दर-ओ-दीवार हैं, पर छत नहीं है।
हमें सूरज की भी आदत नहीं है।।
हमें सूरज की भी आदत नहीं है।।
यहां सब सर झुकाए चल रहे हैं।
यहां हंसने की भी मोहलत नहीं है।।
तुम्हें इक झूठ कह देना था मुझसे।
मुझे सच सुनने की हिम्मत नहीं है।।
फ़क़त लाखो की ही अंधेरगर्दी !
'ये क्या खुर्शीद पर तोहमत नहीं है'!!
मैं पत्थर पर पटकता ही रहा सर।
मगर मरने की भी फुर्सत नहीं है।।
सभी को बेज़ुबां अच्छा लगा था।
मैं चुप रह लूं, मेरी फितरत नहीं है।।
(खुर्शीद = सूरज)
निखिल आनंद गिरि