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बुधवार, 24 अप्रैल 2024

जाना

तुम गईं..

जैसे रेलवे के सफर में

बिछड़ जाते हैं कुछ लोग

कभी न मिलने के लिए

 

जैसे सबसे ज़रूरी किसी दिन आखिरी मेट्रो

जैसे नए परिंदों से घोंसले

जैसे लोग जाते रहे

अपने-अपने समय में

अपनी-अपनी माटी से

और कहलाते रहे रिफ्यूजी

 

जैसे चला जाता है समय

दीवार पर अटकी घड़ी से

जैसे चली जाती है हंसी

बेटियों की विदाई के बाद 

पिता के चेहरे से


तुम गईं

जैसे होली के रोज़ दादी

नए साल के रोज़ बाबा

जैसे कोई अपना छोड़ जाता है

अपनी जगह 

आंखों में आंसू


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

चालीस की ओर

मैंने एक डायरी खरीदी
कविताएं लिखने के लिए
फिर उसमें रोज़ का खर्चा लिखने लगा
मोटी डायरी थी
और खर्च करने को पैसे नहीं थे
प्रेम था थोड़ा बहुत
कविताएं उससे भी कम।

समय हमारी इच्छाओं से चलता हुआ घोड़ा नहीं
समय केले का छिलका है
फिसल रहे हैं हम सब
दुनिया प्रेमिका की तरह है
एक दिन भुला देगी।

पहले पिता फिसलेंगे या मां
यह डर इतना बड़ा है कि
सोचते सोचते मेरे पांव भी अब छिलके पर हैं
बच्चे सुरक्षित हैं फिलहाल
लेकिन बस मेरे खयालों में ही।

बच्चों के लिए क्या है दुनिया
सिवाय प्लेस्कूल के
शोर बहुत है और उसी से सीखना है।

चालीस की तरफ़ आते आते लगता है
जीवन में कोई ईशान कोण नहीं
सब दिशाओं में वास्तु का दोष है

जब दाढ़ी नहीं उगती थी
तो दाढ़ी उगना आख़िरी इच्छा की तरह थी 
अब दाढ़ी बनाने में 
सुबह का सबसे कीमती समय ज़ाया होता है।

तानाशाह की दाढ़ी सिर्फ बच्चा खींच सकता है
चालीस की ओर का कोई आदमी 
सिर्फ गोली खा सकता है
गोली या तो डॉक्टर लिखेगा
या विद्रोह में शामिल होने पर
कोई हमउम्र पुलिस अफ़सर

इस उम्र पर बहुत कुछ लिखा गया
मगर लिख देने से क्या होता है
मेरी प्रेमिका ये उम्र नहीं देख सकी

जब लगा मर जायेगी
बच गई
जब लगा बच जाएगी 
मर गई


निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 9 जून 2022

सीमित संभावनाओं वाले कवि की असीमित इच्छाओं का कोलाज



अपना नंबर मिलाने पर सभी लाइनें व्यस्त आती है। अचानक ध्यानाकर्षित करता कोई गीत व्यस्तम दिनचर्या के बावजूद खुद से मिलने का बहाना बन जाता है। थोड़ी देर के लिए सब pause हो
नाज़िश ने जो लिखा, उसे 'जनसंंदेश टाइम्स' अख़बार
ने ख़ूबसूरती से छापा भी है

जाता है।
निखिल की इस किताब में आने वाली प्रेमिका को ऐसे ही किसी pause की तरह देखा जाना चाहिए। ऐसे किसी गीत की तरह लिया जाना चाहिए जो उदासी में पीठ पर थपथपाहट की तरह रहे। कहे, तुम अकेले नहीं हो दोस्त! हमारा दुख साझा है।
इन कविताओं में विद्वता का वो भाव नहीं है जो आपकी भावनाओं को बौना घोषित कर दे। एक से दूसरी कविता तक पहुँचते हुए बहुत से अदृश्य डेशेज़ के बीच भी अनकही कविताओं की भरमार है। शर्त है आप के दिल की बीनाई बाक़ी हो। और तब कवि की इच्छाओं का कोरस सार्वजनिक दुखों का कोरस बन जाता है।
मुझे नहीं पता निखिल आनंद गिरी की "प्रेमिका" हिंदी कविताओं की दुनिया में अपने लिए कितनी जगह घेरेगी। हाँ मगर, लंबे सफ़र पर बजती फेवरेट प्लेलिस्ट जो सुकून देती है बस वही काम रोज़ रात कम से कम एकबार पढ़ ली जाने वाली इन कविताओं से भी लिया जा सकता है। जिसे पढ़कर वाह से ज़्यादा आह निकलती है।
इसके अलावा दिल्ली में विस्थापित शहरी का बारहा गाँव याद करना, प्रेमिका को चूमते हुए समाज शास्त्र का याद आना, पिता को शक्ति पुंज की तरह देखना, माँ को बिना शर्त मुहब्बत से सोचना, लिपटकर रोने की सख्त मनाही होना, कुतुबमीनार से कूदकर सच का ख़ुदकुशी करना, हंसना, रोना, लौटना, लड़कियों का बारिश और लड़कों का सिर्फ जंगली होना•• इस तरह अंत हीन लिस्ट का होना। एक सीमित संभावनाओं वाले कवि की असीमित इच्छाओं का कोलाज देखिये-
मेरे हाथ इतने लंबे हों कि
बुझा सकूँ सूरज पल भर के लिए
और मां जिस कोने में रखती थी अचार
वहां पहुंचे, स्वाद हो जाए
गर्म तवे पर रोटियों की जगह पके
महान होते बुद्धिजीवियों से सामना होने का डर
जलता रहे, जल जाए समय
हम बेवकूफ घोषित हो जाएं
एक मौसम खुले बाहों में
और छोड़ जाएं इंद्रधनुष
दर्द के सात रंग
नज़्म हो जाएं
लड़कियां बारिश हो जाएं
चांद गुलकंद हो जाएं
नर्म अल्फ़ाज़ हो जाएं
और मीठे सपने
लड़के सिर्फ जंगली
निखिल की कविताओं में जितना मर्म है उतना ही व्यवस्था में फंसे होने की मध्यवर्गीय छटपटाहट के बावजूद तटस्थता, जिजीविषा, जीवटता और अंततः प्रेम की विजयी देखने की चाह। कवि मूल रूप से यही है और हर बार बड़ी मासूमियत से यह अपनी नैसर्गिकता बचा ले जाते हैं।
पहली किताब के लिए
बधाई
। दूसरी जल्द आए। शुभकामनाएं।
इस शहर में छपने वाले अमीर अखबारों के मुताबिक़
निहायती ग़रीब, गंदे और बेरोजगार गाँवों से
वेटिंग की टिकट खरीदने से पहले मुसाफिरों को
खरीदने होते हैं शहर के सम्मान में
अंग्रेज़ी के उपन्यास
गोरा होने की क्रीम
सूटकेस में तह लगे कपड़े
और मीडियम साइज के जॉकी
हालांकि लंगोट के खिलाफ़ नहीं है यह शहर
और सभ्य साबित करने के लिए अभी शुरू नहीं हुआ भीतर तक झांकने का चलन
यहाँ हर दुकान में सौ रुपये की किताब मिलती है
जिसमें लिखे हैं सभ्य दिखने के सौ तरीक़े
जैसे सभ्य लोग सीटियां नहीं बजाते
या फिर उनके घरों में बुझ जाती है लाइट
दस बजते बजते
बात बात आंदोलन के मूड में आ जाता है जो शहर
हमारे उसी शहर में थूकने की आज़ादी है कहीं भी
गालियाँ बकना नाशते से भी ज़्यादा ज़रूरी है हर रोज़
और लड़कियों के लिए यहाँ भी दुपट्टा डालना ज़रूरी है
जहाँ न बिजली जाती है कभी और न डर
जिनकी राजधानी होगी वो जाने
किसी दिन तुम इस शहर आओ
और कह दो मुझे सफ़ाई पसंद है
तो पूरे होशोहवास में सच कहता हूँ
डाल आऊँगा, कूड़ेदान में सारा शहर।

नाज़िश अंसारी की फेसबुक पोस्ट से साभार 
May be an image of book and text that says "प्रेमिका इस कवितामें भी आनी थी निखिल आनंद गिरि Infinix HOT 11S"

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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