिफ्ट लगती नहीं थी क्योंकि बॉस का मानना था कि लड़कियां ऑफिस में रात की शिफ्ट करने के लिए नहीं बनी होती हैं।

यकीन मानिए, इस मुल्क में हिंदी के टीवी चैनलों के न्यूज़ रूम की स्थिति उन पर दिखाए जाने वाले सनसनीख़ेज़ कार्यक्रमों से कहीं ज़्यादा संगीन होती हैं...कुर्सियों पर बैठे मिश्रा जैसे लोग अपने आसपास एक ऐसी दुनिया रच लेते हैं जिसके इर्द-गिर्द उन्हें सब हरा ही हरा दिखता है। वो ख़ुद को अमेरिका समझने लगते हैं। अमेरिका पर जब पर्ल हार्बर का ऐतिहासिक हमला हुआ तो बुरी तरह तिलमिलाए हुए देश ने पूरी दुनिया को ही गाजर-मूली समझ लिया। मंदी की महामारी से जूझ रहे देश में अचानक युद्ध ने हर अमेरिकी को रोज़गार दे दिया। और युद्ध के लिए तैयार हो रहे अमेरिकी फौजियों के पीछे महिलाएं भी बम-बारूद तैयार करती रहीं। जीप से लेकर एटम बम सब अमेरिका की देन है। मगर जब दूसरा विश्व युद्ध खत्म हुआ तो उनके पास गिनने को कामयाबियां कम थीं, लाखों की तादाद में लाशें ज़्यादा थीं। हज़ार लाशें..लाखों लाशें....क्या वो लाशें ज़िंदा होकर तो हमारी मीडिया में तो नहीं आ गईं। पता नहीं क्यों कई बार ऐसा लगता है। और कहीं मेरा डर सही हुआ तो फिर हमारा हश्र क्या होगा। पता नहीं....।

महतो जी ने मोहित को ऐसे देखा जैसे बरसों से देखा ही नहीं हो।

“अरे मोहित बाबू, इस टैम। क्या हुआ, बॉस से कुछ बात हो गई’’

‘’हां, वो, बॉस का फरमान था’’

‘’फरमान तो बॉसे का होता है बॉस, लेकिन आपको फरमान....ये कुछ पचा नहीं....आप तो करीबी हैं उनके, बुरा मत मानिएगा...कोई विशेष बात हो गई क्या’’

‘’जाने दीजिए न महतो जी...काम शुरू करते हैं’’

अपनी कुर्सी संभालते हुए मोहित को बॉस का केबिन दिखा। कोई था नहीं मगर वहां का टीवी अब भी चल रहा था। दीपाली का रिपीट बुलेटिन ही था। वो मेकअप में मुस्कुरा रही थी। मोहित को लगा कि दीपाली की सज़ा उसकी नाइट शिफ्ट से भी ज़्यादा है। उसके पिता बीमार हैं और वो वाहियात ख़बरों पर मुस्कुरा रही है। उसे अपने पिता की याद आ गई। उसे स्टूडियो में मुस्कुराने वाले तमाम एंकर याद आए। कमरुद्दीन, शेखर, हेमलता और राकेश साहू भी। उन्हें इन सब पर थोड़ा तरस आया। उसका मन हुआ अभी स्टूडियो में जाए और वहां की सब कुर्सियां तोड़ दे। उसने मन ही मन बॉस को कोई गंदी गाली दी। उसका मन हुआ कि अंधेरे में उस केबिन के चारों तरफ पेशाब कर दे। या फिर केबिन का शीशा तोड़ कर चकनाचूर कर दे। फिर उसे दीपाली की याद आई। उसने अचानक दीपाली का नंबर डायल कर दिया। किसी ने कॉल नहीं उठाई। उसे लगा दीपाली सो गई होगी। फिर अचानक एक मैसेज आया। मोहित के होश उड़ गए। दीपाली ट्रेन में थी। इसीलिए फोन रिसीव नहीं कर पा रही थी। मैसेज में लिखा था, ‘’पापा इज़ नो मोर, गोइंग बैक इन ट्रेन, मिसिंग यू, हैव नॉट इंफॉर्म्ड बॉस’’

मोहित को कुछ सूझा नहीं वो क्या करे। उसे बॉस के केबिन में बैठी दीपाली का चेहरा याद आया जब उसे आखिरी बार देखा था। उतरे हुए मेकअप में दीपाली पर बहुत प्यार आया था उसे। अभी रात के दो बजे थे। बाहर इतना अंधेरा था कि उसे पूरी दुनिया बॉस का केबिन लग रही थी। उसने तुरंत अपना बैग उठाया और मस्तान साहब को बताया कि किसी ज़रूरी काम से जा रहा है। महतो जी नीचे चाय के लिए गए थे। वो सड़क पर आया और दीपाली का नंबर मिलाया। फोन लगा नहीं। फिर, उसने अनुमान लगाया कि अभी पैदल स्टेशन पहुंचा नहीं जा सकता है। वो ओवरब्रिज की तरफ दौड़ने लगा, वहां से रात भर ऑटो मिलती थी। वो थोड़ी देर रुका, मिश्रा को एसएमस किया, ‘मिश्रा, रिज़ाइनिंग फ्रॉम ऑफिस, एंज्वॉय लाइफ, गुडबाय मीडिया’ और फिर और तेज़ी से दौड़ने लगा। रात बहुत अंधेरी थी मगर सितारे गवाह थे कि मोहित फूट-फूट कर रो रहा था। उसे नहीं पता था कि उसे जो ट्रेन मिलेगी वो दीपाली के घर जाएगी या उसके अपने घर जहां उसके पिता रहते हैं।

निखिल आनंद गिरि
(हिंदी साहित्य की मैगज़ीन 'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित)

सोमवार, 12 मार्च 2012

मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं...

ये उन दिनों की बात नहीं है जब घरों की छत पर एंटीना हिलाकर टीवी ठीक कर देना बुद्धिमान होने का सबूत दिया करता था। लड़कों को ज़्यादा दूध और लड़कियों को होशियार कहकर पुचकार दिया जाता था ताकि वो आगे भी इसी तरह एंटीने के साथ दोस्ती बढ़ाकर स्वेटर बुनती मांओं के लिए टीवी का बेहतरीन इंतज़ाम करते रहें। उसी दौर में कुछ होशियार लड़कियां टीवी देखकर बदमाश ख्वाब भी बुना करती थीं कि एक दिन वो भी टीवी पर दिखेंगी और लोग उन्हें देखने के लिए एंटीने हिलाया करेंगे। शुक्र है कि अब टीवी एंटीने से नहीं चलता और न ही मांएं स्वेटर बुनती हैं मगर उनमें से कुछ लड़कियों ने अपने ख्वाब पूरे कर लिए थे।


वो जब कैमरे के सामने आती तो उसे लगता कि सारी दुनिया उसे ही देखने के लिए टीवी खोलती है। उसकी आंखे बहुत खूबसूरत थी और इतना काफी था कि उससे हर बड़ी खबर पढ़वाई जाए। राघवेंद्र मिश्रा का सख्त आदेश था कि जब भी वो टीवी खोले तो पर्दे पर दीपाली ही दिखनी चाहिए। कभी दीपाली ऑफिस में नहीं होती और मिश्रा के केबिन का टीवी ऑन होता तो आउटपुट हेड श्यामल किशोर जानबूझकर दीपाली का रिकॉर्डेड प्रोग्राम चलवा देता। 21 साल की नौकरी में उसका सीधा उसूल था कि कुर्सी पर कोई भी गधा बैठा हो, हुक्म की तामील हमेशा की जानी चाहिए। यही वजह थी कि पिछले आठ साल में उसने अब तक 12 चैनल देख लिए थे मगर उसकी कुर्सी आउटपुट हेड की ही रही थी। न ऊपर, न नीचे। न्यूज़रूम में सबको लगता कि उसे किसी और योनि में पैदा होना चाहिए था, मगर वो गलती से आउटपुड हेड बन गया था। राघवेंद्र मिश्रा इस चैनल का एडिटर था जिसने अपने करियर में इतना पैसा कमा लिया था कि बिहार से लेकर दिल्ली तक के हर बड़े शहर में उसका एक घर था। दिल्ली में तो उसके तीन-तीन घर थे और किसी की कीमत तीन करोड़ से कम की नहीं थी। उसने रिपोर्टिंग के दम पर इतनी पहचान बना ली थी कि उसके बेटे को नौकरी के लिए सिफारिश या बायोडाटा की ज़रूरत नहीं थी। राघवेंद्र मिश्रा को लड़कियों का शौक था और वो हर तीसरे हफ्ते में एक नई एंकर ज़रूर ले आता था। मगर, फिर भी दीपाली उसकी पहली पसंद थी। दीपाली की उम्र उतनी ही होगी जितना राघवेंद्र मिश्रा के बेटे की। मगर, राघवेंद्र और दीपाली अक्सर साथ-साथ ही कॉफी पीते। कभी-कभी केबिन में भी, एक ही पाइप से।

दफ्तर जिसे न्यूज़रूम भी कहते हैं, वहां कैमरे के सामने जब रिपोर्टर कभी-कभी अंग्रेज़ी में धड़ाधड़ लाइव बोल रही होती तो सबकी नज़रें उसे ही देखतीं। कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों के आसपास खड़े उस(उन) स्टाफ के पास भी तब काफी समय होता कि वो सब कामधाम छोड़कर उसे ही एकटक देख रहे होते। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि उस वक्त उनके दिमाग में क्या चलता होगा। क्या उन्हें डर नहीं लगता कि आज वक्त पर मिश्रा के कमरे में चाय नहीं पहुंची तो उनकी नौकरी जा सकती है। क्या नहीं समझ आने वाली उस बोली को सुनना उनके लिए इतना ज़रूरी है। क्या लड़की कोई चुंबक है जहां उनके भीतर का कोई लोहा चिपक जाता है। क्या ये लोहा हर मर्द के भीतर होता है। अगर हां तो फिर मिश्रा के भीतर भी यही लोहा था, जो उम्र के साथ घिसता नहीं था?

मोहित दीपाली से बहुत चिढ़ता था। उसे लगता कि एक दिन जब दीपाली कैमरे के सामने खड़ी होगी, वो टेलीप्रांप्टर से सारे अक्षर गायब कर देगा। उसे लगता जब कैमरे के आगे कुछ लिखा नहीं होगा, तो दीपाली टीवी पर वही दिखेगी जैसा उसे दिखना चाहिए, एकदम भद्दी और बेवकूफ। फिर देखेगा कि राघवेंद्र मिश्रा दीपाली का मुंह नोंचता है कि चूमता है। वो जब भी दीपाली को मेकअप के साथ न्यूज़रूम में चलते देखता, उसे लगता जैसे जेमिनी सर्कस की कोई लड़की दर्शक दीर्घा में फ्लाइंग किस लिए मुस्कुराते घूम रही है और लोग उसे स्माइल पास कर रहे हैं। उसे लगता कि लिपस्टिक लगाने वाली लड़कियां सिर्फ नफरत के काबिल होती हैं। उसका मन होता कि राघवेंद्र मिश्रा के सारे बाल झड़ जाएं और उसके गंजे सिर को देखकर दीपाली पागलों की तरह हंसे। फिर पूरा न्यूज़रूम हंसे और मिश्रा झुंझलाहट में पागल हो जाए। दीपाली मोहित से कम ही बोलती थी मगर जब भी बोलती, मोहित की बोर्ड पर ज़ोर-ज़ोर से उंगलियां फिराने लगता।

मोहित पिछले दो साल से एक ही शिफ्ट में ऑफिस पहुंचता था। उसने दो सालों में दिल्ली की कोई शाम नहीं देखी थी। हफ्ते में जिस दिन छुट्टी होती, वो शाम को सोना पसंद करता। उसे लगता दुनिया का हर आदमी नौकरी करने के बाद अपनी सुबह या शाम खो देता है। शाम का रंग कैसा होता है, शाम को लोग क्या पहनते हैं, खाते क्या हैं, वो जानना चाहता था। उसके कंप्यूटर पर गूगल खुलता था मगर शाम की कोई तस्वीर वहां उपलब्ध नहीं थी। उसे ऐसी शामों को और गुस्सा आता जब वो भाग-भागकर सात बजे का बुलेटिन तैयार करता और अचानक उसे मालूम पड़ता कि दीपाली इसे पढ़ेगी। वो जानबूझकर एकाध गलतियां छोड़ देता था ताकि दीपाली अटके, झुंझलाए और बुलेटिन के बाद मिश्रा के केबिन में मुस्कुराती हुई न घुसे। उसे शायद जेमिनी सर्कस से चिढ रही होगी। दीपाली पढ़ती –

‘’इससे पहले कि पुलिस वहां आ पाती, लुटेरे फरा...री हो चुके थे। माफ कीजिएगा, फरार हो चुके थे। ‘’

बढ़ते हैं अगली ख़बर की ओर...

‘’गोरखपुर में इं..से..फ्लाटी....माफ कीजिएगी....इफ्लेसाइटिस...सॉरी....इंसेफटाइसिस...फिर दीपाली संभलती और जैसे तैसे कहती कि गोरखपुर में एक बीमारी ने कहर बरपा रखा है....फिर वो हड़बड़ी में मुस्कुराकर ब्रेक लेती।‘’

अभी एक छोटा-सा ब्रेक लेते हैं, कहीं मत जाइएगा...

दीपाली चिल्लाती – मोहित, व्हाट रब्बिश....कांट यू राइट ए सिंपल वन....दिस इज़ कंपलीट शिट...

मोहित कहता, मुझे क्या पता तुम्हारी अंग्रेज़ी इतनी बुरी है। चलो, दिमागी बुखार कह लो।

दीपाली और झुंझलाई कि मेरी अंग्रेज़ी ख़राब नहीं, तुम्हारा दिमाग खराब है। फिर, तकरार और बढ़ती ब्रेक खत्म हो गया और दीपाली पर्दे पर मुस्कुराने लगती। फिर, मोहित भी मुस्कुराता। हालांकि, उसे पता था कि मिश्रा दीपाली की खुन्नस में उसकी जमकर क्लास लेने वाला है कि वो जानबूझकर चैनल को सबोटाज कर रहा है। फिर मोहित चुपचाप केबिन में खड़ा होगा और मिश्रा आंयबांय बकता रहेगा।

‘तुम हमको नहीं जानते कि हम कौन हैं....अभी सैक करा देंगे स्साले...जानबूझकर टफ बुलेटिन बनाते हो कि दीपाली को प्रॉब्लम हो...’

‘नहीं सर, हमको तो पता ही नहीं था कि दीपाली पढ़ने वाली है, नहीं तो हम दिमागी बुखार ही लिखते सर..’

‘देखो, जादा राजनीति मत पादो....हम सब जानते हैं स्साले.....जादा ही गरम खून है तुम्हारा, कंट्रोल में रहा करो, समझा..’

‘जी सर...’

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कभी-कभी टीवी के बारे में सोचता हूं तो बहुत कुछ सोचने का मन करता है। ज़रा सोचिए, टीवी पर दिखने वाले चेहरे कहां-कहां किस-किस मूड में देखे जाते होंगे। कहीं पान की दुकान में 14 इंच के छोटे ब्लैक एंड व्हाइट पोर्टेबल टीवी और उसमें दिखने वाले ख़ूबसूरत चेहरों से न जाने कितनों के दिन और दिल बहलाते होंगे। हां, ब्लैक एंड व्हाइट को किसी कलर टीवी के आगे शर्म ज़रूर आती होगी कि वो लाख चाहकर भी ख़बर की ख़ूबसूरती नहीं बढ़ा सकता। फिर कहीं टीवी पर गलत-सलत पढ़ रही एंकर को सही-सही समझकर सामान्य ज्ञान बढ़ा रही एक आबादी भी होगी जो एक बार, बस एक बार इस चेहरे से मिलना चाहती होगी। वो इसी भरम में जीते रहना चाहते होंगे कि उनके इस 14 या 16 या 21 इंच के टीवी के भीतर के चेहरे किसी देवलोक का हिस्सा हैं जहां सिर्फ दूध-घी की नदियां बहती होंगी और इन चेहरों की तनख़्वाह और रसूख इतना ज़्यादा होगा कि अंदाज़ा लगा पाना भी मुश्किल है। जबकि, असलियत ये थी कि इन टीवी के भीतर दिखने वाले चेहरों से मेकअप उतरता तो जो असली दुनिया इनके सामने होती वहां लार टपकाते कुछ लोग होते, सौ-दो सौ की इन्क्रीमेंट के लिए साथी को वेश्या घोषित करने वाली ज़ुबानें होतीं और चकाचौंध के भ्रमजाल के बीच चारों तरफ मौत जितना अंधेरा और अकेलापन।

(साहित्य की मैगज़ीन 'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित)
(कहानी का बाक़ी हिस्सा  यहां पढें  मुस्कुराइए कि आप स्टूडियो में हैं-2)

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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