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रविवार, 26 दिसंबर 2010

बनमानुस...

एक दुनिया है समझदार लोगों की,

होशियार लोगों की,

खूब होशियार.....

वो एक दिन शिकार पर आए

और हमें जानवर समझ लिया...

पहले उन्होंने हमें मारा,

खूब मारा,

फिर ज़बान पर कोयला रख दिया,

खूब गरम...

एक बीवी थी जिसके पास शरीर था,

उन्होंने शरीर को नोंचा,

खूब नोचा...

जब तक हांफकर ढेर नहीं हो गए,

हमारे घर के दालानों में....


हमारी बीवियों ने मारे शरम के,

नज़र तक नहीं मिलाई हमसे

उल्टा उन्हीं के मुंह पर छींटे दिए,

कि वो होश में आएं

और अपने-अपने घर जाएं...

ताकि पक सके रोटियां

खूब रोटियां...


वो होश में आए तो,

जो जी चाहा किया...

हमे फिर मारा,

उन्हें फिर नोंचा...

हमारी रोटियां उछाल दी ऊंचे आकाश में....

खूब ऊंचा....

वो हंसते रहे हमारी मजबूरी पर,

खूब हंसे...


भूख से बिलबिला उठे हम....

जलता कोयला निकल गया मुंह से...

जंगल चीख उठा हमारी हूक से....

पहाड़ कांप उठे हमारी सिहरन से....

नदियों में आ गया उफान,

खूब उफान....


उनके हाथ में हमारी रोटियां थीं,

उनकी गोद में हमारी मजबूर बीवियां थीं...

उनकी हंसी में हमारी चीख थी, भूख थी....

हमने पास में पड़ा डंडा उठाया

और उन्हें हकार दिया,

अपने दालानों से....

वो नहीं माने,

तो मार दिया.....


जंगल से बाहर की दुनिया

यही समझती रही,

हम आदमखोर हैं, बनमानुस...

जंगली कहीं के....

वाह रे समझदार...

वाह री सरकार.....


निखिल आनंद गिरि

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