हिंदी की साहित्यिक मैगज़ीन पाखी के अक्टूबर अंक में प्रकाशित कविता। रांची से एक पाठक और फेसबुक फ्रेंड प्रशांत ने ये कविता पढ़ी और मुझे ये स्कैन कॉपी भेजी..उनका शुक्रिया.. |
ये कोई मठ तो नहीं
और आप मठाधीश भी नहीं...
और फिर झुक जाएं अपने घुटनों पर...
और आप तने रहें ठूंठ की तरह,
भगवान होना इस सदी का सबसे बड़ा बकवास है हुज़ूर !
काश! पीठ पर भी आंखे होती आपकी
मगर आपके तो सिर्फ कान हैं...
जिनमें भरी हुई है आवाज़
कि आप, सिर्फ आप महान हैं...
काश होती आंखे तो देख पाते
कि कैसे पान चबा-चबा कर चमचे आपके,
याद करते हैं आपकी मां-बहनों को...
क्या उन्हें लादकर ले जाएंगे साथ आखिरी वक्त में...
सब छलावा है, छलावा है मेरे आका !
वो कुर्सी जो आपको कायनात लगती है,
दीमक चाट जाएंगे उसकी लकड़ियों को,
और उस दोगली कुर्सी के गुमान में
आप घूरते हैं हमें..
हमारी पुतलियों के भीतर झांकिए कभी...
हमारे जवाब वहीं क़ैद हैं,
हम पलटकर घूर नहीं सकते।
अभी तो पुतलियों में सपने हैं,
मजबूरियां हैं, मां-बाप हैं...
बाद में आपकी गालियां हैं, आप हैं...
चलिए मान लिया कि सब आपकी बपौती है...
ये टिपिर-टिपिर चलती उंगलियां,
उंगलियों की आवाज़ें...
ये ख़ूबसूरत दोशीज़ा चेहरे
जिनकी उम्र आपकी बेटियों के बराबर है हाक़िम...
हमारी भी तो अरज सुनिएगा हुज़ूर...
हुकूमतें हरम से नहीं, सिपहसालारों से चलती हैं...
निखिल आनंद गिरि
(http://www.pakhi.in/oct_11/kavita_nikhil.php)