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गुरुवार, 17 नवंबर 2016

फिल्मों के सीक्वेल वाले नाम पर भी बैन ज़रूरी

नोट बैन करने के बाद अब सीक्वेल फिल्मों के बैन करने का सही समय आ गया है। और कुछ नहीं तो सीक्वेल जैसे टाइटल तो बैन कर ही देने चाहिए। मोदीजी की भाषा में कहूं तो फिल्मी जनता को थोड़ी तकलीफ होगी, मगर सिनेमा के हित में क्या हम दो-चार छोटे बैन नहीं झेल सकते। फिर हमें आदत पड़ जाएगी। मेरा देश बदल रहा है। फिल्म भी बदलनी चाहिए। लेकिन नहीं, रॉक ऑन को तो वहीं से शुरू होना था जहां वो ख़त्म हुई थी। अब या तो गूगल करके रॉक ऑन -1 की कहानी देखिए या पूरी फिल्म देखिए।
अगर आप ताज़ा दिमाग से ये फिल्म देखेंगे तो उतनी बुरी भी नहीं है। बल्कि मुझे तो अच्छी ही लगी। मुझे दिक्कत इसके नाम से है। एक कविता जैसी फिल्म और नाम रख दें रॉक ऑन-2! क्यूं भई। सिर्फ इसीलिए कि फिल्म के किरदार पिछले जन्म में रॉक ऑनके किरदार भी थे। और उस नाम से फिल्म ने अच्छा बिज़नेस किया था। ये नहीं चलेगा। बिना पुरानी बैसाखी के भी फिल्म की कहानी पूरी हो सकती थी।
फिल्म की कोशिश बुरी नहीं है। तीन दोस्त आदी, केडी और जो की कहानी है, जिनका म्यूज़िक के ज़रिए एक लंबी दोस्ती का वक्त बीत चुका है। और ये सब हम असली वाली रॉक ऑन में देख चुके हैं। अब तीनों दोस्त और उनकी बीवियां कैरियर में अपने-अपने रास्ते पर हैं। सब एक साथ रहना चाहते हैं, काम भी करना चाहते हैं, मगर करते नहीं। आदी (फरहान अख्तर) म्यूज़िक की दुनिया में लगा एक पुराना सदमा भूल नहीं पाया है और सब छोड़ कर मेघालय आ गया है। अपनी बीवी साक्षी से कहता भी है कि मेरे पास रुक जाओ, मगर लड़की कहती है- नहीं, मेरा करियर है।फरहान ये कहते हुए मान जाते हैं कि वो मिस तो करेंगे मगर ठीक है। वो अपने मुंबई के दोस्तों के साथ बिताए अच्छे दिनकी यादों के पिंजड़े में ही रहना चाहता है। मेघालय में खेती करता है। को-ऑपरेटिव चलाता है। मगर वहां के लोकल करप्शन में साथ नहीं देना उसे भारी पड़ता है।  
फिर एक दूसरी कहानी भी है जिसमें श्रद्धा कपूर को आना है। उनकी एक्टिंग में भारी-भरकम शब्दों वाले गाने उतने ही मिसफिट बैठते हैं जितना डांस शो के जज में बाबा रामदेव। फिर भी वो कोशिश करती हैं। आदी को म्यूज़िक और उसके सदमे से उबारने की एक कड़ी बनती हैं। और फिल्म के आखिर तक एक रॉकस्टार बनकर पर्दे पर बनी रहती हैं। शास्त्रीय संगीत के ख़त्म होते क्रेज़ के बीच एक पुराने ज़माने का महान संगीतकार पिता अपना गाने-बजाने वालाबेटा खो चुका है। अब बेटी भी उसी राह पर है। रॉकऑन आज के ज़माने की नब्ज़ को पकड़ने की कोशिश है, मगर बोरिंग तरीके से।
हिंदी की इस फिल्म में शिलांग है, नॉर्थ-ईस्ट है, इस बात के लिए फरहान अख़्तर की तारीफ होनी चाहिए। वो उसे रॉक-कैपिटल कहते हैं और गानों के ज़रिए अच्छा संदेश भी देते हैं। बॉब डिलन जैसे जनप्रिय गायकों को याद करने का दौर लौट रहा है तो ऐसे दौर में फिल्म का सब्जेक्ट अच्छा है, मगर ऐसे वक्त में जब पूरा देश लाइन में खड़ा होकर सौ-दो सौ के नोट जुटा रहा है, एक ऐसी फिल्म जिसका कोई ठोस राजनीतिक कमेंट नहीं, कोई मासअपील नहीं, कितनी अच्छी लग सकती है।
ये एक चैरिटी शो की तरह लगती है जिसमें दर्शक आते तो हैं, मगर पैसा ख़र्च करना चाहें तो उनके पास सिर्फ पांच सौ-हज़ार के नोट ही हैं।
 
( वेब पोर्टल यूथ की आवाज़ पर भी ये रिव्यू उपलब्ध है)
 
​निखिल आनंद गिरि​

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