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सोमवार, 14 नवंबर 2016

'हॉनर किलिंग' के ज़माने में भाई-बहन की प्रेम कथा - सामा चकवा

फेसबुक के साथी पुष्यमित्र जी ने बिहार में छठ पर्व के बाद होने वाले 'सामा-चकवा' पर्व पर बड़ी अच्छी जानकारी दी है। बहुत लोगों ने शायद ही सुना हो इस लोककथा के बारे में। फेसबुक की उनकी टाइमलाइन से ही उड़ाकर ये लेख 'आपबीती' के दोस्तों के लिए..
एक चुगलखोर व्यक्ति राजा कृष्ण से कहता है कि तुम्हारी पुत्री साम्बवती चरित्रहीन है. उसने वृंदावन से गुजरते वक्त एक ऋषि के साथ संभोग किया है. कृष्ण अपनी पुत्री के बारे में यह खबर सुनकर गुस्से में आग-बबूला हो जाते हैं. वे यह पता करने की भी कोशिश नहीं करते कि इस बात में कितनी सच्चाई है. वे तत्काल अपनी पुत्री और उस ऋषि को शाप देते हैं कि दोनों मैना में बदल जाये. पुत्री मैना बन जाती है तो उसके पति चक्रवाक को भी वियोग सहा नहीं जाता है. वह भी मैना का रूप धर लेता है. उसे अपनी पत्नी पर पूरा भरोसा है. वह नहीं मानता कि उसकी पत्नी उसे धोखा दे सकती है.
अब तीन प्राणी चिड़िया में बदल गये हैं. यह देख कर उस युवती का भाई साम्ब परेशान हो जाता है. वह तय करता है कि इन लोगों को पक्षी योनि से मुक्ति दिलाये. वह अपने पिता को यह भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि ये तीनों लोग निर्दोष हैं. वह इन तीनों को फिर से मनुष्य बनाने के लिए तपस्या करता है. पिता को मनाता है, तब पिता तीनों को शाप मुक्त करते हैं. अहा, क्या कथा है? यह सामाचकेवा लोकपर्व की कथा है, जिसका आज विसर्जन होना है.
भारतीय लोकमानस में बसी इस कथा के बारे में सोचिये और वर्तमान परिदृश्य पर गौर कीजिये. आज अगर किसी भाई को पता चल जाये कि उसकी बहन का किसी पर पुरुष से यौन संबंध है, किसी पति को यह भनक लग जाये... तो ये भाई और पति कितनी देर अपने गुस्से पर काबू रख पायेंगे. वे उक्त महिला को कितना बेनिफिट ऑफ डाउट देंगे. मगर लोक मानस में बसी इस कथा के भाई और पति न सिर्फ उक्त स्त्री पर भरोसा रखते हैं, बल्कि उसे दोष मुक्त साबित करने के लिए हर तरह का कष्ट उठाते हैं.
और बहनें अपने भाई के इस त्याग का बदला चुकाने के लिए हर साल #सामाचकेवा का पर्व मनाती हैं. वे मिट्टी की चिड़िया बनाती हैं, गीत गाते हुए उन्हें रोज खेतों में(वृंदावन में) चराने ले जाती हैं. आखिरी रोज कार्तिक पूर्णिमा के दिन इनका विसर्जन करती हैं, बहनें चुगलखोर चुगला की दाढ़ी में आग लगा देती हैं और भाइयों से कहती हैं कि मिट्टी की बनी चिड़ियों को तोड़ दें ताकि सामा, उसके पति चक्रवाक(चकेवा) और शापित ऋषि फिर से मानव रूप में आ सकें. कोसी और मिथिलांचल के इलाके में इस पर्व को लेकर काफी उल्लास रहता है. आज रात के वक्त लड़कियां और महिलाएं खेतों में जाकर खूब गीत गायेंगे और भाइयों का शुक्रिया अदा करेंगे. इन गीतों में जिस भाई का नाम आता है वह अह्लादित हो जाता है.
इन मधुर गीतों को स्वर कोकिला शारदा सिंहा ने अपनी आवाज दी है. इनमें से "गाम के अधिकारी" और "सामा खेलै चललि" वाले गीत काफी लोकप्रिय हैं. अक्सर इन्हें लोग गलती से छठ गीत समझ लेते हैं. इस लोकपर्व की मधुरता का सबसे सजीव वर्णन फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने दूसरे सबसे पापुलर उपन्यास परती परिकथा में किया है. जिन्होंने उस प्रकरण को पढ़ा है, वे इस पर्व की मधुरता का अंदाज लगा सकते हैं.
कथा जो भी हो, मगर वस्तुतः यह पर्व उत्तरी बिहार में हर साल साइबेरिया से आने वाले प्रवासी पक्षियों के स्वागत में मनाया जाता है. इस दौरान पूरे इलाके में साइबेरियन क्रेन समेत कई पक्षी प्रवास करने आते हैं. मगर अक्सर ये पक्षी शिकारियों के हाथों मारे चले जाते हैं. जबकि इलाके की औरतों को इन पक्षियों के मारे जाने से दुख होता है. इस पर्व के जरिये वे इन पक्षियों की सुरक्षा का भी संदेश देती हैं. हालांकि मौजूदा वक्त में यह संदेश गुम सा हो गया है. अब सामा चकेवा को चराने के लिए न वन(वृंदावन) हैं, न गीत गाने वाले मधुर कंठ, न मूर्तियां बनाने में कुशल महिलाएं. छठ के बाद सबकुछ आपाधापी में होता है. मगर फिर भी यह पर्व हर साल हम जैसों के मन में मधुर स्मृतियां छोड़ जाता है.


शनिवार, 12 नवंबर 2016

बनस्थली विद्यापीठ उर्फ लड़कियों का जेलखाना

ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो 
दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़ा कि दिल्ली से कहीं ज़्यादा बिहार का ठेकुआ जयपुर को जाता है। उससे भी आगे। राजस्थान के टोंक ज़िले की बनस्थली विद्यापीठ (यूनिवर्सिटी) में कम से कम हज़ारों बिहार की लड़कियां हैं जो छठ में किसी तरह घर को आती हैं और फिर वापस फटाफट भागती हैं। वो दिल्ली के लड़कों की तरह छठ के बाद जैसे-तैसे वापस नहीं भाग सकतीं। उन्हें अपने पिताओं के साथ जयपुर आना पड़ता है। वेटिंग की टिकट के सहारे। टीटी के साथ पिता सीट की सेटिंग करते हैं और टीटी के चेहरे में बेटियों को वनस्थली की वॉर्डन मैम का भावशून्य चेहरा दिखने लगता है। इस छठ के बाद उन्हें घर (बिहार) लौटने का अगला मौका अप्रैल-मई में मिलेगा।
रास्ते भर उनसे हुई बातचीत में जितना बनस्थली विद्यापीठ को जान पाया, उससे ज़्यादा पहले से इतना ही जानता हूं कि मेरी एक-दो अच्छी दोस्त वहीं से पढ़ी हैं। इस लेख को लिखने के लिए बनस्थली की वेबसाइट को गूगल किया तो वहां पंडित नेहरू के मन की बातलिखी मिली किअगर मैं लड़की होता, तो अपनी पढ़ाई के लिए बनस्थली को ही चुनता काश! पंडित नेहरू मेरे साथ जलपाईगुड़ी-उदयपुर एक्सप्रेस की स्लीपर बोगी में होते जहां लड़कियां अपनी बातों में यही दुख जताती रहीं कि वो लड़कियां हैं और वो भी बिहार की। वो बिहार जहां कॉलेज की पढ़ाई के सबसे बुरे विकल्प मौजूद हैं। जहां लड़कियों की पढ़ाई से ज़्यादा उनके पिता इस बात के लिए ज़्यादा चिंतित रहते हैं कि शादी की उम्र तक किसी तरहलड़की बिगड़नेसे बच जाए। और ऐसे में सिर्फ लड़कियों के लिए बनी बनस्थली यूनिवर्सिटी उन्हें कमाल की जगह लगती है। जहां उनकी सुरक्षा में 850 एकड़ दूर तक का वीरान कैंपस है और हर फ्लोर पर एक वॉर्डन जो उन्हें आठ बजे के बाथ बिना परमिशन के बाथरूम तक नहीं जाने देतीं। जहां लड़के दूर-दूर तक परनहीं मार सकते।
ट्रेन में सवार लड़कियां बनस्थली से बीटेक और बीबीए जैसे बड़े कोर्सकर रही थीं। पता चला कि आईटी (इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) जैसे कोर्स के लिए भी उन्हें लैपटॉप या मोबाइल या इंटरनेट चलाने की आज़ादी नहीं है। टीचर (जिन्हें वहां शायद जीजीबुलाते हैं) उन्हें रोज़ पीपीटी बनाने को कहती हैं मगर कैंपस में हज़ार लड़की पर एक कंप्यूटर है! इंटरनेट के बिना उनकी ज़िंदगी ऐसी है कि अगर घर से कोई चिट्ठी आती है तो पहले वॉर्डन मैडम उसे खोलकर पूरा पढ़ती है और फिर लड़की को देती हैं। कैंपस सिर्फ लड़कियों का है मगर उन्हें सिर्फ खादी के कपड़े पहनने की ही इजाज़त है। कमरे में आयरन तक नहीं रख सकते। हॉस्टल से क्लासरूम की दूरी कम से कम पैदल बीस मिनट की है जिसके लिए सिर्फ एक बस चलती है। अगर बस समय से नहीं पकड़ पाए तो पैदल जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं। अगर तबीयत बिगड़ी तो चालीस रुपये देकर एंबुलेंस सेवा ली जा सकती है। ऐसे में सहेली का साथ होना ज़रूरी है।
मगर बनस्थली की उन लड़कियों ने तो अपनी सीनियर्स का मुंह देखा है और ही उन्हें दूसरे डिपार्टमेंट की टीचर्स से मिलने या बात करने की इजाज़त है। पिता के अलावा कोई भी मिलने नहीं सकता। अगर पिता भी छुट्टी में बेटी को घर ले जाना चाहते हैं तो ये ससुराल से बिटिया को मायके लायने से ज़्यादा मुश्किल है। बिहार के गांव से आपको एक चिट्ठी बनस्थली डाक से या फैक्स से भेजनी पड़ेगी। उस चिट्ठी में आने-जाने की तारीख और पिता के सिग्नेचर ज़रूर होने चाहिए। फिर पिता लेने आएंगे। सिग्नेचर मिलाए जाएंगे। मिले तो ठीक वरना बड़ी मुश्किल। आने-जाने की तारीख से लौटे तो ठीक वरना बड़ी मुश्किल। हर अपराधके लिए बहुत जुर्माना है। पिता खुश होते हैं कि लड़कियां इतने अनुशासन में हैं मगर लड़कियां ऐसे में क्या सोचती हैं, कोई नहीं पूछता।
मेरे पास इसका कोई आंकड़ा नहीं कि बनस्थली में अब तक कितनी लड़कियां सुसाइड कर चुकी हैं। यूनिवर्सिटी से ऐसे आंकड़े जल्दी बाहर भी नहीं आते। मगर जिन पिताओं या रिश्तेदारों को ये लेख पढ़कर बनस्थली की अपनी बेटियों की चिंता हो रही हो, उन्हें राहत की एक बात बता दूं। यूनिवर्सिटी की तरफ से सुसाइड रोकने के लिए हॉस्टल के कमरों में छोटे वाले टेबल फैन लग गए हैं। तीन लड़कियों के कमरों में अगर इससे गर्मी बढ़ती है तो बिहार से पापा हज़ार रुपये की टिकट लेकर बनस्थली सकते हैं और पांच सौ का अलग टेबल फैन खरीदकर अपनी बिटिया को दे सकते हैं।
मैं बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओके इस शानदार नमूने विश्वविद्यालय के लिए फिलहाल आलोक धन्वा की कुछ पंक्तियां पढ़ना चाहता हूं और चाहता हूं कि ये चिट्ठी भी वहां की वार्डन मैम पहले पढ़ें
‘’ तुम्हारे उस टैंक जैसे बंद और मजबूत
घर से बाहर
लड़कियां काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाजत नहीं दूंगा
कि तुम उसकी सम्भावना की भी तस्करी करो
वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह खुद शामिल होगी सब में
गलतियां भी खुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जाएगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी

कितनी-कितनी लड़कियां
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है’’

(ये लेख कुछ बनस्थली में पढ़ने वाली कुछ लड़कियों से बातचीत पर आधारित है जिनकी आंखों में सच्चाई दिखती है)

डिस्कलेमर : 'YOUTH KI AAWAZ' वेब पोर्टल के लिए लिखी इस पोस्ट पर इतनी गालियां पड़ी हैं कि समझ नहीं आया कि अपने ब्लॉग पर पब्लिश करूं या रहने दूं। फिर सोचा पब्लिश ही करता हूं। दरअसल जो गालियां दे रही हैं वो वनस्थली विद्यापीठ की पुरानी छात्राएं रह चुकी हैं। कुछ नई-कुछ बहुत पुरानी। उन्हें शायद अपनी 'प्यारी' यूनिवर्सिटी के बारे में कुछ भी बुरा सुनना अच्छा नहीं लग रहा। कुछ इनबॉक्स में धमकियां दे रही हैं, कुछ फेसबुक पर गालियां बक रही हैं वगैरह वगैरह। मेरा बस इतना कहना है कि ट्रेन में कुछ लड़कियों से हुई बातचीत को जब मैंने लेख का शक्ल देना चाहा तो ऐसा बन पड़ा कि कुछ लोग बुरा मान गए। ये न तो किसी अखबार के लिए की गई रिपोर्ट है, न नाम 'कमाने' का स्टंट। मेरा ब्लॉग है और मेरी आपबीती। किसी का दिल दुखता है तो मेरी पूरी सहानुभूति है। 

निखिल आनंद गिरि

ये पोस्ट कुछ ख़ास है

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