गुरुवार, 7 जनवरी 2010

मुसाफिर....

जीवन तब भी रुका नही था

जब तुमको दो व्याकुल आंखें
तकती थीं दिन-रात कभी
और तुम्हारी एक हंसी पे
सदके थे जज्बात सभी….
वक़्त क़ैद था मुट्ठी में जब……


फिर हम दोनो साथ टहलते,
बिन, मतलब के इधर-उधर,
दर्द तुम्हारी फूंक से गायब,
बातें तुम्हारी, जादू-मंतर..
वक़्त क़ैद था मुट्ठी में जब

और अचानक वो लम्हा जब,
तुमको छू लेने की जिद में
मैंने अपनी मुट्ठी खोली,
हाथ बढ़ाकर तुम तक पंहुचा,
वक़्त क़ैद से निकल चुका था

फिर कुछ लम्हे तनहा-तनहा,
फिर कुछ रातें ख़त के सहारे,
गम खा-खा कर, आंसू पीकर,
फिर कुछ सदियाँ चांद किनारे
वक़्त क़ैद से निकल चुका था….

दुनिया की सड़कों पर चलकर,
सच के चहरे हर बत्ती पर,
रोज़ बदलते, मैं क्या करता,
एक सफ़र था जीवन तुम बिन,
वक़्त का सच अब बदल चुक्का था….

और मेरी दो व्याकुल आंखें
जिनमे अब भी बसी हुई है च्वी तुम्हारी,
थोड़ी-सी गीली होकर मेरे चहरे पर,
झलक तुम्हारी दे जति हैं
इसी भरोसे….
जीवन अब भी रुका नही है,

इसी भरोसे,
अभी मुसाफिर थका नही है…….

निखिल आनंद गिरि

2 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया कविता है, हसी से गम तक का सफर..बहुत खूबसूरती से दिखाया है, कभी गम से खुशी का सफर भी दिखाइए.

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