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गुरुवार, 15 नवंबर 2018

तुम्हारे पास पटाखे हैं, धुंआ है। हमारे पास छठ है, ठेकुआ है

छठ में बिहार आकर लगता है कि समय आज भी 20 साल पीछे ही रुका हुआ है। छठ के तीन दिनों में बिहार अपने मूल रूप में लौटता है। पढ़ने-लिखने, कमाने बिहार से बाहर गए बेटे-बेटियां लौटते हैं और दौरा-सूप उठाने लगते हैं। थोड़ा बदलाव ये हुआ है कि नदियों, तालाबों के घाटों के बराबर ही मकान की छतों पर 'घाट' सजने लगे हैं। (अमित शाह या आदित्यनाथ बिहारी होता तो इस पर्व का नाम बदलकर 'छत पर्व' रख चुका होता।) । अर्घ्य से पहले सेल्फी के लिए समय बचाया जाने लगा है। ठीक है।

ख़ैर, अभी तक सूप या दौरे की जगह 'बास्केट' ने नहीं ली है। केले का 'घौद' ही होता है, ठेकुआ भी 'स्वीट बिस्किट' जैसा कुछ नहीं बन पाया आज तक। अग्रेज़ी छोड़िए, मैंने शायद ही छठ पर कोई हिंदी गीत आज तक सुना हो। अपनी जड़ों, लोकभाषाओं से जुड़े रहने का संदेश और किस पर्व में इस गहराई से देखने को मिलता है। मौसम के हिसाब से उपलब्ध कौन-सा फल नहीं जो इस पर्व का हिस्सा नहीं। क्या इस पर्व से प्यार करने को इतनी वजह काफ़ी नहीं।

कुछ बुद्धिजीवी लोग इस छठ का पूरी तरह विरोध करते हैं।  हमें डर उनसे नहीं है। हमें डर लाउडस्पीकर पर बजने वाले नए छठ गीतों से है। प्रकृति पूजा के पर्व छठ में खेसारी लाल यादव, मनोज तिवारी के गीत ध्वनि प्रदूषण की तरह हैं। एक दिन ये हमारी जड़ों को खा जाएंगे। विरोध कीजिये इन फूहड़ संगीत प्रेमियों का। विरोध कीजिये इस 36 घन्टे लंबे निर्जला व्रत का, इसे छोटा करने का प्रयास होना चाहिए। हठ या डर के नाम पर बीमार या बूढ़ी होती औरतें इस व्रत को नहीं छोड़ पाती, इसके लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाना चाहिए मगर छठ के मूल स्वभाव में कोई गड़बड़ी नहीं है। बिहार में इतनी व्यवस्था, साफ-सफाई और किसी सरकार के बस की बात नहीं है।

इस तीन दिन के पर्व के बाद वापस अपनी ट्रेन पकड़कर, बहुत सारा ठेकुआ लेकर बिहारी फिर से न्यू इंडिया का हिस्सा हो जाता है। ठेकुआ इस सनातन बिहार र न्यू इंडिया के बीच का पुल है। 

आप बिहार के सबसे 'पॉश' शहर से ही क्यूँ न लौटें, दिल्ली वाला कहेगा कि 'गांव' से लौटा है। कोई बात नहीं दिल्ली शहर, तुम्हारे पास मॉल है, मेट्रो है, फ्लाईओवर है, बुद्धिजीवी हैं, हमारे पास छठ है, ठेकुआ है। 
निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 21 मई 2015

रेखाचित्र

कोई कहीं दौड़ता नहीं
फिर भी हारता कई बार।
कई बार दौड़ते कुछ लोग
पहुंच जाते किसी और रेस में
मैदान हरे-भरे, कंक्रीट के।

आसमान से कोई दागता गोली,
दौड़ पड़ते सब
जो लाशें बचतीं
जीत जातीं।
जीत ख़बर बनती
पदक बंटते लाशों को।

खोते जाते मैदानों में कुछ लोग
मिलते आपस में,
नई दौड़ के लिए।
हारे हुए लोगों की रेस चलती अनवरत
अंतरिक्ष के मैदानों तक
हार जाने के लिए।
विलुप्त होते रहे
थक कर बैठे
सुस्ताते लोग
ख़बर नहीं बन सके
थके-हारे लोगों को
प्याऊ का पानी पिलाते लोग।

पहले पानी लुप्त हुआ समुद्रों से
फिर गहराई का नाता टूटा पृथ्वी से
जैसे छत्तीसवीं मंजिल का रिश्ता
अपार्टमेंट के ग्राउंड फ्लोर से।

निखिल आनंद गिरि
(पाखी के 'मई 2015' अंक में प्रकाशित)

रविवार, 4 नवंबर 2012

एक डरे हुए आदमी का शब्दकोष

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है,
जिसकी प्रेमिका मेज़ पर पड़ा ग्लोब घुमाती है
तो वो भूकंप के डर से
भागता है बाहर की ओर
पसीने से तरबतर,

बाहर खुले मैदान नहीं है...
बाहर लालची जेबें हैं लोगों की
जेब में ज़बान है और मुंह में पिस्तौलें...
बाहर कहीं आग नहीं है
मगर बहुत सारा धुंआ है..
गाड़ियों का बहुत सारा शोर है
जैसे पूरा शहर कोई मौत का कुंआ है...

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है
जो शहर में अपनी पहचान बताने से डरता है
और गांव में अब कोई पहचानता नहीं है....
सिर्फ इसीलिए बचा हुआ है वह आदमी
कि नहीं हुए धमाके समय पर इस साल...
कि कुछ दिन और मिले प्यार करने को...
कुछ दिन और भूख सताएगी अभी...

उसने हाथ से ही उखाड़ लिया है
दाईं ओर का आखिरी दुखता दांत
सही समय पर दफ्तर पहुंचना मजबूरी है
और दानव डाक्टर की फीस से बचना भी ज़रूरी है....
दुखे तो दुखे थोड़ी देर आत्मा...
बहे तो बहे थोड़ी देर खून....
अपरिचित नहीं है ख़ून का रंग

अभी कल ही तो कूदा था एक स्टंटमैन
पंद्रह हज़ार करोड़ में बने एक मॉल से...
और उसकी लाश ही वापस आई थी ज़मीन पर...
पंद्रह हज़ार के गद्दे बिछे होते ज़मीन पर
तो एक स्टंटमैन बचाया जा सकता था...
मगर छोड़िए, इस बेतुकी बहस को
कविता में जगह देने से
शिल्प बिगड़ने का ख़तरा है...

तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
जिसका अर्थ किसी हिंदू हिटलर की मूंछ है....
और उसके दांतों से वही महफूज़ है...
जिसके शरीर पर जनेऊ है
और पीछे एक वफादार पूंछ है...

डरा हुआ आदमी सड़क पर देखता सब है
कह पाता कुछ भी नहीं शोर में
सड़क पर जल उठी लाल बत्ती
एक भूखा, मासूम हाथ
काले शीशे के भीतर घुसा
भीतर बैठे कुत्ते ने काट खाया हाथ
कब कैसे पेश आना है
ख़ूब समझते हैं एलिट कुत्ते

एक डरे हुए आदमी के शब्दकोश में
गांव सिर्फ इसीलिए सुरक्षित है
कि वहां अब भी लाल बत्ती नहीं है
दरअसल उस डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
भिखारी की फटी हुई जेब है
ख़ाली हो रहे हैं दिन-हफ्ते
और भरे जाने का फरेब है...

एक डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
उस आदिवासी औरत के पेट में
पल रहे बच्चे का पहला रुदन है...
जो गांव की सब ज़मीन बेचकर
पालकी में लादकर
उबड़-खाबड़ रास्तों से लाया गया
शहर के इमरजेंसी वार्ड में
जिसने एक बोझिल जन्म लेकर आंखे खोलीं
ख़ूब रोया और मर गया....
उस डरे हुए आदमी के दरवाज़े पर
हर घड़ी दस्तक देता बुरा समय है
जो दरवाज़ा खुलते ही पूछेगा
उसी भाषा, गांव और जाति का नाम
फिर छीन लेगा पोटली में बंधा चूरा-सत्तू
और गोलियों से छलनी कर देगा...

इस बुरे समय की सबसे अच्छी बात ये है कि
एक डरा हुआ आदमी अब भी
सुंदर कविता लिखना चाहता है...

निखिल आनंद गिरि
(यह कविता पाखी के अक्टूबर-नवंबर अंक में छपी है। इसके साथ ही एक और कविता  ''लिपटकर रोने की सख्त मनाही है'' को भी पत्रिका में जगह मिली है।)

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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