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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2015

अच्छे दिनों की कविता

गांधी सिर्फ एक नाम नहीं थे,
जिनके नाम पर तीन बंदर हुए
या बहुत-से आंदोलन

एक दौर थे जिसमे हुमारे दादा हुए

दादाजी कहते रहे हमेशा
'गांधीजी ने ये किया वो किया
उनकी मौत पर नहीं जला चूल्हा पूरे गाँव में
कोई औरत भेस बदलकर बचाती रही भगत सिंह को'

या फिर पिताजी को ही ले लीजिये
वो सुनाते हैं जब अपने दौर के बारे में
तो कई अच्छी बातें हैं बताने को
जैसे जब बारिश होती थी हुमचकर
उनके समय में
तो हेलीकाप्टर से खाना आता था उनके लिए
महामारी में मरते थे बच्चे
तो सरकार एक भरोसे का नाम थी।

जैसे नेहरू के भाषणों में पुलिस नहीं होती थी
या फिर इन्दिरा गांधी हाथी पर सवार होकर चलती थीं कभी कभी
घरों में चोरियाँ कम थीं
या फिर किसी ने बकरी चुरा भी ली
तो दो दिन दूह कर
लौटा आता था बकरी ।

सबके अपने अपने दौर थे
जैसे एक हमारा भी
जिस पर लिखी जा सकती है एक मुकम्मल कविता
जैसे जब जन्म हुआ मेरा
तो पुलिस वाले
दौड़ा-दौड़ा कर मारते थे सिखों को
और इन्दिरा गांधी की हत्या उनके घर में ही हुई
जैसा कि बी बी सी ने बताया

जब किताबों का दौर आया तो
धनंजय चटर्जी को सरेआम फांसी हुई
एक स्कूली लड़की से बलात्कार के जुर्म में
गांधी हमारे दौर की किताबों में नहीं
नोटों पर थे
और औरतें मदद करना तो दूर,
मदद मांग भी नहीं सकती किसी मर्द से।

इस तरह जितना बड़े हुए
जोड़ी जा सकती है एक और बुरे दिन की तारीख
कहीं बारिश नहीं होती ऐसी
कि डूबकर लिखी जा सके कविता
जैसे टैगोर लिखते रहे बारिश के दिनों में।

जितना बदलना था बदल चुका समय
अब सिर्फ़ होता है क्रूर
जिसमें परछाईं भी भरोसे के लायक नहीं।

निखिल आनंद गिरि

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं..

 भोले सपनों वाली मछलियां...

किसी जलपरी की तरह,

चीरा बनाती हुई जगह ढूंढती हैं बस में....

और बस जलाशय तो नहीं...

 
कान में ज़बदरस्ती ठूंसे गए तार..

जैसे किसी और ग्रह में प्रवेश...

जहां ताड़ती हैं अनजान निगाहें,

लपकते हैं दो हाथ वाले ऑक्टोपस

पीठ के बजाय सीने पर लटकाए हुए बैग...

कंगारू की तरह....

 
वो किसी न किसी की प्रेमिका हैं

जिन्हें सिर्फ पीठ पर उबटन लगाना है शादी में..

अगर नहीं हो सकी मनचाही शादी...

उन्हें रखने हैं अपनी सात पीढ़ियों के नाम

सिर्फ ‘क’ से

बिना किसी ज्योतिषी से पूछे

उऩ्हें उतरना है किसी सरकारी कॉलेज के गेट पर,

कॉलेज की दीवारों पर लिखे हैं इश्तेहार

‘दो हफ्ते की खांसी टीबी हो सकती है’

‘शादी में असफल यहां फोन करें...’

शादी के लिए सबसे अच्छी फोटो नहीं,

सबसे अच्छे दिल लेकर आइए...

ऐसा कहीं नहीं लिखा दीवारों पर

 
बस निहारती है उनकी पीठ...

पीठ बूढ़ी नहीं होती...

स्तन बूढे होते हैं,

योनि नहीं होती बूढी....

प्राथनाएं होती हैं बूढ़ी...

और मर जाती हैं बस से उतरते ही..

निखिल आनंद गिरि

(पाखी के दिसंबर 2013 अंक में प्रकाशित)

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

विकास के रंगीन चुटकुले

सुबह के जिस अख़बार में चमक रहा था
आधे पेज के सरकारी विकास का विज्ञापन
वही अख़बार देखकर पूछा लड़की ने
ये सामूहिक बलात्कार क्या होता है?
पिता ने छठी मंज़िल से कूदकर खुदकुशी कर ली
लड़की की उम्र सात साल थी। 
उस शहर का नाम कुछ भी रख लीजिए
जहां एक दिन सब सरकारी अस्पतालों में,
निकाले गए थे मरीज़ों के गर्भाशय
और फिर बेच दिये थे सरकारी बाबुओं ने।
गर्भाशय की ख़ूबसूरत तस्वीर छापी थी अख़बार ने,
और अख़बार सबसे ज़्यादा बिका था।
हमारी लाशो में मसाले भरकर,
साबुत रखी जाती हैं लाशें
ख़ूब रंगीन नज़र आते हैं अख़बार
बौराने लगता है माथा
इतनी आती है सड़ांध
मगर शुक्र है टिशु पेपर का ज़माना है।
जिस दारोगा ने एक औरत को
चौकीदार बनाने का लालच देकर
थाने में ही सामूहिक बलात्कार किया
और फरार हो गया
उसकी जगह किसकी हाथों में डाली गई हथकड़ी?
जिस चौराहे पर एक लड़की का जुर्म बस इतना था
कि वो अकेली चल रही थी रात में
बेरहमी से मसली गई,
कुचली गई और नंगी कर दी गई 
किसके छपे पोस्टर अपराधियों के नाम पर,
एक चेहरा आपका तो नहीं?
व्यवस्था अगर नहीं हो सकती बेहतर
तो बेहतर है बदल दी जाए व्यवस्था
जहां-जहां नहीं पहुंच पाती पुलिस
और बलात्कार आराम से होते हैं
उन शरीफ मोहल्लों में
लाउडस्पीकर लगाकर पहले बकी जाएं गालियां
और फिर वंदे मातरम
और ये भी कि,
औरत की गोलाइयों के बाहर भी दुनिया गोल है।

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

रात में सियारों की हुंआ-हुंआ की तरह
सुनाई देती है मेट्रो की हल्की आवाज़
पेड़-पौधों की तरह दिखते हैं
दूर-दूर तक वीरान मकान...
शिकार के लिए ढूंढने नहीं पड़ते शिकार
बाइज्ज़त होम डिलीवरी की भी व्यवस्था है...
और मुझे ये सच कहने पर चालान मत कीजिए
कि हम एक जंगल को शहर समझने लगे हैं....
ऐसा नहीं कि पहली बार लिखा गया हो ये सब
मगर ये हर भाषा में बार-बार बताया जाना ज़रूरी है

जैसे बार-बार बनाई जानी होती है दाढ़ी
याद किए जाने होते हैं आखिरी विलाप
छूने होते हैं पांव, बेमन से....
घर लौटना होता है नियम और शर्तों के बिना
बीमार होने पर वही कड़वी दवाईयां बार-बार
जैसे बार-बार बदलते बेटों के लिए
नहीं बदलते मां के व्रत
और सुनिए इस शहर के चरित्र के खिलाफ
आपको दुर्लभ दिखने के लिए रोना हो बार-बार...
तो ठूंठ पेड़ बचाकर रखिए दो-चार...
किसी से लिपटकर रोने की सख्त मनाही है...

इस शहर में छपने वाले अमीर अखबारों के मुताबिक
निहायती ग़रीब, गंदे और बेरोज़गार गांवों से...
वेटिंग की टिकट लेने से पहले मुसाफिरों को... 
ख़रीदने होते हैं शहर के सम्मान में
अंग्रेज़ी के उपन्यास...
गोरा होने की क्रीम..
सूटकेस में तह लगे कपड़े...
और मीडियम साइज़ के जॉकी....
हालांकि लंगोट के खिलाफ नहीं है ये शहर..
और सभ्य साबित करने के लिए
अभी शुरु नहीं हुआ भीतर तक झांकने का चलन...

यहां हर दुकान में सौ रुपये की किताब मिलती है
जिसमें लिखे हैं सभ्य दिखने के सौ तरीके
जैसे सभ्य लोग सीटियां नहीं बजाते
या फिर उनके घरों में बुझ जाती हैं लाइट
दस बजते-बजते...
या जैसे मोहल्ले की पुरानी औरतें कहती हैं
अच्छे या सभ्य नहीं होते 47 वाले पंजाबी..

बात-बात पर आंदोलन के मूड में आ जाता है जो शहर...
हमारे उसी शहर में थूकने की आज़ादी है कहीं भी...
गालियां बकना नाश्ते से भी ज़रूरी है हर रोज़...
और लड़कियों के लिए यहां भी दुपट्टा डालना ज़रूरी है..
जहां न बिजली जाती है कभी और न डर।

जिनकी राजधानी होगी वो जानें..
किसी दिन तुम इस शहर आओ
और कह दो कि मुझे सफाई पसंद है..
तो पूरे होशोहवास में सच कहता हूं,
डाल आऊंगा...कूड़ेदान में सारा शहर...

निखिल आऩंद गिरि

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