जब हम साल 2018 को याद करेंगे तो बेशक पद्मावत,
संजू, राज़ी, अंधाधुन, स्त्री और केदारनाथ का नाम सबसे अच्छी फिल्मों के तौर पर
याद आएगा, मगर मेरे लिए इस साल की सबसे अच्छी और दिल के क़रीब फिल्म है ‘बागली
टॉकीज़’।
ये फिल्म मध्यप्रदेश के ही बागली क़स्बे
में रहने वाले अनिरुद्ध शर्मा ने बनाई है। ये फिल्म महज़ 15 मिनट की है, मगर अच्छी
फिल्मों का लंबा होना ज़रूरी है, ये कहां लिखा है। फिल्म लंबी भी हो सकती थी, मगर
अनिरुद्ध ने कम बजट में बागली के सिंगल स्क्रीन थियेटर के ज़रिए पूरे देश के सिंगल
स्क्रीन सिनेमाघरों का जो दुख सामने रखा है, वो लाजवाब है। अनिरुद्ध की फिल्म इस
मायने में बहुत ख़ास है कि वो इस फिल्म के लिए न मुंबई-दिल्ली गए, न ही कोई बड़ा
स्टारकास्ट किया। फिल्म के लिए जितने पैसे जुटे, उसके हिसाब से बागली में रहते हुए
ही पूरी फिल्म बनाई। इंदौर में मशहूर फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे को बुलाकर पहली
स्क्रीनिंग रखी और अब कई फिल्म फेस्टिवल में फिल्म पहुंच ही रही है।
अनिरुद्ध ने एक साथ दो शॉर्ट फिल्में रिलीज़
की हैं। दूसरी फिल्म का नाम है ‘इबादत’। ये फिल्म भी
अपने कंटेंट के लिहाज़ से कई बड़ी फिल्मों पर भारी पड़ती है। देश में धर्म किस तरह
सियासी धंधा बन चुका है और उसका हर आम नागरिक पर किस तरह असर पड़ने वाला है, उसे
पर्दे पर उतारने की अनिरुद्ध की कोशिश कमाल की है।
फिल्म समीक्षाओं में फिल्म की कहानियां
बताना ठीक नहीं। उम्मीद है कि अनिरुद्ध का सिनेमा देश-दुनिया में पहुंचे और आप भी
सिर्फ अनिरुद्ध को बधाई देने के अलावा अपने आसपास के सिंगल स्क्रीन थियेटर को बचाए
रखने के लिए वहां फिल्में ज़रूर देखें। अनिरुद्ध जैसे नए फिल्मकारों को इससे बहुत हौसला
मिलेगा, जो बड़ी फिल्में बनाने का हौसला रखते हैं, मगर ऐंठ बिल्कुल नहीं। ठीक किसी
सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर की तरह।
इसी बहाने मैंने अपने सिंगल स्क्रीन
सिनेमा के कुछ अनुभव भी लिखे हैं। इसे भी पढ़िए और आप भी लिखिए ।
सिनेमा को लेकर मेरी जो भी समझ बनी है, उसमें सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का बहुत
बड़ा योगदान है। पापा बिहार-झारखंड के जिन-जिन कस्बों में रहे, वहां के सिनेमाघरों
में नागिन से लेकर सूरज से लेकर मोहरा तक की
फिल्में देखने का जो अनुभव है, वो शब्दों में बयान नहीं कर
सकता। लखीसराय में एक बार पिक्चर देखने गया तो सीट फुल हो गई थी। सिनेमा हॉल का
सुपरवाइज़र एक लकड़ी की बेंच उठाकर ले आया और हमने पिक्चर देखी। अगल-बगल बैठे लोग
जब पान मसाला थूकते तो पहले ही बता देते, फिर हमें पैर ऊपर करके बैठना पड़ता। रांची
में उपहार सिनेमा में कंधे पर चढ़कर कई बार टिकट लेकर फिल्म देखी।
जमशेदपुर के बसंत टॉकीज़ का अनुभव बड़ा
यादगार है। हॉल के ठीक सामने एक ‘आदर्श हिंदू भोजनालय’
हुआ करता था। वहां सात रुपये में भात-सब्ज़ी मिल जाती थी (साल 2003-2005)। हमारे
एक मित्र रोज़ वहीं खाना खिलाने ले जाते थे। हमारे खाने की टाइमिंग कुछ ऐसी थी कि
जैसे ही खाना ख़त्म होता, बसंत टॉकीज़ में दोपहर के शो का इंटरवल होता। हॉल का
दरवाज़ा थोड़ी देर के लिए खुलता। हम खाना ख़त्म करके दौड़ते हुए इंटरवल के बाद
वापस फिल्म देखने के लिए लौट रही भीड़ के साथ चिपक लेते। जैसे-तैसे हॉल के भीतर
घुस जाते और जो भी फिल्म लगी होती, उसे इंटरवल के बाद देख लेते। अक्षय कुमार की ‘अंदाज़’ ऐसे में कम से कम चार-पांच बार देखी थी। जमशेदपुर
के ‘स्टार टॉकीज़’ में ‘बाग़बान’ लगी थी तो अमिताभ भक्त हॉल मालिक ने सभी
दर्शकों को लड्डू भी बांटे थे।
समस्तीपुर के भोला टॉकीज़ में एक बार ‘लुटेरा’
देखने गया तो लोग बहुत कम थे। बातों-बातों में प्रोजेक्टर चलाने
वाले को बताया कि इस फिल्म के डायरेक्शन में मेरा एक दोस्त भी है तो उसने
खुशी-खुशी पूरी फिल्म अपने साथ ही बिठाकर दिखाई।
फिर जब दिल्ली आए तो देखा हमारे महीने भर
की फिल्म का ख़र्च पॉपकॉर्न पर लोग ख़र्च कर देते हैं। बड़ी मुश्किल से दिल्ली के
सिंगल स्क्रीन हॉल ढूंढे और आज भी कई फिल्में वहीं देखता हूं। जामिया से पैदल चलकर
नेहरू प्लेस के पारस में दिल्ली की पहली फिल्म ‘ओंकारा’ देखी। हाल के कुछ दिनों में नॉर्थ दिल्ली के ‘अंबा
टॉकीज़’ की आदत लगी। फिर एक दिन देखा कि अंबा पर कोई फिल्म
नहीं लगी है। उनके ऑफिस में लगातार कॉल किया लेकिन कोई जवाब नहीं। फिर देखा कि ‘अंबा’ का फेसबुक पेज भी है। उन्हें फेसबुक पर
इनबॉक्स मैसेज भेजा तो तुरंत जवाब आ गया कि जल्दी ही वापस अंबा में फिल्में
लगेंगी, कुछ दिनों से मरम्मत का काम चल रहा है। बड़ी खुशी हुई कि सिंगल स्क्रीन
थियेटर भी ख़ुद को अपडेट किए हुए हैं।
हम सब जिन्होंने सिंगल स्क्रीन में
फिल्में देखी हैं, उन्हें आज सिंगल स्क्रीन के ख़त्म होने का अफसोस ज़रूर होता
होगा। मल्टीप्लेक्स बढ़िया है, मगर सिंगल स्क्रीन की क़ीमत पर बने, ये ठीक
नहीं।
निखिल आनंद गिरि