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गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016

हम सब ‘मिर्ज़्या’ हैं, जिनके पास बिना पिस्तौल वाला एक बचपन है

पंजाब की मिट्टी में सैंकड़ों प्रेम कहानियां दफ्न हैं। मिर्ज़ा-साहिबा की प्रेम कहानी उन्हीं में से एक है। फिल्म में पुरानी लोककथा का इक्कीसवीं सदी में रुपांतर करने की कोशिश की गई है। घुड़सवार की जगह घोड़े की देखभाल करने वाला प्रेमी है। तरकश में तीर की जगह पिस्टल की गोलियां हैं। लड़का-लड़की हैं, बचपन का जवान हो चुका प्रेम है जिसमें घोड़ों के तबेले में बहुत सारे चुम्मे हैं और एक विलेन लड़की का बाप।
मुझे ऐसा क्यूं लगने लगा है कि आजकल जो भी फिल्म देखता हूं उसके बारे में यही राय बनती है कि उसे किसी और दौर में बनना था। मुझे ऐसा क्यूं लगता है कि मिर्ज़ाकी लोककथा का सहारा लिए बगैर भी फिल्म बनती तो ज़्यादा चल पाती। ऐसा इसीलिए क्योंकि हॉल में जब असलीमिर्ज़ा की कहानी का ट्रांज़िशन चलता है तो हॉल के मुट्ठी भर दर्शक जम्हाई लेते हैं क्योंकि उन्हें सिर्फ लैला-मजनूं पता है। फिल्म में नई-पुरानी कहानियों का मिक्स एक बढ़िया प्रयोग है मगर हिंदुस्तान में हिट होने के लिए इसके अलावा भी बहुत कुछ होना चाहिए था।
हिंदी साहित्य की शुरुआती प्रेम कहानियां उसने कहा थाकी तर्ज़ पर लिखी गईं। जिसमें कच्ची उम्र का लड़का लड़की को ठीक से देखकर ही मीठे प्यार से भर उठता है। आज का बच्चा जो गोवर्धन पब्लिक स्कूल जाता है, अपनी सुचित्रासे इतना प्यार करता है कि उसे छड़ी से सज़ा देने वाले टीचर को गोली मार देता है। ये प्रेम कहानियों में एक बड़ी छलांग है। इस शुरुआती मोड़ पर फिल्म अचानक आपको बांध लेती है। लेकिन फिर मिर्ज़्या एक कभी न ख़त्म होने वाली ऐसी प्रेम कहानी के तौर पर आगे चलती है जिसका अंजाम सौ में से निन्यान्बे दर्शकों को पता होता है।
लोककथा का मुखौटा पहनकर बनी 2016 की इस प्रेम कहानी में लोककथा कहीं खर्राटे भर रही होती है। सब कुछ आज के ज़माने का है। टीचर को गोली मारकर फरार हुआ लड़का जब दोबारा लड़की से मिलता है तो उसे किसी और की बाहों में झूलता हुआ देखता है। अपना प्यार भुलाने के लिए लोहे की छड़ से अपनी पीठ पर गुदवाया टैटू मिटवाता है। फिर इतना प्यार करता है, इतना प्यार करता है कि शेर से लड़ाई करनी पड़ती है। गुलज़ार की लिखी हुई फिल्म में सारे गीत अच्छे हैं, संगीत अच्छा है मगर बार-बार दो-चार पात्रों के बीच ही घूमती कहानी अच्छा असर करने के बजाय बोरियत पैदा कर देती है।
निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा रंग दे बसंतीजैसी कोशिश हर बार करते हैं। एक कहानी में कई कहानियां गूंथने की। फिल्म बनाने से पहले अपना होमवर्क भी अच्छे से करते हैं। मगर जो मल्टीप्लेक्स का दर्शक है, उसे कहानियों में इतनी माथापच्ची करने की आदत नहीं। वो कोई होमवर्क करके फिल्म देखने नहीं आता। उसे एक आसान प्रेम कहानी चाहिए जिसे वो मकई के दानों (पॉपकॉर्न) के साथ पचा सके। ऐसा कर पाने में फिल्म सफल नहीं हो पाती। फिर एक्टर भी कोई सलमान खान नहीं। अनिल कपूर के सुपुत्र को अभी फिल्मी अभिनय सीखने के लिए दो-चार दर्जन प्रेम कहानियों में और काम करना पड़ेगा। क्योंकि यहां डिंग डांग डिंग करती माधुरी की जगह एक मॉडर्न कन्या है जिसे पीरियड फिल्म की नायिका के रूप में पर्दे पर उतारना एक जानलेवा रिस्क से कम कुछ भी नहीं।
बचपन के प्यार पर बनी कहानियां मुझे निजी तौर पर बहुत पसंद हैं। आप उसमें अपनी कोई मीठी-सी याद ढूंढने लगते हैं। कोई लड़की जो तिल के लड्डू शेयर करती होगी, कोई लड़की जो टीचर से आपके लिए झूठ बोलती होगी, कोई लड़की जो अचानक एक दिन बिछड़ जाती होगी। फिर वक्त कभी दोबारा मिलने का मौका देता भी है तो रिश्ता करवट ले चुका होता है। सबके साथ ही ऐसा होता होगा। हम सब किसी न किसी लोककथा के नायक हैं। हमारा बचपन ही हमारी लोककथा है। मगर इस कहानी पर कोई फिल्म बने तो मासूमियत बची रहनी चाहिए, इस बात का हर निर्देशक को ख़याल रखना पड़ेगा।
इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी यही है कि इसने एक कड़वा सच कहने का साहस दिखाया है। निर्देशक चाहते हैं कि हम ये सच स्वीकार करें। हमारी बचपन वाली प्रेमिका मजबूर तो हो सकती हैं, मगर खलनायिका होना हमें स्वीकार नहीं है।
निखिल आनंद गिरि

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