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बुधवार, 21 दिसंबर 2016

नोटबंदी पर कुछ नोट्स - YearEnder

दिल्ली मेट्रो के दफ्तर के पास एक बैंक अपनी नोटों की गाड़ी लेकर आया था ताकि कर्मचारियों को नोटबंदी से राहत मिल सके। मैं तीन घंटे की लंबी लाइन के बाद जब सबसे आगे पहुंचा तो बिल्कुल हीरो की तरह अपना कार्ड आगे किया। वो एटीएम कार्ड नहीं, मेरा मेट्रो स्मार्ट कार्ड था। डेबिट कार्ड पता नहीं कहां छूट गया था। पीछे की लंबी लाइन देखकर आगे से हटने की हिम्मत नहीं हो रही थी। सारी जेबों में लाइट की स्पीड से ढूंढने पर एटीएम कार्ड मिला तो लगा किसी जानलेवा दुर्घटना से बच गया। ऐसी भूल लाइन में लगा हुआ हर भारतीय कर सकता है। लाइन में लगना शायद ही किसी नागरिक की प्राथमिकता हो। वो या तो अपना ऑफिस छोड़ कर आया है, या किसी बेहद ज़रूरी काम को टालकर या फिर अपने मालिक का कार्ड लेकर लाइन में खड़ा है।

नोटबंदी पर तमाम तरह के  अच्छे-बुरे ओपिनियन सुनता रहता हूं। हो सकता है किसी छोटे शहर में स्थिति कम बुरी भी हो, मगर मानने का मन नहीं करता। रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया से पैदल की दूरी पर है कनॉट प्लेस। यहां भी एटीएम में पैसे नहीं हैं। जहां है वहां इतनी लंबी लाइन है कि बिहार से आए हम जैसे मामूली लोगों का दम फूलने लगता है। हमने बचपन से इतनी लाइनें देखी हैं कि कहीं सिर्फ चार-पांच लोग ही एटीएम की लाइन में खड़े हों तो भरोसा ही नहीं होता कि वहां पैसे होंगे। ये उस एटीएम के खिलाफ नहीं, इस सरकार के खिलाफ विश्वास समझा जाए।

तमाम मीडिया चैनल्स, अखबार आजकल टॉप टेन, टॉप 50 जैसे इयर-एंडर में लगे होंगे। मेरा दावा है कि नोटबंदी की लाइनों के भी टॉप टेन किस्से ज़रूर शामिल किए जाएं। हर किस्से के बाद राष्ट्रगान चलाया जाए। भयानक टीआरपी आएगी। जितनी लाइनें हैं, उतने किस्से हैं।

बाराखंभा रोड पर सौ लोगों की लाइन से आगे पहुंचते-पहुंचते एक सज्जन जब एटीएम के मुंह तक पहुंचे तो कार्ड का पिन नंबर ही भूल गए। अब वहीं अपनी पत्नी से पूछने लगे। पत्नी कोई डायरी खोजने लगी। फिर उनके घर कोई कूरियर वाला आ गया। और यहां लाइन में पीछे लोग राष्ट्रगान’ गाने लगे। समझ गए ना..
एक माली अपने दूसरे रिक्शेवाले भाई के साथ लाइन में सौवें नंबर पर खड़ा था। अचानक पर्स खोला तो उसका एटीएम कार्ड ज़रा-सा टूटा हुआ था। उसने रिक्शेवाले भाई से इस कार्ड के चलने-न चलने पर एक्सपर्ट ओपिनियन मांगी। दूसरे वाले भाई ने भी आरबीआई गभर्नर की तरह बढ़िया सुझाव दिया कि किस तरह से अंदर घुसाने पर काम कर जाएगा।  

कभी-कभी सोचता हूं कि कवियों, शायरों का इस नोटबंदी में क्या हाल होगा। क्या उनके लिए कविताओं में एटीएम की मशीन चांद का टुकड़ा नज़र आता होगा। क्या नोट की भूख अब पेट की भूख से ज़्यादा बड़ा सवाल होने लगी होगी। फटाफट प्रेम के ज़माने में नोटबंदी ने हम सबको ठहर कर सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। हम एक-दूसरे को समय देना भूल गए हैं। तो सरकार इस तरह से एक अच्छे गुण को दोबारा हमारे भीतर रोपना चाहती है। इन दिनों कई घंटे लेट चल रही ट्रेनें भी हमसे हमारा ख़ूब समय मांगती हैं। इसके लिए सरकार की जितनी तारीफ की जाए कम है। बाक़ी जो है, सो तो हइये है।


चलते-चलते - एक आदमी एटीएम की कतार में तीन घंटे खड़ा होकर अपने आगे खड़े आदमी को बोलकर गया कि भाई थोड़ी देर में लौटता हूं। फिर पास ही पीवीआर में पिक्चर देखने चला गया और जैसे ही आराम से बैठने को हुआ, वहां राष्ट्रगान शुरु हो गया। आप बताइए उसे खड़ा होना चाहिए या अपने हिस्से की देशभक्ति का दैनिक कोटा वो पूरा कर चुका है।

निखिल आनंद गिरि

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

फिल्मों के सीक्वेल वाले नाम पर भी बैन ज़रूरी

नोट बैन करने के बाद अब सीक्वेल फिल्मों के बैन करने का सही समय आ गया है। और कुछ नहीं तो सीक्वेल जैसे टाइटल तो बैन कर ही देने चाहिए। मोदीजी की भाषा में कहूं तो फिल्मी जनता को थोड़ी तकलीफ होगी, मगर सिनेमा के हित में क्या हम दो-चार छोटे बैन नहीं झेल सकते। फिर हमें आदत पड़ जाएगी। मेरा देश बदल रहा है। फिल्म भी बदलनी चाहिए। लेकिन नहीं, रॉक ऑन को तो वहीं से शुरू होना था जहां वो ख़त्म हुई थी। अब या तो गूगल करके रॉक ऑन -1 की कहानी देखिए या पूरी फिल्म देखिए।
अगर आप ताज़ा दिमाग से ये फिल्म देखेंगे तो उतनी बुरी भी नहीं है। बल्कि मुझे तो अच्छी ही लगी। मुझे दिक्कत इसके नाम से है। एक कविता जैसी फिल्म और नाम रख दें रॉक ऑन-2! क्यूं भई। सिर्फ इसीलिए कि फिल्म के किरदार पिछले जन्म में रॉक ऑनके किरदार भी थे। और उस नाम से फिल्म ने अच्छा बिज़नेस किया था। ये नहीं चलेगा। बिना पुरानी बैसाखी के भी फिल्म की कहानी पूरी हो सकती थी।
फिल्म की कोशिश बुरी नहीं है। तीन दोस्त आदी, केडी और जो की कहानी है, जिनका म्यूज़िक के ज़रिए एक लंबी दोस्ती का वक्त बीत चुका है। और ये सब हम असली वाली रॉक ऑन में देख चुके हैं। अब तीनों दोस्त और उनकी बीवियां कैरियर में अपने-अपने रास्ते पर हैं। सब एक साथ रहना चाहते हैं, काम भी करना चाहते हैं, मगर करते नहीं। आदी (फरहान अख्तर) म्यूज़िक की दुनिया में लगा एक पुराना सदमा भूल नहीं पाया है और सब छोड़ कर मेघालय आ गया है। अपनी बीवी साक्षी से कहता भी है कि मेरे पास रुक जाओ, मगर लड़की कहती है- नहीं, मेरा करियर है।फरहान ये कहते हुए मान जाते हैं कि वो मिस तो करेंगे मगर ठीक है। वो अपने मुंबई के दोस्तों के साथ बिताए अच्छे दिनकी यादों के पिंजड़े में ही रहना चाहता है। मेघालय में खेती करता है। को-ऑपरेटिव चलाता है। मगर वहां के लोकल करप्शन में साथ नहीं देना उसे भारी पड़ता है।  
फिर एक दूसरी कहानी भी है जिसमें श्रद्धा कपूर को आना है। उनकी एक्टिंग में भारी-भरकम शब्दों वाले गाने उतने ही मिसफिट बैठते हैं जितना डांस शो के जज में बाबा रामदेव। फिर भी वो कोशिश करती हैं। आदी को म्यूज़िक और उसके सदमे से उबारने की एक कड़ी बनती हैं। और फिल्म के आखिर तक एक रॉकस्टार बनकर पर्दे पर बनी रहती हैं। शास्त्रीय संगीत के ख़त्म होते क्रेज़ के बीच एक पुराने ज़माने का महान संगीतकार पिता अपना गाने-बजाने वालाबेटा खो चुका है। अब बेटी भी उसी राह पर है। रॉकऑन आज के ज़माने की नब्ज़ को पकड़ने की कोशिश है, मगर बोरिंग तरीके से।
हिंदी की इस फिल्म में शिलांग है, नॉर्थ-ईस्ट है, इस बात के लिए फरहान अख़्तर की तारीफ होनी चाहिए। वो उसे रॉक-कैपिटल कहते हैं और गानों के ज़रिए अच्छा संदेश भी देते हैं। बॉब डिलन जैसे जनप्रिय गायकों को याद करने का दौर लौट रहा है तो ऐसे दौर में फिल्म का सब्जेक्ट अच्छा है, मगर ऐसे वक्त में जब पूरा देश लाइन में खड़ा होकर सौ-दो सौ के नोट जुटा रहा है, एक ऐसी फिल्म जिसका कोई ठोस राजनीतिक कमेंट नहीं, कोई मासअपील नहीं, कितनी अच्छी लग सकती है।
ये एक चैरिटी शो की तरह लगती है जिसमें दर्शक आते तो हैं, मगर पैसा ख़र्च करना चाहें तो उनके पास सिर्फ पांच सौ-हज़ार के नोट ही हैं।
 
( वेब पोर्टल यूथ की आवाज़ पर भी ये रिव्यू उपलब्ध है)
 
​निखिल आनंद गिरि​

रविवार, 13 नवंबर 2016

आएंगे..आ ही गए अच्छे दिन!

देश एक लंबी-सी कतार है
आपके बाग़ों में बहार है।
आएंगे, आ ही गए अच्छे दिन
जो न देख पाए, वो ग़द्दार है।
हमारी जेब पर ही बंदूकें,
कैसा पागल ये चौकीदार है।
फोड़ दी गुल्लकें भी बच्चों की
काला धन अब तलक फ़रार है।
जेब ख़ाली है, दवा कैसे करें
विकास का भूत यूं सवार है।


निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

मृत्यु की याद में

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