दिल्ली में कई बार ऐसा हुआ कि मैं और मेरे मुसलमान साथी किराए के लिए कमरा ढूंढने निकले हों और मकान मालिक ने सब कुछ तय हो जाने के बाद हमें कमरा देने से इनकार कर दिया हो। कई बार मुसलमान साथी के सामने ही तो कई बार मुझे अकेले में बताते हुए। इस उम्मीद से कि मैं हिंदू हूं तो उसकी बात समझ ही लूंगा। कई बार दिल्ली की तीखी ज़ुबान से बिहारी सुनने का भी कड़वा अनुभव रहा है। मगर, ऐसे लोगों की बौद्धिक हैसियत पर मन ही मन हंसकर चुपचाप सह लेना ही बुद्धिमानी लगता रहा है।
लेकिन, 20 साल के आरज़ू सिद्दीकी के साथ सिर्फ इतना कहकर ही बात ख़त्म नहीं की गई। सिर्फ कहकर छोड़ दिया जाता तो वो भी सुनकर लौट आता, सह लेता। उसे मारा-पीटा गया। उस कॉलेज के भीतर जहां वो मीडिया की पढ़ाई करता है। उस आदमी ने पीटा, जिसकी बीवी को वो दो दिन पहले ख़ून देकर आय़ा था। सिर्फ एक बार ही नहीं पीटा गया उसे, कॉलेज के प्रिंसिपल जी के अरोड़ा ने भी बजाय उसे दिलासा देने के, पहले ‘मुसलमान’ और ‘बिहारी’ कहा और फिर बाद में सस्पेंड कर दिया। एक सड़कछाप गुंडे से भी बदतर अंदाज़ में उसका करियर तबाह करने की धमकी दी। महीने भर बाद जब आरज़ू अपने करियर की दुहाई लेकर प्रिंसिपल के पास दोबारा गया और परीक्षा में बैठने देने की अनुमति मांगी तो उसे फिर धमकाया गया। आरज़ू ने बताया कि वो बेहद ग़रीब परिवार से है और उसका एक साल बरबाद होने की ख़बर सुनकर घरवाले मर जाएंगे। वो भी जी नहीं सकेगा। कुर्सी की धौंस में प्रिंसिपल ने ‘मुसलमान’ और ‘बिहारी’ आरज़ू को मर जाने की बेहतर सलाह दी। आरज़ू ने तनाव में आकर आत्मदाह तक का मन बना लिया। मगर, इस युवा साथी की मानसिक स्थिति समझने और उसे सहारा देने के बजाय कॉलेज वालों ने उसे पुलिस के हवाले कर दिया।
'जनसत्ता' में 8 जून 2012 को प्रकाशित |
आरज़ू सिद्दीकी, जिसका जुर्म ये है कि वो मुसलमान है, बिहारी है और ग़रीब भी है... |
मगर, सवाल ये है कि क्या सारा दोष सिर्फ आरज़ू का ही है। एक 20 साल के लड़के को तमाम गालियों के साथ ‘मुसलमान’ और ‘बिहारी’ कहकर मर जाने को उकसाने वाले उस प्रिंसिपल और उसके ‘गैंग’ को समाज के सामने शर्मिंदा नहीं किया जाना चाहिए। क्या उनको ये अहसास नहीं होना चाहिए कि कुर्सी पर बैठ जाने से उनके सामने का हर आम आदमी कीड़ा-मकोड़ा नहीं हो जाता। वो भी तब जब अंबेडकर के नाम पर कॉलेज हो और उसका प्रिंसिपल ऐसा ग़ैर-संवेदनशील, रेसिस्ट और असामाजिक हो।
ये भी बताते चलें कि आरज़ू के पिता के पिता पटना में चूड़ियां बेचकर किसी तरह परिवार का गुज़ारा करते हैं। आरज़ू की हिम्मत नहीं हुई कि वो अपने साथ हुई इस ज़्यादती की ख़बर घर पर दे सके। वो ज़िंदगी में चूड़ियां बेचने से कुछ अलग और बेहतर करना चाहता था इसीलिए दिल्ली चला आया। मगर, उसके मुसलमान या बिहारी या ग़रीब होने ने उसके बाक़ी तमाम सपनों को फिलहाल कुचल कर रख दिया है। उसकी हालत अभी क्या है, सिर्फ वही समझ सकता है। उसने प्रधानमंत्री से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री तक को तमाम चिट्ठियां लिख दी हैं मगर सब के सब उतने ही शांत और बेफिक्र हैं।
क्या आप और हम आरज़ू सिद्दीकी के लिए कुछ नहीं कर सकते?