बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....


कौड़ियों के भाव बिका, जब से अंतःकरण,
अनगिन मुखौटे हैं, सैकड़ों हैं आवरण...
मदमस्त होकर जो झूमती हैं पीढियां,
लड़खड़ा न जाएँ कहीं सभ्यताओं के चरण...
ठिठका-सा चाँद है, गुम भी, खामोश भी,
जुगनुओं को रात ने दी है जब से शरण...
गुमशुदा-सा फिरता हूँ, अपनों के शहर में,
आइनों ने कर लिया, मेरा ही अपहरण....
मौन की देहरी जब तुमने भी लाँघ दी,
टूट गए रिश्तों के सारे समीकरण...
पीड़ा के शब्द-शब्द मीत को समर्पित हों,
आंसुओं की लय में हो, गुंजित जीवन-मरण...
माँ ने तो सिखलाया जीने का ककहरा,
दुनिया से सीखे हैं, नित नए व्याकरण...

- निखिल आनंद गिरि 


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3 टिप्‍पणियां:

  1. ठिठका-सा चाँद है, गुम भी, खामोश भी,
    जुगनुओं को रात ने दी है जब से शरण...

    -बहुत उम्दा भाव!

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत खूब निखिल भाई..

    हिन्दी के शब्दों के साथ ग़ज़ल-ग़ज़ल खेलना बड़ा मुश्किल होता है... जब "आवरण" और "व्याकरण" को काफ़िया बनाना हो तो शब्द-सामर्थ्य की सही परीक्षा हो जाती है। मुझे खुशी है कि आप इस प्रयोग में सफल हुए हैं।

    बधाई हो!
    -विश्व दीपक

    जवाब देंहटाएं

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