हम पूर्णविराम के
बाद अपनी बात शुरू करेंगे
चुटकुलों में कहेंगे
सबसे गंभीर बातें,
एक कटिंग चाय के सहारे
हमें सुनने का हुनर ख़रीद
लीजिए कहीं से।
हम कहेंगे ‘कद्दू’
तो आप समझ लीजिएगा
यह भी व्यवस्था के लिए एक
लोकतांत्रिक मुहावरा है।
हम कहेंगे सियारों की
राजधानी है कहीं
जंगल से बहुत दूर।
जहां लोग हेडफोन लगाते हैं,
मूंछें मुंडवाते हैं
और हुआं-हुआं करते हैं।
सिगरेट के धुएं में उड़ती
फिक्र पढ़िए हमारी,
हमारी प्रेमिकाओं से बातें
कीजिए थोड़ी देर
अंग्रेज़ी को हिंदी की तरह
समझिए।
सत्ता सिर्फ आपको नहीं
कचोटती,
मेट्रो की पीली लाइन के उस
तरफ अनुशासित खड़ी हैं कुछ गालियां
उन्हें दरवाज़े के भीतर लाद
नहीं पाए हम।
आपको ऐतराज़ है कि हमारे
सपने रंगीन हैं,
मगर सच हो जाते हैं यूं भी
सपने कभी।
ये मज़ाक में ही कही थी
सपने वाली बात
कि संविधान की किताब को
कुतरने लगे हैं चूहे
और खालीपन आ गया है कहीं।
जहां-जहां खालीपन है,
वहां संभावना थी कभी
संभावनाएं होती हैं खालीपन
में भी,
देखिए कौन कर रहा हत्याएं
संभावनाओं की।
(यह कविता 'आउटलुक' के फरवरी 2014 अंक में प्रकाशित हुई है)
निखिल आनंद गिरि