रविवार, 29 दिसंबर 2024
आने लगी हैं इन दिनों हिचकियां बहुत
शुक्रवार, 6 सितंबर 2024
मैं लौटता हूं
प्रिय दुनिया,
बहुत दिनों तक भुलाए रखने का शुक्रिया!
मैं इतने दिन कहां रहा
कैसे बचा रहा
यह बताना ज़रूरी नहीं
मगर सब कुछ बचाते बचाते
खुद न बचने का डर वापस लाया है।
इस बीच एक लंबी रात थी
जो शायद अब भी है
मगर अंधेरे में दिखने लग जाता है
लंबी रातों में।
एक बार उदासी कुछ यूं थी कि
मैंने किसी गिलास को पकड़ने के बजाय
एक औरत की गर्दन पकड़ ली
बहुत देर बाद मालूम हुआ
अंधेरा कितना खतरनाक,
कितना अंधेरा हो सकता है।
मुझे अंधेरे में कई हाथ दिखते हैं
कई गर्दनें दिखती हैं
संभव है ज्यादातर औरतों की गर्दनें हों
मुझे लगता है कि जब देखूंगा
उजाले में उन हाथों को
क्या उनके हाथ में उजाले की गर्दन भी होगी?
इन भुलाए गए बहुत दिनों में
मैं एक बंद कमरे को दुनिया समझता रहा
ऐसा कई लोग करते हैं अपने उदास दिनों में
मगर कहने की हिम्मत नहीं करते।
इसी बीच कुछ प्यार करने का मन हुआ
तो मैंने अपनी चीख से प्यार किया
उस लड़की का चेहरा भी दिमाग में आया
जिसे कभी किसी से प्यार की उम्मीद नहीं रही।
मैं कई बार लड़ा अपने डर से
दवाईयों से, घर से
कई बार तो डॉक्टर से।
तो मैं कहना चाहता हूं जो
सिर्फ इसी भाषा में संभव है
कि दुनिया में कुछ भी इतना प्यारा नहीं
जितना भुलाए जाने का डर।
मैं लौटता हूं
अपने तमाम डर के साथ
कविता की तरह नहीं
बरसों बाद लौटी चीख की तरह।
निखिल आनंद गिरि
शुक्रवार, 9 अगस्त 2024
चालीस की सड़क
बुधवार, 31 जुलाई 2024
रिंगटोन
शुक्रवार, 23 जून 2023
आधा-अधूरा
अर्थ नहीं मिला लेकिन
तुमने जितना लिखा
उतना ही पढ़ा गया मैं
आधा-अधूरा
निखिल आनंद गिरि
मंगलवार, 11 मई 2021
गिरते हुए
शुक्रवार, 20 जनवरी 2017
कौन छिपा है?
निखिल आनंद गिरि
('तद्भव' पत्रिका में प्रकाशित)
रविवार, 8 जनवरी 2017
जितना संभव था
हिंदी मैगज़ीन 'तद्भव' में प्रकाशित)
निखिल आनंद गिरि
गुरुवार, 23 जून 2016
घर
मगर इस तरह ही मनाना होगा
जैसे घर का कोई ज़रूरी काम हो
जैसे घरवालों के साथ
किसी सत्यनारायण कथा में जाने को लेकर खुश हूं
खेत या नदी या समंदर में नहाना
एक नौकरी में आने के बाद खामखयाली है।
दुनिया में होने का मतलब
घर में होना होता है।
आपका खाना, पहनना, सुबह से शाम होना
घर के रिमोट से चलता है।
दिल्ली के मुंह में गाली
कश्मीर में होती है पुलिस
बुरी फिल्मों में मां
अलां के बाद फलां।
नहीं मिल पाती घर में रोने की एक अदद जगह।
भ्रम को इस तरह भी कहा जा सकता है
जैसे आज मेरी प्रेमिका का जन्मदिन है
जो जीवन का हिस्सा है
मगर मेरे घर का हिस्सा नहीं है।
रविवार, 9 अगस्त 2015
हो ना..
गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014
दुनिया अब रात-रात लगती है..
आपको दाल-भात लगती है।
हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे,
अब तो बीती-सी बात लगती है।
एक ही रात लुट गया सब कुछ,,
दुनिया अब रात-रात लगती है।
आप कहते हैं डेमोक्रेसी है,
हमको चमचों की जात लगती है।
निखिल आनंद गिरि
शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013
मांएं डरने के लिए जीती हैं..
गाया जा सके उदास रातों में...
हमारे नसीब में नहीं थे सितारे,
जिन्हें तोड़कर टांक सकें स्याह रातों में
उम्र बढ़नी थी, कोई रास्ता नहीं था....
वरना उस एक मोड़ पर रोक लेते खुद को,
कि जहां से ज़िंदगी सबसे उबाऊ और मजबूर रास्ते लेती है..
पूछो अपनी मांओं से,
पूछो पिताओं से....
कि जब कोई रास्ता नहीं रहा होगा....
तो मजबूरी में करनी पड़ी होगी शादी...
और फिर शाकाहारी पत्नियां मांजती रही होंगी बर्तन,
और परोसती रही होंगी मांस अपने पतियों को...
और फिर बेटे हुए होंगे,
बंटी होंगी मिलावटी मिठाईयां..
और बेटियां होने पर सास ने बकी होगी गालियां...
पत्नियां खून का घूंट पीकर रह जाती होंगी...
और पति चश्मा इधर-उधर करते हुए...
पतिव्रता पत्नियां फ़रेब के किस्सों से ज़्यादा कुछ भी नहीं...
बड़े होते बेटों से रहती होगी उम्मीद,
कि उनकी एक हुंकार से सिहर उठेगी दुनिया,
जबकि असल में वो इतना डरपोक थे कि
कूकर की सीटी से भी लगता रहा डर,
कहीं फट न पड़े टाइम बम की तरह...
दीवार पर छिपकली आने भर से..
मूत देते थे सुकुमार लाडले...
और समझिए ऐसे दोगले समय में,
गूंथी हुई चोटियां हथेली में लेकर,
कैसे किया होगा हमने प्यार...
और समझो कितनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी होगी,
ये कहने के लिए, बिन पिए...
कि तुम्हारी नंगी पीठ पर एक बार फिराकर उंगलियां....
लिखना चाहता हूं अपना नाम
हालांकि एक मर्द है मेरे भीतर,
जो कर सकता है हर किसी से नफरत..
गुस्से में मां को भी माफ नहीं करता
हालांकि ये भी सच है कि...
मांएं डरने के लिए ही जीती हैं,
पहले मजबूर पिताओं से,
फिर मर्द होते बेटों से..
निखिल आनंद गिरि
(पाखी के दिसंबर 2013 अंक मेंप्रकाशित)
रविवार, 25 अगस्त 2013
कुछ है, जो दिखता नहीं..
जब ठठाकर हंस देती है सारी दुनिया,
बिना किसी बात पर..
अचानक कंधे पर बैठ जाती है गौरेया
कहीं किसी अंतरिक्ष से आकर..
चोंच में दबाकर सारा दुख
उड़ जाती है फुर्र..
फिर न दिखती है,
न मिलती है कहीं..
मगर होती है
सांस-दर-सांस
प्रेम की तरह..
शुक्रवार, 9 अगस्त 2013
जो बच पाता है..
धरती ओढ़ लेती है आसमान की चादर..
जाग रहे होते हैं तारे,
बतिया रहे होते हैं चुपचाप
मौन के सहारे |
चिड़िया ओढ़ लेती है पंख
और बतियाती है सूनेपन के साथ..
समंदर ओढ़ लेता है गहराई,
और बतियाता है शून्य से..
दीवारें ओढ लेती हैं अकेलापन,
और बतियाती हैं खालीपन से..
एक उम्र ओढ लेती है चिड़चिड़ापन..
और बतियाती है पुरानी आवाज़ों से
अथाह वीरानों में |
रिश्ते ओढ लेते हैं चेहरे,
और बतियाते हैं तारों की भाषा में..
कभी अचानक भीड़ बन जाते हैं चेहरे,
और फूलने लगती है मौन की सांसें..
रिश्ते उतारकर भागने लगते हैं लोग..
क्या बचता है उन रिश्तों के बीच
जहां होता है सिर्फ निर्वात..
जहां ज़िंदा आवाज़ें गुज़र नहीं पातीं,
और सड़ांध की तरह फैलता जाता है मौन..
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 20 जनवरी 2013
'अजी, आंख में पड़ गया था कुछ..'
दो आंखें..
आंसू दो झरते हैं..
दो आंखों से..
दो आंखो की पीड़ा एक..
दो दिशाओं में तकती हैं..
दो आंखें..
सबसे बुरा रोना वह
शौचालयों की कमी में,
वो छिप कर बैठ जाती हैं
नोकिया या वोडाफोन के इश्तेहारों तले,
कोई रेलगाड़ी जब गुज़रती है हहाती हुई,
वो कपड़े ठीक करती हैं
खड़ी हो जाती हैं..
इश्तेहार बन कर रह जाती हैं..
खिड़कियों से ताड़ती कई निगाहों के लिए..
मैं नींद की गोली लेता रहा
ख़ुद से बातें करता रहा
सपनों के साथ वक्त बिताने को
बीमारी अच्छा बहाना थी
गदहे
राजनीति के युवराज वही
जो दो नंबर के कर सके काम
वही लंबी रेस का घोड़ा
बाक़ी सब गदहे
भारत भ्रष्ट महान !
मोमबत्ती
पिघलने से पहले तक
जितना जलती है मोमबत्ती
रोशनी की उम्मीद बढ़ाती है
मोमबत्ती कोई चुनाव चिह्न नहीं
इसीलिए उम्मीद का मतलब धोखा नहीं
उम्मीद ही समझा जाए
आम आदमी
एक नई पार्टी मेंबर बना रही है,
लोगों को नई टोपी पहना रही है
टोपी पर लिखा होता है 'आम आदमी'
पांच रुपये की रसीद कटाकर
आम आदमी नई टोपी पहन रहा है...
निखिल आनंद गिरि
बुधवार, 29 अगस्त 2012
उसने मुझे नज़र से था कुछ यूं गिरा दिया..
किसने जगा दिया मुझे हसीन ख़्वाब से
नाज़ुकमिज़ाज दिल की तसल्ली के वास्ते
हंसकर जिये हैं उसने सभी दिन अजाब-से
वो सुबह अब न आएगी बहरी जो हो गई
यूं उठ रहा है शोर, नए इनक़लाब से
उसने मुझे नज़र से था कुछ यूं गिरा दिया..
जैसे ज़मीं पे कोई गिरे माहताब से..
मैं उससे बरसों बाद भी था बे-तरह मिला
वो मुझसे खुल रहा था अगरचे हिसाब से
झोंके ने एक रेत के सब धुंधला कर दिया
नज़रों में इक उम्मीद बची थी सराब से
इंसानियत का अब कोई मतलब नहीं रहा
मैने पढ़ी थी बात ये सच की किताब से..
निखिल आनंद गिरि
शुक्रवार, 29 जून 2012
सच भी सुनिए कभी...
धूल-मिट्टी और ख़ून के रंग का पसीना
सब आपकी देन है, सब कुछ....
हमें कोई ऐतराज़ नहीं इस बात पर
कि बच्चों के स्कूल में आप ही आए
हर बार सम्मानित अतिथि बनकर..
मासूम तालियों के सब तिलिस्म आपके...
और हमारे लिए सब सूनापन,
अथाह शोर और घमासान के बीच...
हमें तेल की पहचान तो है,
मगर मालिश करने का तरीका नहीं मालूम
इसीलिए फिसल जाता है नसीब...
हमारे रहनुमाओं की कोठियों के आगे बड़े-बड़े दरवाज़े
लोहे की मज़बूत दीवारें ऊंची-ऊंची..
जैसे सबसे ज़्यादा डर आम आदमी से हो....
कभी जाइए उन्हें देखने की हसरत लिए
हाथ में पिस्तौल लेकर संतरी करेंगे स्वागत
लोकतंत्र किसी बंदूक की नली पर जमी धूल की तरह है...
घर-गली के तमाम चेहरे...
अख़बार वाले का नाम और गांव का पिन कोड
भूल जाना सब कुछ
नियम है शहर का..
जिन पेड़ों को आपने रोपे हैं अपने गमले में
वो सिर्फ छुईमुई हैं अफसोस...
जो पेड़ बच गए हैं शहर की सांस के वास्ते...
उनके नाम तक नहीं पता किसी को...
और सुनिए, जब आपको नागरिक सम्मान देने के लिए
पुकारा गया था नाम ज़ोर-ज़ोर से...
तब आप भी टीवी देखने में व्यस्त थे
और ये ख़बर आई थी कि...
छह महीने भूख और दुख से बेहाल...
एक कमरे में मर गईं दो अकेली बहनें
सच कहिए वो आपका मोहल्ला नहीं था?
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 27 मई 2012
वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...
मैंने सब कटघरे सजाए हैं...
कोई तो आए, सज़ा दे मुझको...
लोग कहते हैं अजब पूनम है...
चांद सूजा हुआ-सा लगता है...
तुमने फिर नींद की गोली ली क्या?
मैंने दुनिया से कुछ कहा भी नहीं
जाने क्या उसने सुना, रुठ गया...
वो मेरी चुप्पियां भी सुनता था...
देखो ना रिस रहा है आंखो से
एक रिश्ता कोई हौले-हौले
कोई 'चश्मा' भी नहीं आखों में !!
मैंने हर खिड़की खुली रखी है..
कोई परवाज़ भरे, लौट आए...
कल से हड़ताल है उड़ानों की...
मैं बुरा हूं तो मैं बुरा ही सही
आप अच्छे हैं, मगर भूल गए...
हमने बदले थे आईने कभी...
सारे आंसू नए, मुस्कान नई
ज़िंदगी में नया-नया सब कुछ..
बस कि गुम हैं पुराने कंधे...
होंठ सिलकर ज़बान की तह में
मैंने एक सच छिपाए रखा था
रात उसने ली आखिरी सांसे...
एक दिन ऐसे टूट कर रोये,
गुमशुदा हो गया ख़ुदा मेरा...
हम भी आंखों में ख़ुदा रखते थे...
निखिल आनंद गिरि
बुधवार, 28 दिसंबर 2011
मैं जी रहा हूं कि मर गया...
वो कई दिनों से बंद है...
मेरे लम्हे हो गए गुमशुदा
किसी ख़ास वक्त में क़ैद हूं...
हुए दिन अचानक लापता...
यहां कई दिनों से रात है....
मुझे आइने ने कल कहा
तुम्हें क्या हुआ, क्या बात है
मुझे अब भी चेहरा याद है,
जो पत्थरों में बदल गया...
कोई था जो मेरी रुह से,
बिन कहे ही फिसल गया
ये उदासियां, बेचारग़ी
मेरे साथ हैं हर मोड़ पर,
आगे खड़ी हैं रौनकें,
तू ही बता मैं क्या करूं..
मैं रो रहा हूं आजकल
सब फिज़ाएं नम-सी हैं
जीते हैं कि इक रस्म है...
सांसे तो हैं, पर कम-सी हैं...
मैं यक़ीं से कहता हूं तू ही था
जो सामने से गुज़र गया
कोई ये बता दे देखकर,
मैं जी रहा हूं कि मर गया
निखिल आनंद गिरि
रविवार, 18 दिसंबर 2011
याद आता है फिर वही देखो...
रोज़ करता है खुदकुशी देखो
यूं तो कई आसमान हैं उसके,
खो गई है मगर ज़मीं देखो
यूं भी क्या ख़ाक देखें दुनिया को
जो ज़माना कहे, वही देखो
कल कोई आबरू लुटी फिर से,
आज ख़बरों में सनसनी देखो
जाते-जाते वो छू गया मुझको
दे गया अनकही खुशी देखो
सबके कहने पे जिये जाता है
कितना बेबस है आदमी देखो
बारहा जिसको भूलना था 'निखिल'
याद आता है फिर वही देखो...
ये पोस्ट कुछ ख़ास है
डायपर
नींद न आने की कई वजहें हो सकती हैं किसी प्रिय का वियोग बुढ़ापे का कोई रोग या आदतन नहीं सोने वाले लोग नवजात बच्चों के बारे में सोचिए मां न भ...
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छ ठ के मौके पर बिहार के समस्तीपुर से दिल्ली लौटते वक्त इस बार जयपुर वाली ट्रेन में रिज़र्वेशन मिली जो दिल्ली होकर गुज़रती है। मालूम पड़...