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गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

गाना डॉट कॉम का ‘आपदा में अवसर’ उर्फ़ ‘लस्ट बर्ड्स विद रिया’

जब आपको लगता है कि सोशल मीडिया ही दुनिया है और पूरी दुनिया किसान आंदोलन, कोरोना वैक्सीन पर बहस में उलझी है, ठीक उसी वक्त इंसानी आबादी का एक बड़ा गुच्छा टाइम्स ग्रुप के मशहूर पोर्टल गाना डॉट कॉम के बैनर तले रिया की बेडरूम कहानियों में कान लगाए बैठा है। इसे मैं एक रिसर्च स्कॉलर के तौर पर ख़ुद के लिए और एक बिज़नेस प्लैटफॉर्म के तौर पर गाना डॉट कॉम दोनों के लिए आपदा में अवसरकहना चाहूंगा जो ब्रह्मांड के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री का दिया गया जुमला है।


साल 2020 के दौरान कोरोना महामारी में सबने अपने-अपने हिसाब से समय का सदुपयोग किया है। मैंने रेडियो पर रिसर्च करते करते एक दिन गाना डॉट कॉम पर पॉडकास्ट की एक नई सीरीज़ को क्लिक कर दिया जो दिसंबर 2020 में पहली बार पोस्ट हुआ था। नाम था लस्ट बर्ड्स विद रिया। स्कूल के दिनों में लुगदी किताबों (पल्प फिक्शन) की शक्ल में बिकने वाला पॉर्न, साइबर कैफे वाले युग में पांच रुपये प्रति घंटा के रास्ते वेबसाइट्स तक तस्वीरों और वीडियो के अवतार तक पहुंचा। मगर, आवाज़ की दुनिया यानी पॉडकास्ट में ये प्रयोग मेरे लिए पहला अनुभव था। फोटो-वीडियो की बाढ़ के ज़माने में सिर्फ ऑडियो के सहारे पॉर्न कंटेंट सोचना और ये मानना कि जनता हाथोंहाथ लेगी, किसी क्रांतिकारी क़दम से कम नहीं है।

लस्ट विद रिया पॉडकास्ट पॉर्न है जिसमें लगभग हर हफ्ते एक दस-बारह मिनट की ऑडियो कहानी डाली जाती है। पॉडकास्ट शुरू होते ही अंग्रेज़ी में डिस्क्लेमर आता है कि ये कहानियां 18 वर्ष की उम्र के बाद के श्रोताओं के लिए ही है, फिर बिना रुके हिंदी में कहानियां शुरू होती हैं। ये कहानी रिया सुनाती हैं जो एक आइएएस ऑफिसर की हाउसवाइफ हैं और उनका मानना है कि हर इंसान सेक्स का भूखा होता है, जिसे दिन में कम से कम दो बार इसकी ख़ुराक चाहिए। मगर वो सेक्स दुनिया की ऐसी भूखी हैं, जो बुफे में बिलीव करती है। कभी लिफ्ट में, कभी स्विमिंग पूल में, डॉक्टर क्लीनिक में, योगा के बहाने, कभी वैकेशन के दौरान उन्हें नए-नए मर्द मिलते हैं, जिनके साथ वो बड़े चाव से अपने सेक्स अनुभव सुनाती हैं।

रेडियो प्रोग्रामिंग में ड्रामा फॉर्मेट के लिहाज़ से इसमें आवाज़ के सारे पहलू मौजूद हैं। रिया और उसे मिलने वाले किरदारों के नाटकीय नैरेशन हैं, आपको नाज़ुक पलों में ले जाता बैकग्राउंड म्यूज़िक है और रिया के साथ मर्दों के मिलने की आवाज़ों के सस्ते साउंड इफेक्ट्स भी। कई बार ऐसा भी होता है कि रिया जब आपको बहुत ध्यान से सुनने को मजबूर करना चाहती है, आपकी हंसी छूट जाए कि ये सब क्या हो रहा है।  लेकिन कुल मिलाकर पॉर्न पॉडकास्ट तैयार करने में मेहनत की गई है, ऐसा कहा जा सकता है।

रिया नाम भी एक तरह का ट्रांज़िशन कहा जा सकता है। हिंदी के लुगदी पॉर्न का पाठक मस्तराम नाम से वाकिफ़ होगा। फिर सविता, वेलम्मा जैसे देसी नाम से पाठकों-दर्शकों की नई पीढ़ी तैयार हुई। इस ऑडियो किरदार का नाम रिया है। थोड़ा-सा मॉडर्न, कम से कम मस्तराम से बहुत अलग परिवेश में पली-बढ़ी, पढ़ी-लिखी। मगर इच्छाएं वही आदम-हव्वा वाली। इसे एक फॉर्मूला पॉर्न की तरह कहा जा सकता है, जिसमें हर बार कोई लड़की या महिला ही अपनी महत्वाकांक्षी कहानियां सुनाए।

इन ऑडियो कहानियों मे कल्पना (इमैजिनेशन) की जगह है भी और नहीं भी। मेरी सांसे राजधानी एक्सप्रेस से भी तेज़ हो गई थीं, उसकी पतंग मेरे हाथ में थी जैसे डायलॉग आपको अलग कल्पना-लोक में ले जाते हैं, वहीं सी ग्रेड फिल्मों की तरह कामुक पलों के बैकग्राउंड साउंड इफेक्ट वैसे के वैसे ही चेंप दिए गए हैं।

कम लिखूं, ज़्यादा समझिए। विशेष रिया की मनोहर कहानियां सुनने पर।

निखिल आनंद गिरि

सोमवार, 3 जनवरी 2011

कंपकंपाती ठंड में मल्टीप्लेक्स की 'मिर्च' का मज़ा...

फिल्म की शुरुआत में ही रिलायंस ग्रुप का बोर्ड लगा दिखे तो ये चिंता दूर हो जाती है कि आप जिस फिल्म को देखने जा रहे हैं, वो बेहद तंगहाली में बनाई गई होगी, इसलिए अच्छी हो या बुरी, निर्देशक के साथ सहानुभूति ज़रूर रखी जानी चाहिए। विनय शुक्ला कोई नए डायरेक्टर नहीं हैं...अवार्ड विनिंग फिल्में बनाना उनका मकसद रहा है और इस लिहाज से ये फिल्म भी सफल करार दी जानी चाहिए। ये अलग बात है कि मेरे साथ हॉल में फिल्म देखने वाले सिर्फ चार लोग ही और थे। चार से याद आया, फिल्म का नाम चार कहानियां भी रखा जा सकता था, क्योंकि इसमें क्रेडिट्स आने तक चार अलग-अलग मगर एक जैसी कहानियां चलती हैं।

मुंबई में संघर्षरत एक फिल्म राइटर अपनी गर्लफ्रेंड के संपर्क से एक प्रोड्यूसर से मिलता है और उसे अपनी वो कहानी सुनाता है, जिस पर दो सालों से वो फिल्म बनाने की सोच रहा है....फिल्म में संघर्ष आगे बढ़ना है इसलिए कहानी रिजेक्ट हो जाती है...खैर, वो दूसरी कहानी ढूंढता है, जिसमें प्रोड्यूसर के मनमाफिक बिकाऊ सेक्स भी होता है। इस दूसरी कहानी में चार कहानियां हैं, कुछ औरतें हैं, मर्द हैं और शरीर की हेराफेरी है। जो आदर्शवादी कहानी रिजेक्ट होती है, वो क्या थी, इसका पता ग्यारह मुल्कों की पुलिस भी नहीं लगा सकती। बस, वो अज्ञात कहानी हज़ारों-लाखों फिल्म लेखकों के ज़ख्मों को सहलाने का काम कर जाती है, जो बिहार से लेकर बंबई (वाया दिल्ली) तक एकाध स्क्रिप्ट लिए गुलज़ार बनने का ख्वाब पाले बैठे हुए हैं।

फिल्म में पंचतंत्र से लेकर इटालियन लोककथाओं तक के तमाम रेफरेंसेज़ हैं। यही फिल्म की जान भी हैं। कहानी आगे बढ़ाने का तरीका कहीं से कमज़ोर नहीं है। कहानी के भीतर कई कहानियां चलती हैं और इस तरह से ग्रिप बना रहता है। बेहद खूबसूरत लोकेशन्स और कसे हुए संवादों के बीच कहानी कहीं छूटती नहीं और नारी-विमर्श का सबसे प्रचलित रूप भी ठीकठाक आगे बढ़ता है। जैसा कि विनय कई जगह दावा करते हैं कि ये वुमैनहुड (नारीत्व) का उत्सव है, लगभग सही ही लगती है। मगर, ये उत्सव बौद्धिकता की आड़ में मसाला फिल्म ही बनकर रह जाता है। पंचतंत्र से लेकर राजा-रजवाड़ों और फिर मुंबई की अफरातफरी वाली ज़िंदगी में लड़की के लिए शरीर का जुगाड़ कभी मुश्किल नहीं रहा। ये फिल्म शक, अफवाहों और साज़िशों के बीच हर बार यही बात साबित करती दिखती है। एक कमज़ोर दिल का दर्शक अगर ढंग से ये फिल्म देखना शुरू करें तो बगल में बैठी प्रेमिका उसे मांस के टुकड़ों वाली लड़की से ज़्यादा कुछ नहीं लगेगी, ‘वेश्या’ तक लग सकती है। हर औरत इतनी चालू, चालबाज़ और चालाक लगने लगे कि भोलाभाला दर्शक मान बैठे कि सिर्फ शरीर के उत्सव का जुगाड़ ढूंढने में ही औरत कितनी ओवरस्मार्ट हो सकती है। कम से कम नारी की आज़ादी का उत्सव मनाने का ये मकसद तो नहीं ही होना चाहिए कि हर मर्द को मानसिक रूप से इतना बीमार दिखाया जाए कि उसे अपने होने पर शर्म आने लगे। विभूति नारायण राय को फिल्म दिखाकर नए साल में पूछा जाना चाहिए कि नारी को लेकर उनका संकल्प कुछ बदला कि नहीं।

आखिर तक आते-आते फिल्म थोड़ी लंबी और उबाऊ लगने लगती है। आखिरी कहानी तो बेहद चलताऊ किस्म की है, जिसमें एक अधेड़ पति होटल बुक करता है और लड़की की डिमांड करता है तो उसकी बीवी ही परोस दी जाती है। यहां तक की मजबूर औरतें तो हम पहले भी देख चुके हैं मगर कॉमिक ट्विस्ट ये है कि बीवी एक पेड सेक्स वर्कर होती है और रूमसर्विस वाले लड़के पर झल्लाती है कि साले, क्लाइंट देखने से पहले दिमाग तो लगा लिया कर। बोमन इरानी और कोंकणा सेन के नाम पर ये सीन बिना उल्टी किए हजम कर सकते हैं, वरना सड़क पर बीसियों रसीली कहानियों वाली किताबें पड़ी मिलती हैं।

गाने और एक्टिंग के मामले में पूरी फिल्म में कोई दिक्कत नज़र नहीं आती। जावेद अख्तर आखिर तक अपने लिए गुजाइश निकाल जाते हैं। ये हिंदुस्तानी गीत ही हैं जो तमाम तरह के नकल और इंस्पिरेशन से बनी हुई फिल्मों के दौर में देसी और ओरिजिनल लगते हैं। मंजे हुए एक्टर्स के दम पर ही फिल्म वैसे दृश्य भी आसानी से निकाल ले जाती है जो किसी दबंग या तीसमारखां टाइप निर्देशक के हाथ में पड़कर सचित्र सेक्स कहानी बन सकती थी।

अभिनेत्री इला अरुण यहां भी हैं...उनकी आवाज में गाए गीत नारी मुक्ति के बिंदास स्लोगन की तरह लगते है। फिल्म में इला अरुण के संवाद और गीत से न जाने क्यों खलनायक का वो गीत चोली के पीछे क्या है...याद हो आता है जब माधुरी दीक्षित पहली बार लेडी महानायिका बनकर उभरी थी और सचमुच मर्दप्रधान बॉलीवुड में नारी उत्सव मनाया जाना चाहिए था। खैर, वो उत्सव तो गाने को लेकर मची तोड़फोड़ में भंग हो गया।

बतौर फिल्मकार, विनय शुक्ला का चिंतन सीरियस है। फिल्म में कोई आमिर, शाहरूख या सलमान तक होते तो शर्तिया लाखों दर्शक टूट पड़ते क्योंकि उनके लिए बहुत कुछ तीखा है पूरी फिल्म में। इस तरह कह सकते हैं कि ये अपने दौर से काफी आगे की फिल्म है। ऐसी फिल्में बार-बार बनाई जानी चाहिए कि फैमिली ड्रामा के नाम पर फूहड़ फिल्में देखने का आदी हो चुका हिंदुस्तानी दर्शक अपने भीतर छिपे एक बुद्धिमान दिमाग को ढूंढ निकाले। हिंदुस्तान में मल्टीप्लेक्स तो आ गया है, मगर उस माइंडसेट वाले दर्शक अब भी आने बाक़ी हैं। कम से कम पूरी फैमिली के साथ तो नहीं ही आ सकते। अभी तक तो मल्टीप्लेक्स का दर्शक उसी घिसे-पिटे मर्दाना डायलॉग्स पर तालियां पीटता है, जब बड़े पर्दे का सुपरस्टार और छोटे पर्दे का शेफ ये कहता हुआ ‘तीसमारखां’ बनता है कि उसे पकड़ना और तवायफ की लुटती हुई इज़्ज़त बचाना नामुमकिन है।

निखिल आनंद गिरि
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