‘रंगून’ मैंने गुजरात के वापी शहर में देखी। मुंबई
यहां से बहुत नज़दीक है, मगर सिनेमा हॉल अब भी दो-चार ही। विशाल भारद्वाज का
सिनेमा देखने वाले उससे भी कम। देश की इंडस्ट्रीज़ से फैलने वाले केमिकल प्रदूषण
में वापी का बहुत बड़ा योगदान है। यहां जितने गुजराती हैं, उससे ज़्यादा
बिहार-यूपी के मजदूर लोग। लिहाज़ा शाहरूख-सलमान की नाच-गाने वाली फिल्मों के
कद्रदान यहां ज़्यादा हैं, ‘रंगून’ के बिल्कुल नहीं। रिलीज़ के दूसरे दिन ही हॉल
में मुश्किल से 20-25 लोग थे।
पहले फिल्म का एक सीन।
हीरोइन पर सैनिकों का हमला हुआ है और ‘उस पार’ ले जाने के लिए गदहे बुलाए गए हैं। हीरोइन हीरो को ‘गधा’ बुलाकर मज़ाक करती है तो हीरो बताता है कि ये ‘गधी’ है। इत्तेफाक देखिए कि राजनीति के जिस ‘गदहाकाल’
में गुजरात से आने वाले पीएम भी ज़ोर-शोर से
लगे हुए हैं, ‘रंगून’ में भी गधे दिख गए तो अचानक ही हंसी आ गई। ‘रंगून’ विशाल भारद्वाज की सबसे कमज़ोर फिल्म है। जैसे
प्रकाश झा ‘परिणति’, ‘दामुल’ से होते हुए ‘आरक्षण’ तक आ गए हैं, विशाल भारद्वाज भी अपने ही पुराने फॉर्मूले
में उलझ गए हैं। जब फिल्म कमज़ोर पड़ने लगे, फिर गुलज़ार के गीत भी फार्मूला से
ज़्यादा नहीं लगते। ‘मेरे पिया गए इंग्लैंड, बजा के बैंड, करेंगे
लैंड..’ जैसे गीत गुलाल वाले पीयूष मिश्रा के गीतों का एक्सटेंशन
भर लगते हैं।
ऐसा नहीं कि फिल्म में
कोई कहानी नहीं है। फिल्म विशाल भारद्वाज की है तो कहानी के कई लेयर हैं। मगर इस
बार एक परत देशभक्ति की भी है जो विशाल भारद्वाज का असली फ्लेवर नहीं लगता। लगता
है जैसे वो किसी दबाव में फिल्म बना रहे हैं। फिल्म शुरू होने से पहले एक ‘राष्ट्रगान’ और फिर बीच-बीच में आज़ाद हिंद फौज का
राष्ट्रगान। नवाब (शाहिद कपूर) कहता है कि अपनी जान से कीमती वो होता है जिसके लिए
मरा जा सके यानी देश, मातृभूमि। ये उस निर्देशक का स्टेटमेंट है जो ‘ओंकारा’, ‘मकबूल’, ‘सात ख़ून माफ’ में प्यार के हज़ारों
सैंपल दिखा चुका है।
इसके अलावा फिल्म में ‘मां’ भी है। एक बंधक जापानी सैनिक हीरो-हीरोइन को रास्ता दिखाते
हुए एक दिन इन्हें मारने को ही होता है कि रो पड़ता है। उसे सिखाया गया है कि
जापान में युद्ध से हारकर ज़िंदा लौटने का रिवाज नहीं है। कोई ये नहीं मानेगा कि ‘दुश्मन’ ने उन्हें ज़िंदा जाने दिया। शाहिद कपूर कहते हैं कि कोई
समझे, न समझे- मां समझेगी। इतना संवेदनशील सैनिक ‘ऊपरवाला ख़ूबसूरत लड़कियों को इतना बेवकूफ
क्यूं बनाता है’ जैसा हल्का डायलॉग मारता है तो लगता है ये
व्हाट्सऐप के दौर की ही कोई फिल्म है। फिल्म के कई हिस्से बहुत भी अच्छे हैं। मगर
पूरी फिल्म एक साथ अच्छी नहीं हो पाई। हिटलर की मिमिक्री, ‘प्यार किया अंग्रेज़ी में’ जैसे गाने और अंग्रेज़ अफसर हार्डिंग की वो बात कि ‘अगर कभी अंग्रेज़ हिंदुस्तान को छोड़ के गए भी तो ये दुनिया के सबसे करप्ट
समाज में से एक होगा।‘
क्लाइमैक्स इतना लंबा है
जैसे एडिटर को फिल्म काटने के बजाय रंगून भेज दिया गया हो। एक पुल है जिस पर फिल्म
के पंद्रह मिनट लटके हैं। पुल के उस पार कंगना हैं। इस पार उनका पीछा कर रहे
अंग्रेज़, उससे प्यार करने वाला रूसी (सैफ) और उसे देशभक्ति का दिव्य
ज्ञान देने वाला आज़ाद हिंद फौज का नवाब (शाहिद)। बीच में बहुत से गोले-बारुद हैं
जो सबका सबकुछ बिगाड़ सकते हैं, मगर हीरो-हीरोइन का नहीं। विलेन भी इस नाज़ुक पुल
पर तभी मरेगा जब हीरो (एंटी-हीरो) उछल कर एक तलवार से उसकी गर्दन उड़ाएगा। यकीन
कीजिए आप विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक की ये फिल्म 2017 में देख रहे हैं!
सैफ अली ख़ान पूरी फिल्म में
फ्रस्ट्रेटेड नज़र आते हैं। लगता है आधे मन से एक्टिंग कर रहे हैं। शायद विशाल
भारद्वाज से नाराज़ हैं कि उनका ख़ानदानी टाइटल ‘नवाब’ फिल्म में शाहिद कपूर को दे दिया। कंगना और
शाहिद ने बढ़िया एक्टिंग की है। मगर विशाल भारद्वाज ने इन्हें इश्क के नाम पर नंगे
बदन से आगे नहीं जाने दिया है। ये बॉलीवुड की सीमा है, जो ‘रंगून’ जाकर भी बदल नहीं पाती।
निखिल आनंद गिरि